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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
    84

    यो अ॒द्य सेन्यो॑ व॒धो ऽघा॒यूना॑मु॒दीर॑ते। यु॒वं तं मि॑त्रावरुणाव॒स्मद्या॑वयतं॒ परि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒द्य । सेन्य॑: । व॒ध: । अ॒घ॒ऽयूना॑म् । उ॒त्ऽईर॑ते । यु॒वम् । तम् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । अ॒स्मत् । य॒व॒य॒त॒म् । परि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अद्य सेन्यो वधो ऽघायूनामुदीरते। युवं तं मित्रावरुणावस्मद्यावयतं परि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अद्य । सेन्य: । वध: । अघऽयूनाम् । उत्ऽईरते । युवम् । तम् । मित्रावरुणौ । अस्मत् । यवयतम् । परि ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं से रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (अद्य) आज (अघायूनाम्) बुरा चीतनेवाले शत्रुओं की (सेन्यः) सेना का चलाया हुआ (यः) जो (वधः) शस्त्रप्रहार (उदीरते) उठ रहा है। (मित्रावरुणौ) हे [हमारे] प्राण और अपान (युवम्) तुम दोनों (तम्) उस [शस्त्रप्रहार] को (अस्मत्) हम लोगों से (परि) सर्वथा (यावयतम्) अलग रक्खो ॥२॥

    भावार्थ

    (मित्रावरुणौ) का अर्थ महर्षि दयानन्द सरस्वती ने [य० २।३] प्राण और अपान किया है। जो वायु शरीर के भीतर जाता है, वह प्राण और जो बाहिर निकलता है, वह अपान कहाता है। जिस समय युद्ध में शत्रुसेना आ दबावे, उस समय अपने प्राण और अपान वायु को यथायोग्य सम रखकर और सचेत होकर शरीर में बल बढ़ाकर सैन्यक लोग युद्ध करें, तो शत्रुओं पर शीघ्र जीत पावें ॥ २−श्वास के साधने से मनुष्य स्वस्थ और बलवान् होते हैं ॥ ३−प्राण और अपान के समान उपकारी और बलवान् होकर योद्धा लोग परस्पर रक्षा करें ॥

    टिप्पणी

    २−अद्य। १।१।१। वर्तमाने दिने। सेन्यः। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति सेना−यत्। सेनायां भवः। वधः। हनश्च वधः। पा० ३।३।६७। इति हन हिंसागत्योः−अप्, वधादेशः। हननसाधनः, शस्त्रप्रहारः। अघायूनाम्। अघ पापकरणे−अच्। अघम्, पापम्। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इत्यत्र। छन्दसि परेच्छायामपि वक्तव्यम्। वार्त्तिकम्। इति अघ−क्यच्। क्याच्छन्दसि। पा० ३।२।१७०। इति उ प्रत्ययः। अश्वाघस्यात्। पा० ७।४।३७। इति आत्वम्। पापेच्छूनाम्। दुराचारिणाम्। उत्−ईरते। ईर गतौ। उद्गच्छति, उत्तिष्ठति। युवम्। युवाम्। मित्रावरुणौ। १।३।२, ३। मित्रश्च वरुणश्च। देवता द्वन्दे च। पा० ६।३।२९। इति पूर्वपदस्य आनङ् आदेशः। प्राणापानौ। यावयतम्। यु मिश्रणामिश्रणयोः−ण्यन्तात् लोट्। वियोजयतम्, पृथक् कुरुतम्।

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    विषय

    मित्र और वरुण द्वारा रक्षण

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार हमारा मार्ग (अदारसृत) = एकता व मेल का होगा तो कोई भी शत्रु हमपर क्यों आक्रमण कर सकेगा? इस बात को स्पष्ट करते हुए मन्त्र में कहा है-(अघायूनाम्) = दूसरों का अघ-कष्ट व अहित चाहनेवालों का (य:) = जो भी (अद्य) = आज (सेन्यः वध:) = सेना के आक्रमण के द्वारा होनेवाला वध (उदीरते) = उठ खड़ा होता है, अर्थात् यदि कोई शत्रु सेना के द्वारा आक्रमण करता है तो (मित्रावरुणा) = मित्र और वरुण-परस्पर स्नेह व निर्द्वषता की भावनाओ! (युवम्) = तुम दोनों (तम्) = उस सेन्य को (अस्मत्) = हमसे (परियावयतम्) = सर्वथा पृथक्क र दो। वह शत्रु सेना के द्वारा हमारा वध न कर पाये। २. इस वध को रोकनेवाले मुख्य देव मित्र और वरुण ही हैं। पारस्परिक स्नेह व निर्द्वषता से ही हम शत्रु का मुकाबला कर सकते हैं। इसी बात को प्रथम मन्त्र में इस रूप में कहा था कि 'फूट का मार्ग न होने पर हमारा पराभव न हो'।

     

    भावार्थ

    देशवासियों में परस्पर मेल व द्वेष का अभाव होने पर शत्रु उन्हें आक्रान्त नहीं कर सकता।

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    भाषार्थ

    (अद्य) इस दिन [युद्ध में] (अघायूनाम् ) पापकर्म, अर्थात् परहत्यारूपी कर्म चाहनेवालों का (यः) जो (सेन्यः वधः) सेनासम्बन्धी वध कर्म (उदीरते) हमारे प्रति उद्गत होता है, उठता है, ( तम् ) उसे, (मित्रावरुणौ) हे मित्र और वरुण ! (युवम्) तुम दोनों ( अस्मत् परि) हमसे (यावयतम् ) पृथक् कर दो।

    टिप्पणी

    [मित्रावरुणौ=मित्र है हमारे साथ सन्धिप्राप्त परराष्ट्र का राजा, और वरुण है हमारे साथ सहानुभूति रखनेवाला परराष्ट्र का राजा। यथा "इन्द्रश्च सम्राट वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। यावयतम्=यु मिश्रणे अमिश्रणे च (अदादिः)। अमिश्रण अभिप्रेत है, अमिश्रण अर्थात् हमारे साथ मिश्रित न होना, हमसे पृथक् रहना।]

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    विषय

    राजा के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( मित्रावरुणौ ) मुख्य मन्त्री और राजन् ! ( अद्य ) आज, अब ( अघायूनां ) पापाचारियों, हिंसकों का ( यः ) जो कोई ( सेन्यः ) सेना सम्बन्धी ( वधः ) शस्त्रास्त्र ( उद् ईरते ) हमारे विरोध में उठ खड़ा हो ( तं ) उसको ( अस्मत् परि ) हम से ( यावयतं ) दूर करो और नष्ट करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । १ सोमः, २ मरुतः, ३ मित्रावरुणौ, ४ इन्द्रो देवता । १ त्रिष्टुप् २-४ अनुष्टुप्। चतुऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    No Enemies

    Meaning

    Today the fatal weapon of malignant sin and evil is raised and roars with all its force. O Mitra and Varuna, ruling powers of love and justice, you both ward it off from us.

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    Subject

    Mitra and Varuna

    Translation

    Slaughter of the sinfuls, (The deadly weapon), that is going to be (flies today), the powerful missile of the wicked, may you, the enemies may you, the friendly and venerable Lord, keep far away from us.

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    Translation

    O' King and premier; you ward off from us the slaughter which is now started by the army of foes.

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    Translation

    O Prime Minister and King, Ye twain, turn carefully away from us, the deadly massacre of the sinners, which is being conducted today by the valiant soldiers of the army!

    Footnote

    We should never think of murdering wicked persons, but try to reform them through advice and instruction.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−अद्य। १।१।१। वर्तमाने दिने। सेन्यः। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति सेना−यत्। सेनायां भवः। वधः। हनश्च वधः। पा० ३।३।६७। इति हन हिंसागत्योः−अप्, वधादेशः। हननसाधनः, शस्त्रप्रहारः। अघायूनाम्। अघ पापकरणे−अच्। अघम्, पापम्। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इत्यत्र। छन्दसि परेच्छायामपि वक्तव्यम्। वार्त्तिकम्। इति अघ−क्यच्। क्याच्छन्दसि। पा० ३।२।१७०। इति उ प्रत्ययः। अश्वाघस्यात्। पा० ७।४।३७। इति आत्वम्। पापेच्छूनाम्। दुराचारिणाम्। उत्−ईरते। ईर गतौ। उद्गच्छति, उत्तिष्ठति। युवम्। युवाम्। मित्रावरुणौ। १।३।२, ३। मित्रश्च वरुणश्च। देवता द्वन्दे च। पा० ६।३।२९। इति पूर्वपदस्य आनङ् आदेशः। प्राणापानौ। यावयतम्। यु मिश्रणामिश्रणयोः−ण्यन्तात् लोट्। वियोजयतम्, पृथक् कुरुतम्।

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (অদ্য) আজ (অঘায়ুনাম্) পাপচারীদের (সেন্যঃ) সৈন্য কৃর্তৃক চালিত (য়ঃ) যে (বধঃ) শস্ত্র প্রহার (উদীরতে) উঠিতেছে (মিত্রাবরুণৌ) হে প্রাণ ও অপান (য়ুবম্) তোমরা উভয়ে (তম্) তাহাকে (অস্মৎ) আমাদের নিকট হইতে (পরি) সর্বপ্রকারে (য়াবয়তম্) পৃথক রাখ।।

    भावार्थ

    আজ পাপচারী শত্রু সৈন্যের যে শস্ত্রাঘাত আমাদের উপর উঠিতেছে হে প্রাণ ও অপান! তোমরা উভয়ে আমাদের নিকট হইতে তাহা পৃথক রাখ।

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ো অদ্য সেন্যো বধোহঘায়ুনামুদীরতে। য়ুবং তং মিত্রাবরুণাবল্মদ্ য়াবয়তং পরি।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। মিত্রাবরুণৌ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (শত্রুভ্যো রক্ষণোপদেশঃ) শত্রুদের থেকে রক্ষার উপদেশ

    भाषार्थ

    (অদ্য) আজ (অঘায়ূনাম্) দুরাচারী বা অশুভচিন্তক শত্রুদের (সেন্যঃ) সেনার চালিত (যঃ) যে (বধঃ) শস্ত্রপ্রহার (উদীরতে) উদ্যত হচ্ছে, (মিত্রাবরুণৌ) হে [আমাদের] প্রাণ এবং অপান ! (যুবম্) তোমরা (তম্) সেই [শস্ত্রপ্রহারকে] (অস্মৎ) আমাদের থেকে (পরি) সর্বথা (যাবয়তম্) পৃথক রাখো ॥২॥

    भावार्थ

    (মিত্রাবরুণৌ) এর অর্থ মহর্ষি দয়ানন্দ সরস্বতী [য০ ২।৩] মন্ত্রে প্রাণ এবং অপান করেছেন। যে বায়ু শরীরের ভেতর প্রবেশ করে, সেটি প্রাণ এবং যেটি বাইরে বের হয়, সেটিকে অপান বলে। যে সময় যুদ্ধে শত্রুসেনা এসে আক্রমণ করবে, সেই সময় নিজের প্রাণ এবং অপান বায়ুকে যথাযোগ্য সমভাবে রেখে এবং সচেতন হয়ে শরীরে বল বৃদ্ধি করে সৈনিকগণ যুদ্ধ করবে। তাহলে তারা শত্রুদের উপর শীঘ্রই জয় পাবে ॥ ২−শ্বাসের সাধন দ্বারা মনুষ্য সুস্থ এবং বলবান হয় ॥ ৩−প্রাণ এবং অপানের ন্যায় উপকারী এবং বলবান হয়ে যোদ্ধাগণ পরস্পরকে রক্ষা করবে ॥

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    भाषार्थ

    (অদ্য) এই দিন [যুদ্ধে] (অঘায়ূনাম) পাপকর্ম, অর্থাৎ পরহত্যারূপী কর্মের প্রার্থনাকারীর (যঃ) যে (সেন্যঃ বধঃ) সেনাসম্বন্ধী বধ কর্ম (উদীরতে) আমাদের প্রতি উদ্গত হয়, ওঠে, (তম্) তা, (মিত্রাবরুণৌ) হে মিত্র ও বরুণ! (যুবম্) তোমরা দুজন (অস্মৎ পরি) আমাদের থেকে (যাবয়তম্) পৃথক করে দাও।

    टिप्पणी

    [মিত্রাবরুণৌ=মিত্র হল আমাদের সাথে সন্ধিপ্রাপ্ত পররাষ্ট্রের রাজা এবং বরুণ হল আমাদের সাথে সহানুভূতি স্থাপনকারী পররাষ্ট্রের রাজা। যথা "ইন্দ্রশ্চ সম্রাট্ বরুণশ্চ রাজা” (যজু০ ৮/৩৭)। যাবয়তম্ = যু মিশ্রণে অমিশ্রণে চ (অদাদিঃ)। অমিশ্রণ অভিপ্রেত হয়েছে, অমিশ্রণ অর্থাৎ আমাদের সাথে মিশ্রিত না হওয়া, আমাদের থেকে পৃথক্ থাকা।]

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