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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
    90

    इ॒तश्च॒ यद॒मुत॑श्च॒ यद्व॒धं व॑रुण यावय। वि म॒हच्छर्म॑ यच्छ॒ वरी॑यो यावया व॒धम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒त: । च॒ । यत् । अ॒मुत॑: । च॒ । यत् । व॒धम् । व॒रु॒ण॒ । य॒व॒य॒ । वि । म॒हत् । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । वरी॑य: । य॒व॒य॒ । व॒धम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इतश्च यदमुतश्च यद्वधं वरुण यावय। वि महच्छर्म यच्छ वरीयो यावया वधम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इत: । च । यत् । अमुत: । च । यत् । वधम् । वरुण । यवय । वि । महत् । शर्म । यच्छ । वरीय: । यवय । वधम् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं से रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (वरुण) हे सबमें श्रेष्ठ, परमेश्वर ! (इतः च) इस दिशा से (च) और (अमुतः) उस दिशा से (यत् यत्) प्रत्येक (वधम्) शत्रुप्रहार को (यावय) हटा दे। (महत्) [अपनी] बड़ी (शर्म) शरण को (वि) अनेक प्रकार से (यच्छ) [हमें] दान कर और (वधम्) [शत्रुओं के] प्रहार को (वरीयः) बहुत दूर (यावय) फैंक दे ॥३॥

    भावार्थ

    जो सेनापति ईश्वर पर विश्वास करके अपनी सेना को प्रयत्नपूर्वक शत्रु के प्रहार से बचाता और उन में वैरी को जीतने का उत्साह बढ़ाता है, वह शूरवीर जीत पाकर आनन्द पाता है ॥३॥ मन्त्र का पिछला आधा ऋ० १०।१५२।५। का दूसरा आधा है, वहाँ (महत्) के स्थान में [मन्योः] शब्द है ॥

    टिप्पणी

    ३−इतः। पञ्चम्यास्तसिल्। पा० ५।३।७। इति इदम्−तसिल्। अस्मात् स्थानात्। अमुतः। अदस्−तसिल् पूर्ववत्। तस्माद् देशात्। यत् यत्। इति अव्ययद्वयम्। प्रत्येकं वधं यः कश्चिद् भवेद् इत्यर्थे। वधम्। म० २। शस्त्रप्रहारम्। वरुण। १।३।३। हे वरणीय, परमेश्वर ! यावय। म० २। वियोजय। महत्। १।१०।४। विपुलं विस्तीर्णम्। शर्म। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति शॄ हिंसायाम्−मनिन्। स्वशरणम्, सुखम्। वि। विशेषेण। यच्छ। पाघ्राध्मास्थाम्ना०। पा० ७।३।७८। इति दाण्−दाने−यच्छादेशः। देहि। वरीयः। १।२।२। उरुतरम् विस्तीर्णतरम्, दूरतरम् ॥

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    विषय

    निर्द्वेषता व महान् सुख [शान्ति]

    पदार्थ

    १.हे (वरुण) = द्वेष-निवारण की देवते! तु (यत् इतः च) = जो इधर से होनेवाला (च) = और (यत्) = जो (अमुत:) = उधर से होनेवाला (वधम्) = वध है, उसे (यावय) = हमसे पृथक्क र दे। जब हममें द्वेष होता है तब यह द्वेष हमारे अन्दर विषयों को जन्म देकर हमारा वध करनेवाला होता है। यह वध यहाँ 'इत:' [इधर से] इस शब्द द्वारा सूचित हुआ है। इस द्वेष के होने पर हम शत्रुओं से आक्रान्त होने योग्य होते हैं और यह वध यहाँ 'अमुत:' [उधर से] शब्द से संकेतित हो रहा है। इन दोनों ही वधों को वरुण हमसे दूर करते हैं। द्वेष-निवारण की देवता हमें इस उभयविध वध से बचाती है। २. इस वध से बचाकर हे वरुण! (महत् शर्म) = महान् कल्याण व सुख को (वियच्छ) = विशेषरूप से प्राप्त कराइए। द्वेष के न होने पर हम आन्तरिक व बाह्य वध से बचकर सुखी जीवनवाले होते हैं। हे वरुण! निढेषता की देवते! (वधम्) = वध को (वरीयः यावय) = हमसे बहुत दूर कर दीजिए। वस्तुत: द्वेष के अभाव में वध हमारे समीप आ ही नहीं सकता।

    भावार्थ

    हम द्वेष से दूर हों। द्वेष से ऊपर उठकर आन्तर व बाह्य वध से आक्रान्त न हों।

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    भाषार्थ

    (वरुण) हे हमारे साथ सहानुभूति रखनेवाले परराष्ट्र के राजन् ! (यत् इतः च) जो इधर से (अमुतः च) ओर उधर से ( वधम्) प्राप्त होने वाले वधकर्म को (यावय) हमसे पृथक् कर। (महत् शर्म ) महासुख (वि यच्छ) विशेषरूप में हमें प्रदान कर। (वरीयः वधम् ) शत्रु द्वारा प्राप्य उरुतर वध कर्म को (यावय) हमसे पृथक् कर।

    टिप्पणी

    [सन्धिप्राप्त मित्र राजा तो सन्धि के कारण महावध कर्म को पृथक् करने में तत्पर रहेगा ही, परन्तु वरुण के सम्बन्ध में निश्चित नहीं कि समय पर वह सहयोग देता है या नहीं, इसलिये उससे विशेष याचना की गई है। इतश्च अमुतश्च द्वारा सन्देह प्रकट किया गया है कि न जाने शत्रु हमारे राष्ट्र के किस ओर से आक्रमण करे, समीप की सीमा हो या दूर की सीमा हो।]

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    विषय

    राजा के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (वरुण ) शत्रु निवारक राजन् ! ( इतः ) इधर से या समीप से ( अमुतः च ) और दूर से ( यद् वधं ) जो हिंसक हथियार आता हो तो उसकों भी ( यवय ) हम से परे कर और हमें (महत्) बड़ा भारी ( शर्म ) सुखप्रद शरणस्थान ( वि यच्छ ) विशेष रूप से प्रदान कर और ( वरीयः ) बहुत अधिक बडे भारी ( वधं ) शत्रु के आघात को ( यवय ) हम से परे कर।

    टिप्पणी

    ( द्वि० ) ‘यावयः’ ( प्र० ) ‘इतो यदमुतश्च’ ( तृ० ) वि महच्छर्मं ‘यच्छ नो वरीय’ ‘रोकवैल लैनमन’ कामितः पाठः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । १ सोमः, २ मरुतः, ३ मित्रावरुणौ, ४ इन्द्रो देवता । १ त्रिष्टुप् २-४ अनुष्टुप्। चतुऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    No Enemies

    Meaning

    From here and from there, whatever deadly weapon is raised against us, O Varuna, lord supreme of power and justice, that you ward off, and give us peace and happy settlement of great and highest order. Pray ward off the deadly weapon.

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    Subject

    Varuna

    Translation

    Murderous weapon, that comes from this side and that comes from the other side, O venerable Lord, may turn that away. May you bestow great happiness and protection on us and turn the deadly weapon far away.

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    Translation

    O' Killer of enemies; please save us from that slaughter which comes from this side or that side and give to us great protection. Turn the lethal weapon far away.

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    Translation

    Ward off from here and from there, O God, the idea of murder. Give us Thy great protection. Turn out far away from our mind the sentiment of murder!

    Footnote

    We should never entertain the idea of murdering any one.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−इतः। पञ्चम्यास्तसिल्। पा० ५।३।७। इति इदम्−तसिल्। अस्मात् स्थानात्। अमुतः। अदस्−तसिल् पूर्ववत्। तस्माद् देशात्। यत् यत्। इति अव्ययद्वयम्। प्रत्येकं वधं यः कश्चिद् भवेद् इत्यर्थे। वधम्। म० २। शस्त्रप्रहारम्। वरुण। १।३।३। हे वरणीय, परमेश्वर ! यावय। म० २। वियोजय। महत्। १।१०।४। विपुलं विस्तीर्णम्। शर्म। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति शॄ हिंसायाम्−मनिन्। स्वशरणम्, सुखम्। वि। विशेषेण। यच्छ। पाघ्राध्मास्थाम्ना०। पा० ७।३।७८। इति दाण्−दाने−यच्छादेशः। देहि। वरीयः। १।२।२। उरुतरम् विस्तीर्णतरम्, दूरतरम् ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (ইখা) সত্য সত্য (মহান্) মহান (শাসঃ) শাসন কর্তা (অমিত্র সহঃ) শত্রুজেতা (অদ্ভূতঃ) অপরাজেয় (অসি) হও (য়স্য) যাহার (সখা)মিত্র (কদাচন) কখনো বিনষ্ট হয় না (ন জীয়তে) পরাজিত হয় না।।

    भावार्थ

    হে সর্বোশক্তিমান পরমাত্মন! তুমি মহান শাসক, শত্রুজেতা ও অপরাজেয়। যে তোমার বন্ধুত্বলাভ করে সে কখনো বিনষ্ট হয় না বা পরাজিত হয় না।

    मन्त्र (बांग्ला)

    শাস ইত্থা মহা অস্যমিত্ৰসহো অদ্ভুতঃ। ন য়স্য হন্যতে সখা ন জীয়তে কদাচন।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। বরুণঃ। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (শত্রুভ্যো রক্ষণোপদেশঃ) শত্রুদের থেকে রক্ষার উপদেশ

    भाषार्थ

    (বরুণ) হে সর্বশ্রেষ্ঠ পরমেশ্বর ! (ইতঃ চ) এই দিক থেকে (চ) এবং (অমুতঃ) সেই দিক থেকে (যৎ যৎ) প্রত্যেক (বধম্) শত্রুপ্রহারকে (যাবয়) সরিয়ে দাও/দূর করো । (মহৎ) [নিজের] বৃহৎ (শর্ম) শরণকে (বি) বিবিধ প্রকারে (যচ্ছ) [আমাদের] দান করো এবং (বধম্) [শত্রুদের] প্রহারকে (বরীয়ঃ) বহু দূরে (যাবয়) নিক্ষিপ্ত করো ॥৩॥

    भावार्थ

    যে সেনাপতি ঈশ্বরের প্রতি বিশ্বাস রেখে নিজের সেনাকে যত্নপূর্বক শত্রুর প্রহার থেকে রক্ষা করেন এবং তাঁদের মধ্যে শত্রুদের জয় করার উৎসাহ বৃদ্ধি করেন, সেই বীর জয়ী হয়ে আনন্দ লাভ করে ॥৩॥ মন্ত্রের পরের অর্ধাংশ ঋ০ ১০।১৫২।৫। মন্ত্রের দ্বিতীয় অর্ধেক অংশে রয়েছে। সেখানে (মহৎ) এর স্থানে [মন্যোঃ] শব্দ রয়েছে ॥

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    भाषार्थ

    (বরুণ) হে আমাদের সাথে সহানুভূতি স্থাপনকারী পররাষ্ট্রের রাজন ! (যৎ ইতঃ চ) যা এদিক থেকে (অমুতঃ চ) এবং ওদিক থেকে (বধম্) প্রাপ্তব্য বধকর্মকে (যাবয়) আমাদের থেকে পৃথক করো। (মহৎ শর্ম) মহাসুখ (বি যচ্ছ) বিশেষরূপে আমাদের প্রদান করো। (বরীয়ঃ বধম্) শত্রু দ্বারা প্রাপ্য উরুতর/বিস্তৃত বধ কর্মকে (যাবয়) আমাদের থেকে পৃথক করো।

    टिप्पणी

    [সন্ধিপ্রাপ্ত মিত্র রাজা তো সন্ধির কারণে মহাবধ কর্মকে পৃথক করার ক্ষেত্রে তৎপর থাকবেই, কিন্তু বরুণের এবিষয়ে নিশ্চিত নয় যে, সময়মতো সহযোগিতা করে, না করে না, এইজন্য তাঁর প্রতি বিশেষ প্রার্থনা করা হয়েছে। ইতশ্চ অমুতশ্চ দ্বারা সন্দেহ প্রকট করা হয়েছে, না জানি শত্রু আমাদের রাষ্ট্রের কোন দিক থেকে আক্রমণ করে, কাছের সীমা হোক বা দূরের সীমা।]

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