ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 98/ मन्त्र 11
ऋषिः - अम्बरीष ऋजिष्वा च
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
ते प्र॒त्नासो॒ व्यु॑ष्टिषु॒ सोमा॑: प॒वित्रे॑ अक्षरन् । अ॒प॒प्रोथ॑न्तः सनु॒तर्हु॑र॒श्चित॑: प्रा॒तस्ताँ अप्र॑चेतसः ॥
स्वर सहित पद पाठते । प्र॒त्नासः॑ । विऽउ॑ष्टिषु । सोमाः॑ । प॒वित्रे॑ । अ॒क्ष॒र॒न् । अ॒प॒ऽप्रोथ॑न्तः । स॒नु॒तः । हु॒रः॒ऽचितः॑ । प्रा॒तरिति॑ । तान् । अप्र॑ऽचेतसः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते प्रत्नासो व्युष्टिषु सोमा: पवित्रे अक्षरन् । अपप्रोथन्तः सनुतर्हुरश्चित: प्रातस्ताँ अप्रचेतसः ॥
स्वर रहित पद पाठते । प्रत्नासः । विऽउष्टिषु । सोमाः । पवित्रे । अक्षरन् । अपऽप्रोथन्तः । सनुतः । हुरःऽचितः । प्रातरिति । तान् । अप्रऽचेतसः ॥ ९.९८.११
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 98; मन्त्र » 11
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! (ते) तव (प्रत्नासः) स्वाभाविकाः (सोमाः) सौम्यगुणाः (व्युष्टिषु) यज्ञेषु (पवित्रे) पवित्रेऽन्तःकरणे (अक्षरन्) प्रवहन्ति (अप्रचेतसः) ये चाज्ञानिनः (हुरश्चितः) कुटिलचित्ताः (तान्) तान्सर्वान् (अपप्रोथन्तः) हिंसकान् न प्रवाहयति भवान् ॥११॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (ते) तुम्हारे (प्रत्नासः) स्वाभाविक (सोमाः) सौम्य स्वभाव (पवित्रे) पवित्र अन्तःकरण में (अक्षरन्) प्रवाहित होते हैं, (अप्रचेतसः) अज्ञानी पुरुष (हुरश्चितः) जो कुटिल चित्तवाले हैं, (तान्) उनको आप प्रवाहित नहीं करते, क्योंकि वह (अपप्रोथन्तः) हिंसक हैं ॥११॥
भावार्थ
परमात्मा का आनन्द सौम्य स्वभाववाले ही भोग सकते हैं, कुटिल चित्तवाले नहीं ॥११॥
विषय
उत्तम अनेक पदाधिकारियों के कर्तव्य।
भावार्थ
(ते) वे (सोमाः) उत्तम विद्वान्, शासकजन (प्रत्नासः) वृद्ध या ज्ञानादिवान् श्रेष्ठजन (वि-उष्टिषु) नाना प्रजाओं की इच्छाओं के बीच, नाना तेजोयुक्त प्रकाशों के बीच, (पवित्रे अक्षरन्) पवित्र कार्य वा पद पर आते हैं। वे (प्रातः) पूर्वकाल में, राज्य या जीवन के प्रथम भाग में ही, (सनुतः) छुपे (हुरः वितः) कुटिलता से धन बटोरने वाले, चोर पुरुषों को और (अप्रचेतसः) अविद्वान् मूर्खों को (अप प्रोथन्तः) दूर करते रहते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अम्बरीष ऋजिष्वा च ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ७, १० अनुष्टुप्। ३, ४, ९ निचृदनुष्टुप्॥ ६, १२ विराडनुष्टुप्। ८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अपप्रोथन्तः हुरश्चितः
पदार्थ
(ते) = वे (व्युष्टिषु) = [prosperity] ऐश्वर्यों के निमित्त (प्रत्नासः) = सदा से चले आ रहे, अर्थात् सदा ऐश्वर्यों का कारण बनते हुए (सोमाः) = सोमकण (पवित्रे) = पवित्र हृदय वाले पुरुष में (अक्षरन्) = क्षरित होते हैं। इसके शरीर में ही इन सोमों का व्यापन होता है, जो ऐश्वर्यों का साधन बनते हैं। ये सोम (प्रातः) = प्रात:काल ही (सनुतः) = अन्तर्हित, छिपकर मन में निवास करनेवाली, (हुरश्चितः) = कुटिलता से संचय की वृत्तियों को तथा (तान्) = उन (अप्रचेतसः) = नासमझी व अज्ञान की वृत्तियों को (अपप्रोथन्तः) = निराकृत करते हैं, सुदूर विनष्ट करते हैं। सोमरक्षण से कुटिलभाव व अज्ञान नष्ट होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- पवित्र हृदय वाले पुरुष में रक्षित होकर सोम ऐश्वर्यों का कारण बनते हैं । ये कौटिल्य व अज्ञान को हमारे से दूर करते हैं ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Those eternal, natural and universal vibrations of divine love and grace flow and beatify the human soul in the purity of heart core in the holy light of the dawn, subduing, expelling and destroying those crooked and clandestine forces of evil, darkness and ignorance of the human mind.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचा आनंद सौम्य स्वभावयुक्त लोकच भोगू शकतात कुटिल चित्तयुक्त नव्हेत. ॥११॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal