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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 98/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अम्बरीष ऋजिष्वा च देवता - पवमानः सोमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    स हि त्वं दे॑व॒ शश्व॑ते॒ वसु॒ मर्ता॑य दा॒शुषे॑ । इन्दो॑ सह॒स्रिणं॑ र॒यिं श॒तात्मा॑नं विवाससि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । हि । त्वम् । दे॒व॒ । शश्व॑ते । वसु॑ । मर्ता॑य । दा॒शुषे॑ । इन्दो॒ इति॑ । स॒ह॒स्रिण॑म् । र॒यिम् । श॒तऽआ॑त्मानम् । वि॒वा॒स॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स हि त्वं देव शश्वते वसु मर्ताय दाशुषे । इन्दो सहस्रिणं रयिं शतात्मानं विवाससि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । हि । त्वम् । देव । शश्वते । वसु । मर्ताय । दाशुषे । इन्दो इति । सहस्रिणम् । रयिम् । शतऽआत्मानम् । विवाससि ॥ ९.९८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 98; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देव) हे दिव्यस्वरूप ! (सः, त्वं) स भवान् (मर्ताय, दाशुषे) स्वसेवकजनाय (शश्वते) शश्वत्कर्मयोगिने (सहस्रिणं, वसु) विविधं धनं (शतात्मानं, रयिं) अनेकधा ऐश्वर्यं (इन्दो) हे परमात्मन् ! (विवाससि) ददातु भवान् ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देव) हे दिव्यस्वरूप परमात्मन् ! (सः, त्वम्) पूर्वोक्त आप (मर्ताय, दाशुषे) जो आपकी उपासना में लगा हुआ पुरुष है, (शश्वते) निरन्तर कर्मयोगी है, उसके लिये (वसु) धन (सहस्रिणम्) जो अनन्त प्रकार के ऐश्वर्य्योंवाला है, (शतात्मानम्) जिसमें अनन्त प्रकार के बल हैं, (रयिम्) ऐसे धन को (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (विवाससि) आप प्रदान करें ॥४॥

    भावार्थ

    सामर्थ्ययुक्त पुरुष को परमात्मा ऐश्वर्य्य प्रदान करता है, इसलिये ऐश्वर्य्यसम्पन्न होना परमावश्यक है ॥४॥

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (देव) दानशील ! (त्वम्) तू (सः हि) वही है जो (शश्वते) अनेक (दाशुषे) आत्मसमर्पक (मर्त्ताय) मनुष्यगण को (वसु विवाससि) ऐश्वर्य प्रदान करता है। वह तू हे (इन्दो) ऐश्वर्य और तेज वाले ! (सहस्रिणं) सहस्रों से युक्त और (शतात्मानम्) सैकड़ों आत्मा वा धनों वाला (रयिम् विवाससि) ऐश्वर्य प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अम्बरीष ऋजिष्वा च ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ७, १० अनुष्टुप्। ३, ४, ९ निचृदनुष्टुप्॥ ६, १२ विराडनुष्टुप्। ८ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'सहस्त्री शतात्मा' रयि

    पदार्थ

    हे (देव) = प्रकाशमय सोम ! (सः त्वं हि) = वह तू ही (शश्वते) = [ शश् प्लुतगतौ] स्फूर्ति के साथ क्रियाओं में लगे हुये (दाशुषे) = प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले मनुष्य के लिये (वसु) = जीवन धन को (विवाससि) = देता है। क्रिया में लगे रहना व प्रभुस्मरण ही सोमरक्षण का साधन है। सुरक्षित सोम इस रक्षक के लिये जीवन के लिये आवश्यक वसुओं को प्राप्त कराता है । हे (इन्दो) = सोम ! तू (रयिम्) = उस धन को भी [विवाससि ] प्राप्त कराता है जो (सहस्रिणम्) = सहस्रों की संख्या वाला है, अर्थात् जीवन यात्रा के लिये पर्याप्त है, तथा (शतात्मानम्) = शत वर्ष पर्यन्त हमें गति करानेवाला है (अत सातत्यगमने ) जो हमें अन्त तक क्रियाशील बनाये रखता है। वह धन जो कि हमें आलस्य का शिकार नहीं होने देता।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम प्रभुस्मरण पूर्वक क्रियाशील पुरुष को वसु सम्पन्न करता है। यह जीवनयात्रा के लिये पर्याप्त व निष्क्रिय न बना देनेवाले धन को प्राप्त कराता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, refulgent and generous spirit of peace, prosperity and beauty, you shine upon the charitable mortal of relentless discipline and bestow upon him wealth, honour and excellence of a hundredfold power and a thousandfold value.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सामर्थ्ययुक्त पुरुषाला परमात्मा ऐश्वर्य प्रदान करतो, त्यासाठी ऐश्वर्यसंपन्न होणे परमावश्यक आहे. ॥४॥

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