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ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 112/ मन्त्र 3
का॒रुर॒हं त॒तो भि॒षगु॑पलप्र॒क्षिणी॑ न॒ना । नाना॑धियो वसू॒यवोऽनु॒ गा इ॑व तस्थि॒मेन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥
स्वर सहित पद पाठका॒रुः । अ॒हम् । त॒तः । भि॒षक् । उ॒प॒ल॒ऽप्र॒क्षिणी॑ । न॒ना । नाना॑ऽधियः । व॒सु॒ऽयवः॑ । अनु॑ । गाःऽइ॑व । त॒स्थि॒म॒ । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कारुरहं ततो भिषगुपलप्रक्षिणी नना । नानाधियो वसूयवोऽनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥
स्वर रहित पद पाठकारुः । अहम् । ततः । भिषक् । उपलऽप्रक्षिणी । नना । नानाऽधियः । वसुऽयवः । अनु । गाःऽइव । तस्थिम । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 112; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(कारुः, अहं) अहं शिल्पविद्याशक्तिं दधामि (ततः) ततश्च (भिषक्) चिकित्सकोऽपि भवितुमर्हामि (नना) नम्रा च मे बुद्धिः सर्वत्र यथेष्टं गमयितुं शक्या (उपलप्रक्षिणी) पाषाणानां संस्कर्त्री मम बुद्धिर्मां मन्दिराणां निर्मातारमपि शक्नोति कर्तुम् (नानाधियः) एवं नानाकर्मवन्तो मद्भावाः (वसुयवः) ऐश्वर्य्यं कामयमाना विद्यन्ते, वयं च (अनु, गाः) इन्द्रियवृत्तय इवोच्चावचविषयगमनशीलाः (तस्थिम) स्मः,अतः (इन्दो) हे परमात्मन् ! (इन्द्राय) परमैश्वर्याय मद्वृत्तिं (परि, स्रव) प्रवाहय ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(कारुः, अहं) मैं शिल्पविद्या की शक्ति रखता (ततः) पुनः (भिषक्) वैद्य भी बन सकता हूँ, (नना) मेरी बुद्धि नम्र है अर्थात् मैं अपनी बुद्धि को जिधर लगाना चाहूँ, लगा सकता हूँ, (उपलप्रक्षिणी) पाषाणों का संस्कार करनेवाली मेरी बुद्धि मुझे मन्दिरों का निर्माता भी बना सकती है, इस प्रकार (नानाधियः) नाना कर्मोंवाले मेरे भाव (वसुयवः) जो ऐश्वर्य्य को चाहते हैं, वे विद्यमान हैं। हम लोग (अनु, गाः) इन्द्रियों की वृत्तियों के समान ऊँच-नीच की ओर जानेवाले (तस्थिम) हैं, इसलिये (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! हमारी वृत्तियों को (इन्द्राय) उच्चैश्वर्य्य के लिये (परि,स्रव) प्रवाहित करें ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा से उच्चोद्देश्य की प्रार्थना की गई है कि हे भगवन् ! यद्यपि मेरी बुद्धि मुझे कवि, वैद्य तथा शिल्पी आदि नाना भावों की ओर ले जाती है, तथापि आप ऐश्वर्य्यप्राप्ति के लिये मेरे मन की प्रेरणा करके मुझे उच्चैश्वर्य्य की ओर प्रेरित करें। रमेशचन्द्रदत्त तथा अन्य कई एक यूरोपियन भाष्यकारों ने इस मन्त्र के यह अर्थ किये हैं कि मैं कारू अर्थात् सूत बुननेवाला हूँ, मेरा पिता वैद्य और माता धान कूटती है, इस प्रकार नाना जातिवाले हम एक ही परिवार के अङ्ग हैं, इससे उन्होंने यह सिद्ध किया है कि वेदों में ब्राह्मणादि वर्णों का वर्णन नहीं, अस्तु, इसका हम विस्तारपूर्वक खण्डन उपसंहार में करेंगे ॥३॥
विषय
कार्यक्षमता
पदार्थ
(अहं कारुः) = मैं स्वयं शिल्पी हूँ। (ततः) = मेरे पिता (भिषग्) = वैद्य हैं। (नना) = माता (उपलप्रक्षिणी) = [उपलभ्यां प्रक्षिणोति धान्यादि], सत्तू को बनाती है, धान्यों को ठीकठाक करके सत्तु आदि का निर्माण करती है। इस प्रकार (नानाधियः) = विभिन्न कर्मों वाले होकर हम (वसूयवः) = वसुओं की कामना वाले होते हैं । इन सब कर्मों को हम (गाः इव) = ज्ञान की वाणियों व इन्द्रियों के अनुसार (अनु तस्थिम) = अनुष्ठित करते हैं। इस ज्ञान व इन्द्रियों की शक्ति के वर्धन के लिये हे (इन्दो) = सोम ! तू (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये परिस्त्रव प्राप्त हो, शरीर में चारों ओर गतिवाला हो। तेरे से सशक्त बनकर ही तो हम उन सब कार्यों को कर पायें।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण ही हमें ज्ञान व इन्द्रियों के बल को बढ़ाकर, उस-उस कार्य को कर सकने की क्षमता प्रदान करता है ।
विषय
अनेक उद्योग, व्यवसाय वालों का प्रमुख राजा द्वारा परस्पर संघटन। अध्यात्म में—नाना कर्म करने वाले अंगों का परस्पर ऐक्य।
भावार्थ
(अहं कारुः) मैं उत्तम स्तुतियों का करने वाला, उत्तम शिल्पों का सम्पादन करने वाला हूं। (ततः भिषक्) मेरा पुत्र वा पिता, रोगों की चिकित्सा करने वाला है। और (नना) माता वा बहिन (उपलप्रक्षिणी) पत्थरों या शिल-बट्टा से जौं को पीस कर सत्तू आदि बनाने वाली है। हम लोग सभी (वसूयवः) धन की इच्छा करते हुए (नाना धियः) नाना मति और कर्मों वाले होकर (गाः इव) गो-पालक के प्रति गौओं के सदृश (अनु तस्थिम) तेरी ही आज्ञानुसार नाना कार्य करते हैं। हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन्, तेजस्विन् ! तू (इन्द्राय) हमारे ऐश्वर्य के देने, अन्न जल प्रदान करने के लिये (परि स्रव) मेघवत् सुख की वृष्टि कर, हमें ऐश्वर्य प्रदान कर। (२) अध्यात्म में—मैं आत्मा कर्मकर्त्ता हूं, यज्ञ में ब्रह्मा के समान व्यापक प्राण देह में ‘भिषक्’ है। ‘नना’-वाणी, समीप स्थित आत्मा के सम्बन्ध में सदा तर्क वितर्क करती है, हम सब प्राण वा जीव इस देह में वास के इच्छुक होकर नाना कर्म करते हैं। हे आत्मन् ! प्रभु तू जीव पर सुखों की वर्षा कर।
टिप्पणी
‘ततः’—तन्यते अस्मादिति ततः पिता। तन्यतेऽसाविति ततः पुत्रः॥ ‘कारुः स्तोमानां कर्त्ता। ततः संताननाम पितुर्वा पुत्रस्य वा। ‘उपलप्रक्षिणी’—उपलाभ्यां दृषद्भ्यां प्रक्षिरणोति धान्यादि सा। अथवा उपलं समीपस्थमात्मानमुद्दिश्य पृच्छति समीपे क्षेति वा॥ अधिभूत में—उपलप्रक्षिणी—मेघ को पूर्ण करने वाली मध्यमा वाक् विद्युत् ‘तत’—मेघ जल वा ओषधिवर्ग। इन्दु—मेघ-इन्द्र।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शिशुर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः–१– ३ विराट् पंक्तिः। ४, निचृत् पंक्तिः॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I am an artist, maker, craftsman, father, a physician, mother, a miller. We are of different mind, competence and interests and in search of wealth and sustenance we go in different directions like the senses and yet stay together. You, O Soma, flow for Indra, centre and soul of the system.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमेश्वराला उच्च उद्देशाने प्रार्थना केलेली आहे की हे भगवान ! जरी माझी बुद्धी कवी, वैद्य आणि शिल्पी (कारागीर) इत्यादी विविध कर्माकडे जाते तरी तू ऐश्वर्य प्राप्तीसाठी माझ्या मनात प्रेरणा करून मला उच्च ऐश्वर्याकडे प्रेरित कर.
टिप्पणी
रमेशचंद्र व इतर कित्येक युरोपियन भाष्यकारांनी या मंत्राचा हा अर्थ केलेला आहे की, मी कारू अर्थात्, सूत विणणारा आहे. माझे पिता वैद्य आहेत व माझी माता धान्य कुटते. या प्रकारे नाना जातीचे आम्ही एकाच परिवाराचे अंग आहोत. यावरून त्यांनी हे सिद्ध केले आहे की, वेदात ब्राह्मण इत्यादी वर्णाचे वर्णन नाही याचे विस्तारपूर्वक खंडन आम्ही उपसंहारात करू. ॥३॥
हिंगलिश (1)
Subject
Different Vocations
Word Meaning
I am a musician, my family (father& Son) are medical practioners healing diseases, my mother grinds corn to make our food. We all perform our duties to make our contribution to sustain the society, like a cow sustains us all.मैं संगीतज्ञ हूं, मेरे पिता वैद्य हैं, मेरी माता अनाज को पीसती है. हम सब इस समाज के पोषण में एक गौ की भांति अपना अपनाअपना योगदान करते हैं.
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