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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ईश्वरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
    99

    यः स॒पत्नो॒ यो ऽस॑पत्नो॒ यश्च॑ द्वि॒षन्छपा॑ति नः। दे॒वास्तं सर्वे॑ धूर्वन्तु॒ ब्रह्म॒ वर्म॒ ममान्त॑रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । स॒ऽपत्न॑: । य: । अस॑पत्न: । य: । च॒ । द्वि॒षन् । शपा॑ति । न॒: । दे॒वा: । तम् । सर्वे॑ । धू॒र्व॒न्तु॒ । ब्रह्म॑ । वर्म॑ । मम॑ । अन्त॑रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः सपत्नो यो ऽसपत्नो यश्च द्विषन्छपाति नः। देवास्तं सर्वे धूर्वन्तु ब्रह्म वर्म ममान्तरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । सऽपत्न: । य: । असपत्न: । य: । च । द्विषन् । शपाति । न: । देवा: । तम् । सर्वे । धूर्वन्तु । ब्रह्म । वर्म । मम । अन्तरम् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जय और न्याय का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो पुरुष (सपत्नः) प्रतिपक्षी और (यः) जो (असपत्नः) प्रकट प्रतिपक्षी नहीं है (च) और (यः) जो (द्विषन्) द्वेष करता हुआ (नः) हमको (शपाति) कोसे [क्रोशे]। (सर्वे) सब (देवाः) विजयी महात्मा (तम्) उसको (धूर्वन्तु) नाश करें, (ब्रह्म) परमेश्वर, (वर्म) कवचरूप (मम) मेरे (अन्तरम्) भीतर है ॥४॥

    भावार्थ

    छान-बीन करके प्रकट और अप्रकट प्रतिपक्षियों और अनिष्टचिन्तकों को (देवाः) शूरवीर विद्वान् महात्मा नाश कर डालें। वह परब्रह्म सर्वरक्षक, कवचरूप होकर, धर्मात्माओं के रोम-रोम में भर रहा है, वही आत्मबल देकर युद्धक्षेत्र में सदा उनकी रक्षा करता है ॥४॥ मन्त्र का उत्तरार्ध ऋ० ६।७५।१९। है ॥

    टिप्पणी

    ४−सपत्नः। १।९।२। प्रतियोगी, शत्रुः। असपत्नः। अशत्रुः, अप्रकटशत्रुः। द्विषन्। द्विष अप्रीतौ-शतृ। द्वेषं कुर्वन्। शपाति। शप आक्रोशे लेट्। शपेत्। देवाः। दीप्यमानाः। विजयिनः। शूराः। धूर्वन्तु। धुर्वी हिंसायाम्। हिंसन्तु। नाशयन्तु। ब्रह्म। १।१०।४। परमेश्वरः। वर्म। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति वृञ्−मनिन् वृणोति आच्छादयति शरीरमिति। तनुत्रम्, सर्वथा रक्षकम्। अन्तरम्। यदन्ते समीपे रमते। अन्त+रम−ड। अन्तरात्मा। आभ्यन्तरं मध्ये भवम् ॥

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    विषय

    ब्रह्मरूप आन्तर-कवच

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (सपत्न:) = शत्रु अथवा (यः) = जो (असपत्न:) = शत्रु नहीं भी लगता, (यः च) = और जो (द्विषन्) = हमारे साथ प्रीति न करता हुआ (नः) = हमें (शपाति) = आकृष्ट करता है [Curses], (तम्) = उसे (सर्वे देवा:) = सब देव (धूर्वन्तु) = हिंसित करें। उसे देवताओं की अनुकूलता प्राप्त न हो। सूर्य आदि देवों की प्रतिकूलता से वह अस्वस्थ होकर शान्ति-लाभ न कर पाये। वस्तुत: जो दूसरों को शाप देता है, वह शाप उसके लिए ही शाप प्रमाणित होता है। उसके अन्दर विषैले द्रव्य पैदा होकर उसे ही अस्वस्थ व अशान्त कर देते हैं। हम उसके लिए अमङ्गल की भावना को अपने हृदयों में न आने दें। उसका शाप उसे स्वयं दण्डित करनेवाला होगा। २. हम तो यह निश्चय करें कि (ब्रह्म) = यह ज्ञान अथवा प्रभु (मम) = मेरे (आन्तरं वर्म) = आन्तर कवच होंगे और मैं उन शत्रुओं और विद्वेषियों के अपशब्दरूप बाणों से विद्ध न होऊँगा। मैं क्षुब्ध न होकर सदा शान्त रहूँगा।

    भावार्थ

    हम ब्रह्म को अपना कवच बनाकर '(आकुष्टः कुशलं वदेत्) निन्दा करने पर भी निन्दक के कल्याण की कामना करे-इस सिद्धान्त को अपनाने का प्रयल करें।

    विशेष

    सूक्त के आरम्भ में लोभ व काम से विद्ध न होने की प्रार्थना है [२] और इस वेधन से बचने के लिए समाप्ति पर ब्रह्म को आन्तर-कवच बनाने का विधान है [४]। ब्रह्म को कवच बनानेवाला अथर्वा' अडिग बनता है। यह शान्त होता है [सोम] और प्रार्थना करता है कि -

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    भाषार्थ

    (यः) जो शत्रु (सपत्नः) सपत्नीवत् दुःखदायक है, (यः) जो (असपत्नः) सपत्नी से भिन्न साधन से प्राप्त हुआ है, (यः च) और जो शत्रु (द्विषन्) हमारे साथ अप्रीति करता हुआ, (नः) हमारे लिये (शपाति) शाप रूप है, (तम्) उस प्रत्येक शत्रु को (सर्वे देवा: ) सब दिव्य विचार (धूर्वन्तु) नष्ट करें, (ब्रह्म) परमेश्वर (मे) मेरा ( अन्तरम् ) आभ्यन्तरिक (वर्म) कवच है। कवचवत् रक्षक है परमेश्वर= उसकी उपासना तथा सदा ध्यान। अतः सूक्त आध्यात्मिक है।१

    टिप्पणी

    [१. राष्ट्रिय दृष्टि में सपत्नः है निजराष्ट्रोत्पन्न शत्रु, असपत्न है परराष्ट्रोत्पन्न शत्रु। ब्रह्म है ब्रह्मास्त्र अर्थात् महास्त्र। अन्तरम्= अन्तर ङीप् गुप्त, अभी तक अप्रकाशित।]

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    विषय

    शत्रुओं का विनाश।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( सपत्नः ) शत्रु है ( यः ) और जो ( असपत्नः ) शत्रु नहीं है (यः च) और जो ( द्विषन् ) हमसे द्वेष करता हुआ ( नः ) हमें ( शपाति ) बुरा भला कहता है। (तं) उसको ( सर्वे ) सब ( देवाः ) विद्वान् लोग ( धूर्वन्तु ) ताड़ना करें, (ब्रह्म) वेदमन्त्र का सदुपदेश ही ( मम ) मेरा (आन्तरम्) भीतरी, हार्दिक ( वर्म ) रक्षा साधन हो। जो द्वेष वश होकर हमें गाली देता हो, भले आदमी उसकी ताड़ना करें और हम अपने भीतर सद् विचार ही रखें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। १ इन्द्रः, २ मनुष्येषवः, ३ रुद्रः ४ सर्वे देवा देवताः। १-४ अनुष्टुप् २ पुरस्ताद् बृहती, ३ पथ्या पंक्तिः । चतुर्ऋचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    No Enemies

    Meaning

    Whoever is our rival, adversary and enemy, and any one who is not an enemy but hates and curses us, let all devas, brilliant sages and intellectuals, reprimand and shake him down. My ultimate strength and defence is within, divine knowledge and vision: Brahma jnana.

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    Subject

    Devah

    Translation

    Be he an enemy, or not an enemy, if he reviles us maliciously, may all the enlightened ones destroy him. Prayer is my inner armour, the closest mail.

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    Translation

    Let all the learned persons destroy him who comes in enmity to attack us, who is our rival, who is not our rival. Let the wisdom accompanied with power be our armour or protection.

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    Translation

    The rival and non-rival, he who in his hatred curses us, may all the learned persons injure him. My nearest, closest armor is the true teaching of the Vedas.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−सपत्नः। १।९।२। प्रतियोगी, शत्रुः। असपत्नः। अशत्रुः, अप्रकटशत्रुः। द्विषन्। द्विष अप्रीतौ-शतृ। द्वेषं कुर्वन्। शपाति। शप आक्रोशे लेट्। शपेत्। देवाः। दीप्यमानाः। विजयिनः। शूराः। धूर्वन्तु। धुर्वी हिंसायाम्। हिंसन्तु। नाशयन्तु। ब्रह्म। १।१०।४। परमेश्वरः। वर्म। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति वृञ्−मनिन् वृणोति आच्छादयति शरीरमिति। तनुत्रम्, सर्वथा रक्षकम्। अन्तरम्। यदन्ते समीपे रमते। अन्त+रम−ड। अन्तरात्मा। आभ्यन्तरं मध्ये भवम् ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (য়ঃ) যে (সপত্নঃ) প্রতিযোগী শত্রু ও (য়ঃ) যে (অসপত্রঃ) অপ্রকট শত্রু (চ) এবং (য়ঃ) যে (দ্বিয়ন্) দ্বেষ করিয়া (নঃ) আমাদের উপর (শপাতি) আক্রোশ করে (সর্বে) সব (দেবাঃ) বিজয়ী মহাপুরুষ (তম্) তাহাকে (ধূবন্তু) নাশ করুন। (ব্রহ্ম) পরমেশ্বর (বর্ম) কবচ রূপে (মম) আমার (অন্বরং) মধ্যে আছেন।।

    भावार्थ

    যে আমাদের প্রতিযোগী শত্রু যে আমাদের অপ্রকাশিত শত্রু এবং যে দ্বেষ করিয়া আমাদের উপর আক্রোশ পোষণ করে বিজয়ী মহাপুরুষেরা তাহাদিগকে বিনাশ করুক। পরমাত্মা কবচ রূপে আমাদের অভ্যন্তরে বিরাজমান আছেন।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ং সপত্নো য়োঽসপত্নো য়শ্চ ব্বিবন্ ছপাতি নঃ ৷ দেবাস্তং সর্বে ধূর্বন্তু ব্রহ্ম বর্ম মমান্তরম্।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ব্রহ্মা। দেবাঃ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (জয়ন্যায়োপদেশঃ) জয় এবং ন্যায়ের উপদেশ।

    भाषार्थ

    (যঃ) যে পুরুষ (সপত্নঃ) প্রতিপক্ষী এবং (যঃ) যে (অসপত্নঃ) প্রকট প্রতিপক্ষী নয় (চ) এবং (যঃ) যে (দ্বিষন্) বিদ্বেষী (নঃ) আমাদের (শপাতি) কুকথা বলে । (সর্বে) সব (দেবাঃ) বিজয়ী মহাত্মা (তম্) তাঁকে/তাঁদের (ধূর্বন্তু) নাশ করুক, (ব্রহ্ম) পরমেশ্বর, (বর্ম) বর্মরূপ (মম) আমার (অন্তরম্) অভ্যন্তরে/অন্তরে বর্তমান/বিদ্যমান ॥৪॥

    भावार्थ

    অনুসন্ধান করে প্রকট ও অপ্রকট প্রতিপক্ষ এবং অনিষ্টচিন্তকদের (দেবাঃ) বীর বিদ্বান্ মহাত্মা নাশ করুক। সেই পরব্রহ্ম সর্বরক্ষক, বর্মরূপ হয়ে, ধর্মাত্মাদের লোমে-লোমে পূর্ণ করছেন, তিনি আত্মবল প্রদান করে যুদ্ধক্ষেত্রে সদা তাঁদের রক্ষা করেন ॥৪॥ মন্ত্রের উত্তরার্ধ ঋ০ ৬।৭৫।১৯। আছে ॥

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    भाषार्थ

    (যঃ) যে শত্রু (সপত্নঃ) সপত্নীবৎ দুঃখদায়ক হয়, (যঃ) যে (অসপত্নঃ) সপত্নী থেকে ভিন্ন সাধনে প্রাপ্ত হয়েছে, (যঃ চ) এবং যে শত্রু (দ্বিষন্) আমাদের সাথে অপ্রীতি করে, (নঃ) আমাদের জন্য (শপাতি) অভিশাপ রূপ, (তম্) সেই প্রত্যেক শত্রুকে (সর্বে দেবাঃ) সমস্ত দিব্য বিচার (ধূর্বন্তু) বিনষ্ট করুক, (ব্রহ্ম) পরমেশ্বর (মে) আমার (অন্তরম্) আভ্যন্তরিক (বর্ম) কবচ/বর্ম। কবচবৎ রক্ষক হলেন পরমেশ্বর=উনার উপাসনা তথা সদা ধ্যান। অতএব সূক্ত আধ্যাত্মিক।১

    टिप्पणी

    [১. রাষ্ট্রীয় দৃষ্টিতে সপত্নঃ হলো নিজরাষ্ট্রোৎপন্ন শত্রু, অসপত্ন হলো পররাষ্ট্রোৎপন্ন শত্রু। ব্রহ্ম হলো ব্রহ্মাস্ত্র অর্থাৎ মহাস্ত্র। অন্তরম্= অত্যন্ত গভীর গুপ্ত, এখনো পর্যন্ত অপ্রকাশিত।]

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