ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 80/ मन्त्र 2
ऋषिः - वसुर्भारद्वाजः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
यं त्वा॑ वाजिन्न॒घ्न्या अ॒भ्यनू॑ष॒तायो॑हतं॒ योनि॒मा रो॑हसि द्यु॒मान् । म॒घोना॒मायु॑: प्रति॒रन्महि॒ श्रव॒ इन्द्रा॑य सोम पवसे॒ वृषा॒ मद॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । त्वा॒ । वा॒जि॒न् । अ॒घ्न्याः । अ॒भि । अनू॑षत । अयः॒ऽहतम् । योनि॑म् । आ । रो॒ह॒सि॒ । द्यु॒ऽमान् । म॒घोना॑म् । आयुः॑ । प्र॒ऽति॒रत् । महि॑ । श्रव॑ । इन्द्रा॑य । सो॒म॒ । प॒व॒से॒ । वृषा॑ । मदः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं त्वा वाजिन्नघ्न्या अभ्यनूषतायोहतं योनिमा रोहसि द्युमान् । मघोनामायु: प्रतिरन्महि श्रव इन्द्राय सोम पवसे वृषा मद: ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । त्वा । वाजिन् । अघ्न्याः । अभि । अनूषत । अयःऽहतम् । योनिम् । आ । रोहसि । द्युऽमान् । मघोनाम् । आयुः । प्रऽतिरत् । महि । श्रव । इन्द्राय । सोम । पवसे । वृषा । मदः ॥ ९.८०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 80; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे जगद्रक्षकपरमात्मन् ! भवान् (मघोनाम्) उपासकानां (आयुः) जीवनं (प्रतिरन्) वर्द्धयति अथ च (इन्द्राय) कर्मयोगिने (महिश्रवः) बलप्रदाता चास्ति। तथा (मदः) सकलजनाह्लादकोऽस्ति। अथ च (वृषा) कामनावर्षकस्त्वं (पवसे) पुनासि। हे चराचरजगदुत्पादक- परमेश्वर ! (वाजिन्) हे बलस्वरूप परमात्मन् ! (यं त्वा) यं भवन्तं (अघ्न्याः) प्रकृत्याद्यविनाशिन्यः शक्तयः (अभ्यनूषत) विभूषयन्ति। तथा (अयोहतम्) त्वं हिरण्यमयं (योनिम्) स्थानं (आरोहसि) व्याप्नोषि। अथ (द्युमान्) सर्वप्रकाशकोऽसि ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! आप (मघोनाम्) उपासकों की (आयुः) आयु के (प्रतिरन्) बढ़ानेवाले हैं और (इन्द्राय) कर्म्मयोगी के लिये (महिश्रवः) बड़े बल के देनेवाले हैं। (मदः) सबके आह्लादक हैं और (वृषा) सब कामनाओं की वृष्टि करनेवाले हैं और (पवसे) पवित्र करते हैं। हे परमात्मन् ! (वाजिन्) हे बलस्वरूप ! (यं त्वा) जिस आपको (अघ्न्याः) प्रकृत्यादि अविनाशी शक्तियें (अभ्यनूषत) विभूषित करती हैं। (अयोहतम्) आप हिरण्यमय (योनिम्) स्थान को (आरोहसि) व्याप्त किये हुए हैं और (द्युमान्) प्रकाशस्वरूप हैं ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा इस हिरण्यमय प्रकृति-रूपी ज्योति का अधिकरण है। वा यों कहो कि इस हिरण्यमय प्रकृति ने उसके स्वरूप को आच्छादन किया है। इसी अभिप्राय से उपनिषद् में कहा है कि ‘हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्’ हिरण्यमय पात्र से परमात्मा का स्वरूप ढका हुआ है ॥२॥
विषय
हृदय-व्याप्त ज्ञानप्रद, जीवनदाता प्रभु।
भावार्थ
हे (वाजिन्) ऐश्वर्यवन् ! बलवन् ! (त्वां) तुझको (अघ्न्याः) कभी नाश न होने वाली और अन्यों को न पहुंचने वाली, अनन्य परक वेदवाणियां (अभि अनूषत) साक्षात् स्तुति करती हैं और तू (द्युमान्) सूर्य के समान कान्तिमान् होकर (अयः-हतं योनिम्) सुवर्ण से गढ़े हुए सिंहासन को राजा के तुल्य (अयः-हतम्) ज्ञान से व्याप्त (योनिम्) हृदय प्रदेश, अन्तर्गुहा को (आरोहसि) प्राप्त होता वा सर्वज्ञ बीजवत् उसमें अंकुरित विकसित होता है। (मघोनाम्) उत्तम धन, ज्ञानादि से सम्पन्न वा हत्या, हिंसा आदि दोषों से रहित निष्पाप पुरुषों, जीवों को (महि श्रवः) बड़ा उत्तम ज्ञान, यश, अन्न और (आयुः प्रतिरन्) आयु प्रदान करता है और हे (सोम) प्रभो ! ऐश्वर्यवन्! जगदुत्पादक ! तू (वृषा) समस्त आनन्दों का वर्षण करने वाला और (मदः) हर्षप्रद, सुख से तृप्त करने वाला होकर (इन्द्राय) इस भूमि को कृषि द्वारा विदारण करने वाले जीवगण को (महि श्रवः) बड़ा भारी अन्न और (इन्द्राय महि श्रवः) इस अध्यात्मदर्शी ज्ञानी को महान् ज्ञान और कीर्ति (पवसे) प्रदान करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुर्भारद्वाज ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४ जगती। २, ५ विराड़ जगती। ३ निचृज्जगती॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
विषय
अयोहतं योनिम् आरोहसि द्युमान्
पदार्थ
[१] हे (वाजिन्) = शक्ति सम्पन्न सोम ! (यं त्वा) = जिस तुझ को (अघ्न्याः) = ये अहन्तव्य वेदवाणी रूप गौएं (अभ्यनूषत) = स्तुत करती हैं, वेदवाणी का सदा स्वाध्याय करना ही चाहिए, इसी से अहन्तव्य कहलाती है। इसमें सोम का स्तवन विस्तार से उपलब्ध होता है। यह सोम (द्युमान्) = ज्योतिर्मय है, ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाला है, हे सोम ! द्युमान् होता हुआ तू (अयोहतम्) = लोहे से घड़े हुए, अर्थात् अत्यन्त दृढ़ (योनिम्) = इस अपने उत्पत्ति स्थानभूत शरीर में (आरोहसि) = आरोहण करता है । यह सोम ही तो शरीर को सुदृढ़ बनाता है । [२] (मघोनाम्) = यज्ञशील पुरुषों के (आयुः प्रतिरन्) = आयुष्य को बढ़ाता हुआ, हे सोम ! तू (इन्द्राय) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (महि श्रवः) = महनीय ज्ञान को पवसे प्राप्त कराता है। तू (वृषा) = इस इन्द्र को शक्तिशाली बनाता है और (मदः) = उसके जीवन में उल्लास का जनक है।
भावार्थ
भावार्थ-वेद सोम की महिमा का गायन करता है। [क] यह शरीर को दृढ़ बनाता है, [ख] मस्तिष्क को ज्योतिर्मय करता है, [ग] जीवन को वीर्य बनाता है, [घ] हमें शक्ति सम्पन्न करता हुआ उल्लास व आनन्द का जनक होता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
You, O vibrant lord of omnipotence, whom all inviolable forces of nature and communities of humanity adore and exalt, rise in all your glory and manifest in the golden heart cave of the soul. O lord of infinite joy, you promote the health and age of the men of piety and prosperity. Bless Indra, the ruling soul with honour and high renown and shower boundless bliss upon humanity.$The ceaseless flow goes on.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा या हिरण्यमय प्रकृतिरूपी ज्योतीचा अधिकरण (मुख्य) आहे. या हिरण्यमय प्रकृतीने त्याच्या स्वरूपाला आच्छादित केलेले आहे. याच अभिप्रायाने उपनिषदात म्हटले आहे की ‘‘हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यास्यापिहितं मुखम्’’ हिरण्यमय पात्राने परमात्म्याचे स्वरूप झाकलेले आहे. ॥२॥
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