ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 78/ मन्त्र 5
ए॒तानि॑ सोम॒ पव॑मानो अस्म॒युः स॒त्यानि॑ कृ॒ण्वन्द्रवि॑णान्यर्षसि । ज॒हि शत्रु॑मन्ति॒के दू॑र॒के च॒ य उ॒र्वीं गव्यू॑ति॒मभ॑यं च नस्कृधि ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तानि॑ । सो॒म॒ । पव॑मानः । अ॒स्म॒ऽयुः । स॒त्यानि॑ । कृ॒ण्वन् । द्रवि॑णानि । अ॒र्ष॒सि॒ । ज॒हि । शत्रु॑म् । अ॒न्ति॒के । दू॒र॒के । च॒ । यः । उ॒र्वीम् । गव्यू॑तिम् । अभ॑यम् । च॒ नः॒ । कृ॒धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतानि सोम पवमानो अस्मयुः सत्यानि कृण्वन्द्रविणान्यर्षसि । जहि शत्रुमन्तिके दूरके च य उर्वीं गव्यूतिमभयं च नस्कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठएतानि । सोम । पवमानः । अस्मऽयुः । सत्यानि । कृण्वन् । द्रविणानि । अर्षसि । जहि । शत्रुम् । अन्तिके । दूरके । च । यः । उर्वीम् । गव्यूतिम् । अभयम् । च नः । कृधि ॥ ९.७८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 78; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे जगदीश ! (पवमानः) पवित्रः तथा (अस्मयुः) अस्मद्धितचिन्तकस्त्वं (सत्यानि कृण्वन्) सदुपदिशन् (एतानि) पूर्वोक्तान्यखिलानि (द्रविणानि) ऐश्वर्याणि (अर्षसि) ददासि। अथ च ये मम (अन्तिके) समीपे (च) तथा (दूरके) दूरवर्तिनः (शत्रुम्) शत्रवः सन्ति तान् (जहि) मारय (यः) यो हि (उर्वीम्) विस्तृतः (गव्यूतिम्) मार्गोऽस्ति तं मदर्थमनवरुद्धं कुरु। अथ च (नः) अस्मान् (अभयम्) भयरहितान् (कृधि) कुरु ॥५॥ इत्यष्टसप्ततितमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! (पवमानः) पवित्र (अस्मयुः) हमारे शुभ की इच्छा करनेवाले आप (सत्यानि कृण्वन्) सदुपदेश को करते हुए (एतानि) पूर्वोक्त समस्त (द्रविणानि) ऐश्वर्यों को (अर्षसि) देते हैं और जो हमारे (अन्तिके) समीपवर्ती (च) तथा (दूरके) दूरवर्ती (शत्रुम्) शत्रु हैं, उनको आप (जहि) नाश करें। (यः) जो (उर्वीम्) विस्तृत (गव्यूतिम्) मार्ग है, उसे हमारे लिये खोल दें और (नः) हमको (अभयम्) भयरहित (कृधि) कर दीजिये ॥५॥
भावार्थ
शत्रु से तात्पर्य यहाँ अन्यायकारी मनुष्यों का है। वे मनुष्य दूरवर्ती वा निकटवर्ती हों, उन सबके नाश की प्रार्थना इस मन्त्र में परमात्मा से की गयी है ॥५॥ यह ७८ वाँ सूक्त और तीसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
उत्तम शासक के कर्त्तव्य, शत्रु का नाश कर प्रजा को अभय देना।
भावार्थ
हे (सोम) ऐश्वर्यवन् ! उत्तम शासक ! तू (अस्मयुः) हमारा स्वामी होकर (पवमानः) पवित्र, अभिषेकवान् (एतानि सत्यानि द्रविणानि) इन सत्य धनों और बलों को प्राप्त करता हुआ, (अर्षसि) प्राप्त हो, (अन्तिके दूरके च यः, शत्रुं जहि) पास और दूर भी जो वर्तमान है उस शत्रु को भी नाश कर। और (उर्वी गव्यूतिं च) भूमि और उस पर के मार्ग को भी (नः अभयं कृधि) हमारे लिये भय से रहित कर। इति तृतीयो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कविर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ५ निचृज्जगती। २–४ जगती॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
विषय
उर्वी गव्यूति- अभय
पदार्थ
[१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते! तू (एतानि द्रविणानि) = इन ऊपर के मन्त्र में कहे गये द्रविणों को [ = धनों को] (सत्यानि) = सत्य (कृण्वन्) = करता हुआ (अस्मयुः) = हमारे हित की कामनावाला होकर (अर्षसि) = शरीर में गतिवाला होता है। (पवमानः) = तू हमारे जीवन को पवित्र करता है । [२] तू (शत्रुं जहि) = हमारे शत्रुओं को विनष्ट करता है वह (अन्तिके) = समीप हो, (च) = या (यः) = जो (दूरके) = दूर हो। समीप के व दूर के सभी शत्रुओं को तू हमारे लिये नष्ट करनेवाला हो। इस प्रकार शत्रुओं का विनाश करके (नः) = हमारे लिये (उर्वी गव्यूतिम्) = विशाल मार्ग को (च) = और (अभयम्) = निर्भयता को (कृधि) = करिये।
भावार्थ
भावार्थ- सोम हमें सब द्रविणों को प्राप्त कराता है, हमारे सब रोग व वासनारूप शत्रुओं का विनाश करता है। हमारे लिये विशालता व निर्भयता को प्राप्त कराता है। अगले सूक्त का ऋषि भी कवि ही है-
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, our well wisher, pure and purifying, these are the real and true acts of kindness and grace, doing which you vibrate for our prosperity, honour and excellence everywhere. Pray destroy our negativities and enemities far as well as near, and open for us the paths of progress wide, straight and free from fear.
मराठी (1)
भावार्थ
शत्रू याचा अर्थ येथे अन्यायकारी माणसे असा आहे. ती दूरची असोत किंवा निकटची असोत. त्या सर्वांच्या नाशाची प्रार्थना परमेश्वराजवळ केलेली आहे. ॥५॥
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