ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 41/ मन्त्र 4
आ प॑वस्व म॒हीमिषं॒ गोम॑दिन्दो॒ हिर॑ण्यवत् । अश्वा॑व॒द्वाज॑वत्सु॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । प॒व॒स्व॒ । म॒हीम् । इष॑म् । गोऽम॑त् । इ॒न्दो॒ इति॑ । हिर॑ण्यऽवत् । अश्व॑ऽवत् । वाज॑ऽवत् । सु॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ पवस्व महीमिषं गोमदिन्दो हिरण्यवत् । अश्वावद्वाजवत्सुतः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । पवस्व । महीम् । इषम् । गोऽमत् । इन्दो इति । हिरण्यऽवत् । अश्वऽवत् । वाजऽवत् । सुतः ॥ ९.४१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 41; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे परमात्मन् ! (सुतः) स्वयम्भूर्भवान् (गोमत् हिरण्यवत् अश्वावत् वाजवत्) गोस्वर्णाश्वबलपराक्रमादियुक्तं (महीम् इषम् आपवस्व) महदैश्वर्यं मह्यं वितरतु ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे परमात्मन् ! आप (सुतः) स्वयंसिद्ध हैं (गोमत् हिरण्यवत् अश्वावत् वाजवत्) गौ हिरण्य अश्व पराक्रमादि से युक्त (महीम् इषम् आपवस्व) बड़े भारी ऐश्वर्य मेरे लिये उत्पन्न करिये ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा अपनी स्वसत्ता से विराजमान है। अर्थात् परमात्मा सबका अधिष्ठान होकर सब वस्तुओं को प्रकाशित कर रहा है और वह स्वयंप्रकाश है ॥४॥
विषय
प्रशस्त इन्द्रियाँ
पदार्थ
[१] हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! तू (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ (महीम्) = अत्यन्त महनीय [महत्त्वपूर्ण] (इषम्) = प्रेरणा को (आपवस्व) = सर्वथा प्राप्त करा । अन्तः स्थित प्रभु की प्रेरणा सोमरक्षण से ही प्राप्त होती है । सोमरक्षण से वासनाओं का विध्वंस होकर हृदय की निर्मलता सिद्ध होती है। यह निर्मल हृदय प्रभु की प्रेरणाओं के सुनने का आधार बनता है । [२] यह प्रेरणा (गोमत्) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियोंवाली है, (हिरण्यवत्) = हितरमणीय ज्ञानवाली है। (अश्वावत्) = प्रशस्त कर्मेन्द्रियोंवाली है तथा (वाजवत्) = शक्ति व गतिवाली है [ वज् गतौ ] । हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा के अनुसार चलने पर हमारी [क] ज्ञानेन्द्रियाँ उत्तम होती हैं और हमारे ज्ञान का खूब ही वर्धन होता है। [ख] इसी प्रकार हमारी कर्मेन्द्रियाँ सशक्त होती हैं और परिणामतः हम खूब स्फूर्ति के साथ क्रियाओं में लगे रहते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से पवित्र हृदय बनकर हम प्रभु की प्रेरणा को सुनते हैं। इससे हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ प्रशस्त बनती हैं, हमारा ज्ञान व शक्ति बढ़ती है ।
विषय
ईश्वर वा राजा से अजा की ऐश्वर्य याचना।
भावार्थ
हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन् ! दयाशील ! तू (सुतः) उपासित और अभिषिक्त होकर, (गोमत् अश्ववत् हिरण्यवत् महीम् इषं) गौ, अश्व, सुवर्ण से युक्त बड़े भारी अन्न और भूमि (आ पवस्व) प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यातिथिर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४, ५ गायत्री। २ ककुम्मती गायत्री। ६ निचृद् गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, divine presence of might, majesty and bliss concentrated in the mind and soul, let showers of great energy and pure prosperity flow, abounding in lands and cows, knowledge and culture, golden beauties of riches, horses, speed and progress of achievement, and then attainment of the ultimate victory.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर आपल्या स्वसत्तेने विराजमान आहे अर्थात् परमेश्वर सर्वांचे अधिष्ठान बनून सर्व वस्तूंना प्रकाशित करत आहे व तो स्वयंप्रकाश आहे. ॥४॥
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