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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ए॒ष प॒वित्रे॑ अक्षर॒त्सोमो॑ दे॒वेभ्य॑: सु॒तः । विश्वा॒ धामा॑न्यावि॒शन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः । प॒वित्रे॑ । अ॒क्ष॒र॒त् । सोमः॑ । दे॒वेभ्यः॑ । सु॒तः । विश्वा॑ । धामा॑नि । आ॒ऽवि॒शन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष पवित्रे अक्षरत्सोमो देवेभ्य: सुतः । विश्वा धामान्याविशन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । पवित्रे । अक्षरत् । सोमः । देवेभ्यः । सुतः । विश्वा । धामानि । आऽविशन् ॥ ९.२८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एषः) अयं परमात्मा (सोमः) सौम्यस्वभावः (देवेभ्यः सुतः) दैवसम्पत्तिमद्भ्यः प्रकाशमानः (विश्वा धामानि आविशन्) सर्वं स्थानं व्याप्नोति एवम्भूतः परमात्मा (पवित्रे अक्षरत्) जिज्ञासूनां पवित्रान्तःकरणे विराजते ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एषः) यह परमात्मा (सोमः) सौम्य स्वभाववाला (देवेभ्यः सुतः) दैवी सम्पत्तिवालों के लिये प्रकाशमान है (विश्वा धामानि आविशन्) सम्पूर्ण स्थानों में व्याप्त है, एवंभूत परमात्मा (पवित्रे अक्षरत्) जिज्ञासुओं के पवित्र अन्तःकरण में विराजमान होता है ॥२॥

    भावार्थ

    “यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानतः” यजुः। विज्ञानी पुरुष के लिये सब भूत उसका निवासस्थान हैं और इसी प्रकार “य आत्मनि तिष्ठन् आत्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरम्” बृ० अन्तर्यामि ब्रा०। इत्यादि वाक्यों में यह प्रतिपादन किया है कि जीवात्मा उसका शरीरस्थानी है अर्थात् जिस प्रकार जीवात्मा अपने शरीर का प्रेरक है, उसी प्रकार वह जीवात्मा का प्रेरक है, इसलिये मन्त्र में ‘धामान्याविशन्’ का कथन किया है अर्थात् शरीररूपी धाम में वह विराजमान है ॥२॥

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    विषय

    दिव्यता - तेजस्विता

    पदार्थ

    [१] (एष:) = यह (सोमः) = सोम (पवित्रे) = पवित्र हृदयवाले पुरुष में (अक्षरत्) = संचरित होता है । सोम रक्षण के लिये हृदय की पवित्रता आवश्यक है। यह सोम (देवेभ्यः) = देवों के लिये, दिव्य गुणों के विकास के लिये (सुतः) = उत्पन्न किया गया है। इसको रक्षण से हमारे जीवन में दिव्य गुणों का विकास होता है। [२] यह (विश्वा धामानि) = सब तेजों में (आविशन्) = प्रवेश करता हुआ होता है । सोम के रक्षण से अंग-प्रत्यंग तेजस्वी बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से दिव्य गुणों व तेजस्विता की प्राप्ति होती है ।

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    विषय

    अभिषेक योग्य के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (एषः) वह (सोमः) शासक (देवेभ्यः) विद्वान् और विजयेच्छुक पुरुषों के हितार्थ (पवित्रे) पवित्र, अभिषेचनीय पद पर (सुतः) अभिषिक्त हो कर (विश्वा धामानि) समस्त तेजों को (आविशन्) प्राप्त हो कर (अक्षरत्) आवे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रियमेध ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:–१, ४, ५ गायत्री। २, ३, ६ विराड् गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This Soma, divine presence and bliss, emerges and vibrates in holy minds, distilled by them through meditation for the noble souls while it rolls in majesty in and over all regions of the universe.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ‘‘यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद् विजानत:’’ यजु. विज्ञानी पुरुषासाठी सर्व भूत त्याचे निवासस्थान आहे. याच प्रकारे ‘‘य आत्मनि तिष्ठन् आत्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरम्’’ बृ. अंतर्यामि. इत्यादी वाक्यात हे प्रतिपादन केलेले आहे. जीवात्म्याच्या शरीरस्थानी तो आहे. अर्थात् ज्या प्रकारे जीवात्मा आपल्या शरीराचा प्रेरक आहे. त्याच प्रकारे तो जीवात्म्याचा प्रेरक आहे. त्यासाठी मंत्रात धामान्याविशन शब्द आलेला आहे. शरीररूपी धामात तो विराजमान आहे. ॥२॥

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