ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 35/ मन्त्र 6
विश्वो॒ यस्य॑ व्र॒ते जनो॑ दा॒धार॒ धर्म॑ण॒स्पते॑: । पु॒ना॒नस्य॑ प्र॒भूव॑सोः ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वः॑ । यस्य॑ । व्र॒ते । जनः॑ । दा॒धार॑ । धर्म॑णः । पतेः॑ । पु॒ना॒नस्य॑ । प्र॒भुऽव॑सोः ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वो यस्य व्रते जनो दाधार धर्मणस्पते: । पुनानस्य प्रभूवसोः ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वः । यस्य । व्रते । जनः । दाधार । धर्मणः । पतेः । पुनानस्य । प्रभुऽवसोः ॥ ९.३५.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 35; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यस्य) यस्य (धर्मणस्पतेः) धर्मरक्षकस्य (पुनानस्य) लोकस्य पवित्रयितुः (प्रभूवसोः) अनन्तैश्वर्यस्य परमात्मनः (व्रते) भक्तौ (विश्वः) सर्वैश्वर्याभिलाषिणः (मनः दाधार) स्वस्वमनांसि धारयन्ति तं परमात्मानं स्वहृदि धारयामः ॥६॥ इति पञ्चत्रिंशत्तमं सूक्तं पञ्चविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यस्य) जिस (धर्मणस्पतेः) धर्म को पालन करनेवाले (पुनानस्य) संसार को पवित्र करनेवाले (प्रभूवसोः) अनन्त ऐश्वर्यवाले परमात्मा की (व्रते) भक्ति में (विश्वः) सम्पूर्ण ऐश्वर्याभिलाषियों का गण (मनः दाधार) अपने-२ मन को धारण करता है, उस परमात्मा को अपने हृदय में बसाते हैं ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा के नियम में ही सब सूर्य्यादि पदार्थ अपने-अपने धर्म्मों को धारण करते हैं अर्थात् उसके नियमों का कोई भी उल्लङ्घन नहीं कर सकता। उस परमात्मा के महत्त्व को स्वहृदय में धारण करना प्रत्येक पुरुष का कर्तव्य है ॥६॥ यह ३५ वाँ सूक्त और २५ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
धर्मणस्पति-प्रभूवसु
पदार्थ
[१] (विश्वो जनः) = सब मनुष्य (यस्य व्रते) = जिस सोम के व्रत में (दाधार) = अपना धारण करते हैं। जिस समय सोमरक्षण के लिये व्रत में चलते हैं, तो उस समय ये मनुष्य अपना धारण करनेवाले बनते हैं । [२] यह सोम (धर्मणस्पते) = धारणात्मक कर्मों का रक्षक है, (पुनानस्य) = पवित्र करनेवाला है तथा (प्रभूवसोः) = प्रभावयुक्त वसुओंवाला है। सोमरक्षण से मनुष्य सदा धारणात्मक कर्मों को करने की वृत्तिवाला होता है इस सोम के रक्षण से जीवन पवित्र बनता है, शरीर नीरोग तथा मन निर्मल । सोमरक्षण करनेवाला मनुष्य निवास के लिये आवश्यक सब तत्त्वों से युक्त होता है और सामर्थ्यवान् बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सोम का रक्षण करते हैं, तो यह [क] हमें धारणात्मक कर्मों में प्रवृत्त करता है, [ख] हमारे जीवनों को पवित्र बनाता है, [ग] हमें प्रभाव सम्पन्न बनाता है व निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों को प्राप्त कराता है । 'प्रभूवसु' ऋषि ही अगले सूक्त में कहता है-
विषय
उसके प्रति प्रजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(यस्य धर्मणः पते) जिस धर्मरक्षक, धनाध्यक्ष, (पुनानस्य) शासन के द्वारा पवित्रकारक, (प्रभू-वसोः) प्रचुर धनशाली और बहुतसी प्रजाओं के स्वामी के (व्रते) नियमों में (विश्वः जनः) समस्त जन (दाधार) अपने को पालित सुक्षित रखते हैं हम (तं वासयामसि) उस को सुरक्षित रक्खें। इति पञ्चविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रभूवसुर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, २, ४–६ गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥
इंग्लिश (1)
Meaning
We adore and glorify Soma, lord of universal wealth, honour and excellence, ordainer and guardian of Dharma and all purifier, who holds and sustains the entire world of humanity in his law of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या नियमातच सर्व सूर्य इत्यादी पदार्थ आपापले काम करतात. अर्थात् त्याच्या नियमाचे कोणीही उल्लंघन करू शकत नाही. त्या परमेश्वराचे महत्त्व स्वहृदयात धारण करणे प्रत्येक माणसाचे कर्तव्य आहे. ॥६॥
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