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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 79/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कविः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    उ॒त स्वस्या॒ अरा॑त्या अ॒रिर्हि ष उ॒तान्यस्या॒ अरा॑त्या॒ वृको॒ हि षः । धन्व॒न्न तृष्णा॒ सम॑रीत॒ ताँ अ॒भि सोम॑ ज॒हि प॑वमान दुरा॒ध्य॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । स्वस्याः॑ । अरा॑त्याः । अ॒रिः । हि । सः । उ॒त । अ॒न्यस्याः॑ । अरा॑त्याः । वृकः॑ । हि । सः । धन्व॑न् । न । तृष्णा॑ । सम् । अ॒री॒त॒ । तान् । अ॒भि । सोम॑ । ज॒हि । प॒व॒मा॒न॒ । दुः॒ऽआ॒ध्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत स्वस्या अरात्या अरिर्हि ष उतान्यस्या अरात्या वृको हि षः । धन्वन्न तृष्णा समरीत ताँ अभि सोम जहि पवमान दुराध्य: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । स्वस्याः । अरात्याः । अरिः । हि । सः । उत । अन्यस्याः । अरात्याः । वृकः । हि । सः । धन्वन् । न । तृष्णा । सम् । अरीत । तान् । अभि । सोम । जहि । पवमान । दुःऽआध्यः ॥ ९.७९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 79; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उत) अथ वा (स्वस्या अरात्याः) स्वस्य शत्रोः (उत) अथ वा (अन्यस्या अरात्याः) अन्यस्य शत्रोः (सः) परमात्मा (वृकः) हिंसको भवति (हि) यतः (धन्वन् न तृष्णा) यथा निरुदकदेशतृष्णा (समरीत) व्याप्नोति (तान्) तृष्णां (सोम) हे परमात्मन् ! त्वं (अभिजहि) नाशय (दुराध्यः) हे इन्द्रियगोचर ! (पवमान) शुद्धस्त्वं पुंसः कामरूपां तृष्णां जहि ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उत) अथवा (स्वस्या अरात्याः) अपना शत्रु हो (उत) अथवा (अन्यस्या अरात्याः) दूसरे का शत्रु हो, दोनों प्रकार के शत्रु हिंसनीय होते हैं, (हि) क्योंकि (सः) वह (वृकः) हिंसकरूप है (धन्वन् न तृष्णा) जिस प्रकार बाधा देनेवाली तृष्णा (समरीत) आकर प्राप्त होती है (तान्) उस तृष्णा को (सोम) हे परमात्मन् ! तुम (अभिजहि) नाश करो। (पवमान) हे सबके पवित्र करनेवाले (दुराध्यः) हे इन्द्रियागोचर परमात्मन् !आप इस कामना-रूप तृष्णा का नाश करें ॥३॥

    भावार्थ

    हे परमात्मन् ! आप जो दुराराध्य शत्रु हैं अर्थात् दुःख से वशीभूत होनेवाले हैं, उनका हनन करें। शत्रु से तात्पर्य कामरूप शत्रु का भी है। इसी अभिप्राय से गीता में कृष्ण जी ने कहा है कि “पाप्मानं प्रजह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्” ज्ञान और विज्ञान को नाश करनेवाले इस पापी काम का नाश करो ॥३॥

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    विषय

    परमेश्वर की महती शक्तियां।

    भावार्थ

    (सः हि) वह निश्चय से (स्वस्याः अराव्याः) अपने अधिकारादि न देने वाले शत्रु का (अरिः) शत्रु और उस तक निर्भय होकर पहुंचने वाला है, (उत) और (सः अन्यस्याः अरात्याः) वह दूसरे शत्रु का भी (वृकः) विशेष रूप से कष्ट डालने वाला है। वह (धन्वन् तृष्णा न) मरु भूमि में तृष्णा के समान (धन्वन्) धनुष के आश्रय ही (सम अरीत) समर करने में समर्थ है। हे (सोम) ऐश्वर्यवन् बलवन् ! हे (पवमान) राष्ट्र से पवित्र करने वाले ! तू (तान्) उन (दुः-आध्यः) दुःख से वश करने योग्य शत्रुओं को भी (जहि) दण्डित कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कविर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ३ पादनिचृज्जगती। २, ४, ५ निचृज्जगती। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    शत्रु विनाश

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (हि) = निश्चय से (सः) = वह सोम (स्वस्याः अरात्याः) = अध्यात्म [स्व= आत्मा] शत्रुओं का (अरि:) = अभिगन्ता-आक्रमण करनेवाला होता है, अर्थात् वासनारूप अध्यात्म शत्रुओं को यह विनष्ट करता है । (उत) = और (अन्यस्याः अरात्याः) = आत्मभिन्न शरीर के रोग आदि शत्रुओं का भी (सः) = वह सोम (हि) = निश्चय से (वृकः) = आदान कर लेनेवाला [ उन्हें पकड़कर समाप्त कर देनेवाला] होता है । [२] (तान् अभि) = उन शत्रुओं के प्रति यह समरीत इस प्रकार प्रबल आक्रमण करनेवाला होता है, (न) = जैसे कि (धन्वन्) = रेगिस्तान में (तृष्णा) = प्यास हमारे पर आक्रमण करती है । हे सोम ! (पवमान) = पवित्र करनेवाले वीर्य ! तू (दुराध्यः) = इन दुःख से वश में करने योग्य शत्रुओं को (जहि) = नष्ट कर डाल [दुर् राध् य ] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम आत्मा व शरीर के शत्रुओं को नष्ट करता है। उन पर यह प्रबल आक्रमण करता है और कठिनता से वशीभूत होनेवाले शत्रुओं को भी समाप्त करता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    He is the enemy of one’s own adversity, and of another’s adversity too, he is the enemy, a very thunderbolt, against adversity and enmity. Deal with adversity and enmity the way you deal with thirst in the desert, driving it off any way, O Soma, pure, purifying and dynamic spirit, dispel the negative will and understanding of the obstinates and the malignants.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे परमात्मा! जे दुराराध्य शत्रू आहेत अर्थात हिंसक आहेत त्यांचे हनन कर. येथे शत्रूचे तात्पर्य कामरूप शत्रूही आहे. याच अभिप्रायाने गीता (३:४) मध्ये कृष्णाने म्हटले आहे की ‘‘पाप्मानं प्रजहि ह्मेनं ज्ञानविज्ञानम्’’ ज्ञान विज्ञानाचा नाश करणाऱ्या या पापी कामाचा नाश कर. ॥३॥

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