ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 78/ मन्त्र 4
गो॒जिन्न॒: सोमो॑ रथ॒जिद्धि॑रण्य॒जित्स्व॒र्जिद॒ब्जित्प॑वते सहस्र॒जित् । यं दे॒वास॑श्चक्रि॒रे पी॒तये॒ मदं॒ स्वादि॑ष्ठं द्र॒प्सम॑रु॒णं म॑यो॒भुव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठगो॒ऽजित् । नः॒ । सोमः॑ । र॒थ॒ऽजित् । हि॒र॒ण्य॒ऽजित् । स्वः॒ऽजित् । अ॒प्ऽजित् । प॒व॒ते॒ । स॒ह॒स्र॒ऽजित् । यम् । दे॒वासः॑ । च॒क्रि॒रे । पी॒तये॑ । मद॑म् । स्वादि॑ष्ठम् । द्र॒प्सम् । अ॒रु॒णम् । म॒यः॒ऽभुव॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
गोजिन्न: सोमो रथजिद्धिरण्यजित्स्वर्जिदब्जित्पवते सहस्रजित् । यं देवासश्चक्रिरे पीतये मदं स्वादिष्ठं द्रप्समरुणं मयोभुवम् ॥
स्वर रहित पद पाठगोऽजित् । नः । सोमः । रथऽजित् । हिरण्यऽजित् । स्वःऽजित् । अप्ऽजित् । पवते । सहस्रऽजित् । यम् । देवासः । चक्रिरे । पीतये । मदम् । स्वादिष्ठम् । द्रप्सम् । अरुणम् । मयःऽभुवम् ॥ ९.७८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 78; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोमः) परमेश्वरः (गोजित्) नानाविधसूक्ष्मातिसूक्ष्म- शक्तिजेतास्ति। तथा (रथजित्) महावेगवन्तमपि पदार्थं जयति। अथ च (हिरण्यजित्) महतीमपि शोभामभिभवति। तथा (स्वर्जित्) सकलसुख-विजयकर्तास्ति तथा (अब्जित्) महान्तमपि वेगं विजयते अथ च (सहस्रजित्) असङ्ख्यवस्तुविजेतास्ति। (यम्) इमम् (मदम्) आह्लादकं (स्वादिष्ठम्) ब्रह्मानन्दप्रदं (द्रप्सम्) रसस्वरूपं (अरुणम्) प्रकाशरूपं (मयोभुवम्) सुखदं परमात्मानं (देवासः) दिव्यगुणवन्तो विद्वज्जनाः (नः) अस्माकं (पीतये) तृप्तये (चक्रिरे) व्याख्यानं कुर्वते ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोमः) परमात्मा (गोजित्) सब प्रकार की सूक्ष्म शक्तियों को जीतनेवाला है। तथा (रथजित्) बड़े से बड़े वेगवाले पदार्थ को जीतनेवाला है और (हिरण्यजित्) बड़ी-बड़ी शोभाओं को जीतनेवाला है। तथा (स्वर्जित्) सब सुखों को जीतनेवाला है और (अब्जित्) बड़े-बड़े वेग को जीतनेवाला है। तथा (सहस्रजित्) अनन्त पदार्थों का जीतनेवाला है। (यम्) जिस (मदम्) आह्लादक (स्वादिष्ठम्) ब्रह्मानन्द देनेवाले (द्रप्सम्) रसस्वरूप (अरुणम्) प्रकाशस्वरूप (मयोभुवम्) सुख देनेवाले परमात्मा का (देवासः) विद्वद्गण (नः) हमारी (पीतये) तृप्ति के लिये (चक्रिरे) व्याख्यान करते हैं ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा के आगे इस संसार की सब शक्तियें तुच्छ हैं अर्थात् वह सर्वविजयी है। उसी से विद्वान् लोग नित्य सुख की प्रार्थना करते हैं ॥४॥
विषय
सर्वजित् शासक और प्रभु।
भावार्थ
(नः) हमारा (मदं) अति आनन्ददायक, (स्वादिष्ठं) अति मात्र अपने ही वस्तु के भोक्ता, वा शुभ, उत्तम सात्विक अन्न के ही भोक्ता, (द्रप्सं) बलवान्, (अरुणं) तेजस्वी (मयोभुवं) सुखप्रद, (यं) जिसको (देवासः) मनुष्य लोग भी (पीतये चक्रिरे) अपने उपयोग और पालन के लिये नियत करते हैं। (सोमः) उत्तम शासक (गोजित्) गौओ वाणियों और इन्द्रियों पर वश करने वाला वाग्मी, जितेन्द्रिय, (रथ-जित्) रथों, देहों पर वश करने वाला, (हिरण्य-जित्) सुवर्ण आदि धनों के विजय करने वाला, (स्वर्जित्) सुख और प्रकाश को वश करने वाला (अप्-जित्) प्राणों और आप्त प्रजाओं पर वशी, (सहस्र-जित्) बलवान् सहस्रों को विजय करने वाला, सर्वजित्, है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कविर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ५ निचृज्जगती। २–४ जगती॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
विषय
सर्वविजयी सोम
पदार्थ
[१] (सोमः) = यह सोम [वीर्यशक्ति] (नः) = हमारे लिये (गोजित्) = इन्द्रियाँ का विजय करनेवाला है। इस सोम के रक्षण से सब इन्द्रियों की शक्ति बड़ी ठीक बनी रहती है । (रथजित्) = शरीर रूप रथ को यह जीतनेवाला है, सोमरक्षण ही शरीर को नीरोग बनाता है। (हिरण्यजित्) = यह सोम [हिरण्यं वै ज्योतिः ] ज्योति का विजय करनेवाला है। सुरक्षित सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर ज्ञान का वर्धन करता है। ज्ञानवर्धन के द्वारा यह (स्वर्जित्) = सुख का विजय करनेवाला है । अविद्या के कारण ही तो कष्ट थे। विद्या का प्रकाश हुआ और कष्ट गये। यह सोम (अब्जित्) = हमारे लिये कर्मों का विजय करनेवाला होकर पवते प्राप्त होता है, सोमरक्षण से प्राप्त शक्ति हमें क्रियाशील बनाती है । इस प्रकार क्रियाशीलता के द्वारा यह सोम (सहस्त्रजित्) = हजारों वस्तुओं का हमारे लिये विजय करनेवाला है । [२] यह सोम वह है (यम्) = जिसको (देवासः) = देववृत्ति के व्यक्ति (पीतये चक्रिरे) = शरीर के अन्दर ही पान के लिये करते हैं । (मदम्) = यह उल्लास का जनक है, (स्वादिष्ठम्) = हमारी वाणी में माधुर्य का अतिशयेन सञ्चार करनेवाला है, (द्रप्सम्) = [दृपी हर्षणे] हर्ष को उत्पन्न करता है अथवा [संभृतः प्सानीयो भवति नि० ५ । १४] शरीर में धारण किया हुआ भक्षणीय होता है, शरीर में ही व्याप्त करने योग्य होता है। (अरुणम्) = हमें तेजस्वी बनाता है और (मयोभुवम्) = नीरोगता को उत्पन्न करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- शरीर के अंग-प्रत्यंग को ठीक रखने व सब शक्तियों को स्थिर रखने का आधार सोम ही है। इसके धारण में ही जीवन है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, universal spirit of peace and bliss, is the creator master controller and giver of earthly and divine wealth and enlightenment, movement and progress, golden graces of beauty and excellence, happiness and fulfilment and fluid assets, it purifies us and wins us a thousand victories of existence. This spirit of universal joy, exciting, most delightful, streaming forth, enlightening, giver of peace and fulfilment, the divines reveal to us for our enlightenment and well being.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्यासमोर या जगाच्या सर्व शक्ती तुच्छ आहेत. अर्थात् तो सर्वजयी आहे. विद्वान लोक नित्य सुखासाठी त्याचींच प्रार्थना करतात. ॥४॥
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