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ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 58/ मन्त्र 4
आ ययो॑स्त्रिं॒शतं॒ तना॑ स॒हस्रा॑णि च॒ दद्म॑हे । तर॒त्स म॒न्दी धा॑वति ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ययोः॑ । त्रिं॒शत॑म् । तना॑ । स॒हस्रा॑णि । च॒ । दद्म॑हे । तर॑त् । सः । म॒न्दी । धा॒व॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ययोस्त्रिंशतं तना सहस्राणि च दद्महे । तरत्स मन्दी धावति ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ययोः । त्रिंशतम् । तना । सहस्राणि । च । दद्महे । तरत् । सः । मन्दी । धावति ॥ ९.५८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 58; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ययोः) याभिः शक्तिभिः (त्रिंशतं तना) वयं शतत्रयवत्सरपर्यन्तं दीर्घायुषः तथा (सहस्राणि च आदद्महे) सहस्रशक्त्युत्पादनं कर्तुं शक्नुमः। एतादृक्छक्तिसम्पन्नः (मन्दी) आनन्दकारकः (सः) स परमात्मा (तरत्) सर्वपापिनस्तारयन् (धावति) अखिलसंसारं व्याप्तो भवति ॥४॥ इत्यष्टपञ्चाशत्तमं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ययोः) जिन शक्तियों से (त्रिंशतं तना) हम तीन सौ वर्ष तक दीर्घायु और (सहस्राणि च आदद्महे) सहस्रों शक्तियों को उत्पन्न कर सकते हैं। ऐसी शक्तियोंवाला (मन्दी) आह्लादजनक (सः) वह परमात्मा (तरत्) सब पापियों को तारता हुआ (धावति) सम्पूर्ण संसार में व्याप्त हो रहा है ॥४॥
भावार्थ
यद्यपि साधारणतया मनुष्य के आयु की अवधि सौ वर्ष तक है, तथापि कर्मयोगी अपने उग्र कर्मों द्वारा अपनी आयु को बढ़ा सकते हैं, इसीलिए “भूयश्व शरदः श्तात्“ इस वाक्य में सौ से अधिक की प्रार्थना की गई है और जो इस मन्त्र में पापों के नाश का कथन है, वह पापवासना के क्षय के अभिप्राय से है, प्रारब्ध कर्मों के नाश के अभिप्राय से नहीं ॥४॥ यह ५८ वाँ सूक्त और १५ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
त्रिंशतं सहस्त्राणि
पदार्थ
[१] (ययोः) = गत मन्त्र में वर्णित 'ध्वत्र व पुरुषन्ति' के (त्रिंशतं सहस्राणि च) = तीसों व हजारों (तना) = शक्तियों के विस्तारों व ऐश्वर्यों को (आदद्महे) = हम ग्रहण करते हैं । (सः) = वह ध्वस्र व वह पुरुषन्ति (तरत्) = सब रोगों व वासनाओं को तैरता हुआ (मन्दी) = ज्ञान दीप्ति से चमकता हुआ व स्तुति करता हुआ (धावति) = गति करता है व अपने जीवन को शुद्ध बनाता है । [२] 'त्रिंशतं सहस्राणि' का अर्थ '३० हजार दिन पर्यन्त' यह भी है । उस समय मन्त्रार्थ इस प्रकार होगा कि हम ३० हजार दिन पर्यन्त, अर्थात् आजीवन उन शक्तियों के विस्तार को धारण करें जो कि 'ध्वस्र व पुरुषन्ति' को प्राप्त होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम वासनाओं का विध्वंस करते हुए व दानवृत्तिवाला बनते हुए शक्तियों का विस्तार करें। अवत्सार ही अगले सूक्त में भी कहते हैं-
विषय
उसके सहस्रों ऐश्वर्य।
भावार्थ
(ययोः) जिन उक्त दोनों के (त्रिंशतं सहस्राणि तना आ दद्महे) ३० सहस्र, ऐश्वर्य हम प्राप्त करते हैं वे ही स्तुति योग्य हैं। (सः मन्दी तरत्) वह स्तुति कर्त्ता भी पापों से मुक्त हों जाता है और (धावति) उस प्रभु को प्राप्त हो जाता है। इति पञ्चदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवत्सार ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३ निचृद् गायत्री। २ विराड् गायत्री। ४ गायत्री॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The divine Soma energy and power, destroyer of evil and saviour of human good, of which we get thirty virtues and a thousand other gifts, flows on saving, delighting, delightful.
मराठी (1)
भावार्थ
सामान्यत: जरी माणसाचे आयुष्य शंभर वर्षे आहे तरी कर्मयोगी आपल्या उग्र कर्मांद्वारे आपले आयुष्य वाढवू शकतात.३ त्यासाठी ‘भूयश्च शरद: शतात् ’ या वाक्यात शंभर वर्षांहून अधिक जगण्याची प्रार्थना केलेली आहे. या मंत्रात पाप नाशाचे कथन आहे ते पापवासनेच्या क्षयाच्या दृष्टीने आहे. प्रारब्ध कर्मांच्या नाशाच्या अभिप्रायाने नाही. ॥४॥
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