ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 41/ मन्त्र 3
शृ॒ण्वे वृ॒ष्टेरि॑व स्व॒नः पव॑मानस्य शु॒ष्मिण॑: । चर॑न्ति वि॒द्युतो॑ दि॒वि ॥
स्वर सहित पद पाठशृ॒ण्वे । वृ॒ष्टेःऽइ॑व । स्व॒नः । पव॑मानस्य । शु॒ष्मिणः॑ । चर॑न्ति । वि॒ऽद्युतः॑ । दि॒वि ॥
स्वर रहित मन्त्र
शृण्वे वृष्टेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिण: । चरन्ति विद्युतो दिवि ॥
स्वर रहित पद पाठशृण्वे । वृष्टेःऽइव । स्वनः । पवमानस्य । शुष्मिणः । चरन्ति । विऽद्युतः । दिवि ॥ ९.४१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 41; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वृष्टेः इव स्वनः शृण्वे) यस्यानुशासनं मेघवृष्टिरिव निःशङ्कं श्रूयते तस्य (पवमानस्य शुष्मिणः) संसारस्य पवितुः सर्वोत्कृष्टबलस्य च परमात्मनः (विद्युतः दिवि चरन्ति) विद्युदादिशक्तयः खे भ्राम्यन्त्यो दृश्यन्ते ॥३॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(वृष्टेः इव स्वनः शृण्वे) जिसका अनुशासन मेघ की वृष्टि के समान निस्सन्देह सुना जाता है, उसी (पवमानस्य शुष्मिणः) संसार को पवित्र करनेवाले तथा सर्वोपरि बलवाले परमात्मा की (विद्युतः दिवि चरन्ति) विद्युदादि शक्तियें आकाश में भ्रमण करती हुई दिखायी देती हैं ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा की विद्युदादि अनेक शक्तियें हैं, इसलिये उसे अनन्तशक्ति ब्रह्म कहा जाता है ॥३॥
Bhajan
वैदिक मन्त्र
शृण्वे वृष्टेरिव,स्वन:,पवमानस्य शुष्मिण:।
चरन्ति विद्युतो दिवि ।। ऋ•९.४१.३
वैदिक भजन १०८९ वां
राग किरवानी
( दक्षिण भारतीय राग)
गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर
ताल कहरवा ८ मात्रा
आत्म-लोक में, वर्षा छाई
सोम प्रभु ने, है बरसाई
मेरे सोम प्रभु तो हैं पावन !
आनन्दमय सुधा सरसाई ।।
आत्मलोक में ...........
युग युग से संचित,आत्मा और मन के
पापों को धो देते हैं
'शुष्मी'हैं सोम प्रभु, बलियों के हैं बली
आत्म- बल संजोते हैं
बल को बढ़ाकर के, निर्बल को देते हैं
असहायों को सहायता देते हैं
हो रही है वृष्टि,
अनुभावित स्वर लहरी मनभाई
रिमझिम वर्षा का
संगीत मधुर है
वैसा आत्मा में भी बरस रहा
रमणीय संगीत, मानस में रम रहा
जिसके लिए मैं तरस रहा
आनन्द की बौछार,
शीतल मन्द्र- मंदार
प्राण पवन बनकर,
स्फूर्ति देता अपार
अंतरहृदय-भूलोक
मन,चित्त, हृदय में है छाई।।
पर्वत से नदियां
होती हैं अवतरित
आत्म-शिखरों से भी होती नित
मन, बुद्धि, चित्त को
करतीं आप्लावित
शुभग, सुमंगल करते हित
हृदयाकाश विद्युत,
मानस को करें उद्युत
प्रभु तड़ित हैं
हैं अनवर
देते स्थायी विभा प्रवर
चमक के ज्योतियां सर्वत्
द्युति दिव्यानन्द की है बलदायी।।
आत्मलोक में........
६.७.२००२
९.२५ रात्रि
शब्दार्थ:-
सुधा =अमृत
सरसाना= तर कर देना
आप्लावित=भीगा हुआ, सिक्त
संचित=इकट्ठा किया हुआ
शुष्मी=बलवान, शक्तिशाली
संजोना=सजाना, क्रम में रखना
अनुभावित=अनुभव करने वाली
मन्द्र=शान्त, मनोहर
मन्दार=स्वर्ग का एक देव- वृक्ष
हरित=हरा हुआ हुआ
आप्लावित=सींचा हुआ,भीगा हुआ,
अवतरित=उतरा हुआ, नीचे आया हुआ
शुभग=सौभाग्य वाला
विद्युत= बिजली, तड़ित
तड़ित=बिजली, विद्युत
विभा=चमक,कान्ति,किरण
उद्यत= तैयार
अनवर= शोभायमान, जो कम ना हो
प्रवर=श्रेष्ठ, उत्तम
द्युति =चमक
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आज का वैदिक भजन 🙏 1075
ओ३म् शृ॒ण्वे वृ॒ष्टेरि॑व स्व॒नः पव॑मानस्य शु॒ष्मिण॑: ।
चर॑न्ति वि॒द्युतो॑ दि॒वि ॥
ऋग्वेद 9/41/3
सामवेद 894 (5/1/3/3)
साधक की साधना
परिपक्व होकर मन को,
शब्द आदेश से जोड़े,
विमल आदेश प्रभु के
साधक मनायु सुनते,
दौड़ें ना बाहर मन के घोड़े,
साधक की साधना,
परिपक्व होकर मन को,
शब्द आदेश से जोड़े
पाप-ताप में झुलस कर,
आत्मा अशान्त तरसा,
वृष्टि बन मेघ-जल बरसा
ज्वाला अधर्म की,
वृष्टि से शान्त हो गई,
पवित स्नान को मन तरसा,
झुलसी हुई, धुलती गई,
मन की यह कालिमा,
बुझ गए पापों के शोले
साधक की साधना,
परिपक्व होकर मन को,
शब्द आदेश से जोड़े
बादलों के बीच नभ में,
चमके बिजुरिया,
चकाचौंध हुए नैन मूँदे ,
किन्तु साधक के,
देहाकाश की बिजुरिया,
खोले अन्त:-नैन मन गूँजे,
कौन समझाए,
ब्रह्मयोग की महिमा,
जाने जो, प्रभु को ना छोड़े
साधक की साधना,
परिपक्व होकर मन को,
शब्द आदेश से जोड़े,
विमल आदेश प्रभु के
साधक मनायु सुनते,
दौड़ें ना बाहर मन के घोड़े,
साधक की साधना,
परिपक्व होकर मन को,
शब्द आदेश से जोड़े
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :- ६.११.२००१ ४.३५ सायं
राग :- वृंदावनी सारंग
राग का गायन समय दिन का तृतीय प्रहर, ताल कहरवा ८ मात्रा
शीर्षक :- अध्यात्म-अनुभव
*तर्ज :- *
0099-699
मन के घोड़े = मन इंद्रियों की तृष्णायें
मनायु = आत्मा की मननशील प्रवृत्ति
शब्द-आदेश = ईश्वरीय वेद कीश्रुतियां
परिपक्व = पूर्ण रूप से तैयार
पवित = शुद्ध,पवित्र,
कालिमा = अंधकार
शोले = आग की उठती लपटें देहाकाश=शरीरमेंस्थितआकाश
ब्रह्मयोग = ईश्वर से जुड़ा अध्यात्म अनुभव
बिजुरिया = बिजली
अंतःनैन = आंतरिक दृष्टि
धर्ममेघ = धर्म रूपी कल्याणकारी बादल
Vyakhya
प्रभु वर्षा की रिमझिम
आज मेरे आत्मा लोक में बरसात छाई है। सोमवार प्रभु मेघ बनकर बरस रहे हैं। साधारण मेघ भी 'पवमान' होता है, क्योंकि वह पवित्रता दायक निर्मल जल की वर्षा करता है; फिर मेरे सोम प्रभु ! 'पवमान' क्यों ना हों ! उनमें तो वह पवित्रतादायक आनन्द- रस भरा है, जो आत्मा और मन के युग- युग से संचित पाप को धो देता है। सोम प्रभु 'शुश्मी' हैं, बलवान हैं, बलियों के बली है। अतः अपनी शरण में आने वाले को आत्मिक बल से परिपूर्ण कर देते हैं। उनसे बरसने वाली बल की वृष्टि निर्बल को बलि, असहाय को सुसहाय, और उत्साह एवं जागृति से इनको उत्साही एवं जागरूक बना देती है।
आज मैं स्पष्ट रूप से अनुभव कर रहा हूं कि 'शुष्मी' पवमान सोमा प्रभु की आनन्दमयी रिमझिम वर्षा मेरे अन्तर्लोक में हो रही है। वर्षा की रिमझिम में जो संगीत होता है, वैसा ही संगीत मेरी आत्मा में उठ रहा है। उस दिव्य संगीत में मैं अपनी सुध बुध खो बैठा हूं। बल और आनंद की रिमझिम के साथ-साथ शीतल, मन्द, सुगन्ध प्राण पवन बहकर मेरे मानस में नवीनता और सुरती उत्पन्न कर रहा है। वर्षा होने पर जैसे भूलोक पर सर्वत्र हरियाली छा जाती है, ऐसे ही मेरा
अंतर्लोक भी सत्य,न्याय,दया,श्रद्धा आदि
सद्गुणों की हरियाली से हरा भरा हो गया है। बरसात में जैसे नदियों पर्वतों से नीचे मैदानों में बहने लगती हैं, ऐसे ही मेरे आत्मा के उच्च शिखरों पर बरसे हुए सोम प्रभु के दिव्य रस की नदियां नीचे अवतरण कर मेरे मन, बुद्धि, प्राण, इंद्रियों आदि को आप्लावित कर रही हैं। बरसाती आकाश के जैसे बिजलियां चमकती हैं, वैसे ही मेरे हृदय-आकाश में आज दिव्यता की विद्युतें चमक रही हैं। वे विद्युतें मेरे मानस को प्रकाश का सूत्र पकड़ा रही हैं। उन क्षणप्रभा विद्युतों से मैं अपने मानस में स्थाई विद्युत-धारा को अर्जित कर रहा हूं।
जो जीवन पर्यंत मुझे ज्योति देती रहेगी।
मै मुग्ध हूं प्रभु वर्षा की रिमझिम पर, मैं मुग्ध हूं दिव्य विद्युतों की द्युति पर।
हे सोम प्रभु ! ऐसी कृपा करो कि यह बरसात मेरे आत्म लोक में सदा उमड़ती रहे, सदा मुझे दिव्य बलदायी रस और प्रकाश प्रदान करती रहे।
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प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
अध्यात्म-अनुभव
साधक की साधना,जब
परिपक्व हो जाती है
तब उसे जो अनुभव होता है उसकी संकेतमात्र चर्चा यहां है। सामवेद सारा-का-सारा आध्यात्मिकता की विविध अनुभूतियों के वर्णनों से ओत- प्रोत है। उपासना की समस्त भूमियां इसमें दर्शायी गई हैं। इस मन्त्र में भी साधक को जो प्रत्यक्ष भान होता है,उसका वर्णन है।
भगवान साधारण जन और असाधारण गण्यजन सभी को सदा उपदेश देते हैं, किन्तु उसको अधिक जन अनसुना कर देते हैं। कोई विरला ही उसे सुनने का यत्न करता है। साधना का मार्ग खुल गया इसकी सूचना इसी से होती है कि साधक भगवान के विमल उपदेश को सुने जिसे सुनाई देता है वही कह सकता है--
'श्रृण्वे वृष्टिरिव स्वन: पवमानस्य शुष्मिण:'।
पाप-ताप ने झुलस दिया है, आत्मा अशान्त हो उठा है। गर्मी के प्रचण्ड ताप को वृष्टि ही कम कर सकती है। साधक कहता है-- मुझे वृष्टि का सा शब्द सुनाई देता है । धर्ममेघ समाधि के समय वृष्टि का ही शब्द सुनाई देना चाहिए। उस धर्म मेघ की वृष्टि से अधर्म से पैदा हुई सब जलन शान्त हो जाती है; झुलस से उत्पन्न सब कालिमा धुल जाती है।
मेघ के साथ बिजली भी आती है इसलिए कहा गया है--
'चरन्ति विद्युतो दिवि'।
आकाश में बिजली चमक रही हैं सचमुच इस शरीराकाश में साधक को विद्युत के दर्शन होते हैं। योगी श्वेताश्वतर जी कहते हैं-- नीहारधूमार्कानिला..... श्वेता•२/११
कोहरा, धुआं, सूर्य, आग, हवा, खद्योत, विद्युत= बिजली बिल्लौर और चन्द्र के-से रूप आगे आते हैं, जब ब्रह्मयोग का अनुष्ठान किया जाता है।वेद के के विद्युत को इनका उपलक्षण समझा जा सकता है। बाहर की बिजली आंख बंद कराती है किन्तु यह बिजली आंख खोल देती है,मस्त कर देती है ।अनुभव की बात को शब्दों से कौन समझाए? भगवान ने थोड़े से शब्दों द्वारा कहना उचित समझा
विषय
वृष्टि का स्वन
पदार्थ
[१] (पवमानस्य) = पवित्र करनेवाले, (शुष्मिणः) = शत्रुशोषक बलवाले इस सोम का (स्वनः) = शब्द (वृष्टेः इव) = वृष्टि के शब्द की तरह (शृण्वे) = सुनाई पड़ता है। वस्तुतः सोमरक्षण से धीमे-धीमे अध्यात्म वृत्ति में उत्त्थान होकर मनुष्य समाधि की स्थिति तक पहुँचता है। उस समय 'धर्ममेघ समाधि' में आनन्द की वृष्टि का अनुभव होता है। इसी वृष्टि का प्रस्तुत मन्त्र में उल्लेख है । [२] इस समय (दिवि) = मस्तिष्क रूप द्युलोक में (विद्युतः) = विशिष्ट ज्ञानदीप्ति रूप (विद्युत् चरन्ति) = गतिवाली होती है । सोमरक्षण से बुद्धि की सूक्ष्मता सिद्ध होती है और ज्ञान चमक उठता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से समाधि की स्थिति में होनेवाली आनन्द की वर्षा का अनुभव होता है। मस्तिष्क में ज्ञानदीप्तियाँ चमक उठती हैं ।
विषय
साधक के भीतरी आनाहत नादों के मेघ-गर्जवनत् श्रवण और विद्युत् के तुल्य दीप्तियों की प्रतीति।
भावार्थ
(दिवि विद्युतः चरन्ति) आकाश में बिजुलियां चलती हैं और उस समय (वृष्टेः इवः स्वनः) वृष्टि के शब्द के समान (पवमानस्य शुष्मिणः) बलवान् पापशोधक उसका (स्वनः) शब्द (शृण्वे) सुन पड़ता है। साधक के (दिवि) मूर्धा स्थल में विद्युत की सी कान्तियां व्यापती हैं, अनाहत पटह के समान गर्जन अनायास सुनता है। वह स्वच्छ पवित्र आत्मा का ही शब्द होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४, ५ गायत्री। २ ककुम्मती गायत्री। ६ निचृद् गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The music of divinity, pure, purifying and edifying, is heard like showers of rain on earth, like flashes of lightning and roar of thunder which shine and rumble over the sky. This is the reflection of the might, majesty and generosity of Soma.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याच्या विद्युत इत्यादी अनेक शक्ती आहेत. त्यासाठी त्याला अनंत शक्ती ब्रह्म म्हटले आहे. ॥३॥
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