अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - असिक्नी वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त
104
अ॑स्थि॒जस्य॑ कि॒लास॑स्य तनू॒जस्य॑ च॒ यत्त्व॒चि। दूष्या॑ कृ॒तस्य॒ ब्रह्म॑णा॒ लक्ष्म॑ श्वे॒तम॑नीनशम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्थि॒ऽजस्य॑ । कि॒लास॑स्य । त॒नू॒ऽजस्य॑ । च॒ । यत् । त्व॒चि । दूप्या॑ । कृ॒तस्य॑ । ब्रह्म॑णा । लक्ष्म॑ । श्वे॒तम् । अ॒नी॒न॒श॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्थिजस्य किलासस्य तनूजस्य च यत्त्वचि। दूष्या कृतस्य ब्रह्मणा लक्ष्म श्वेतमनीनशम् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्थिऽजस्य । किलासस्य । तनूऽजस्य । च । यत् । त्वचि । दूप्या । कृतस्य । ब्रह्मणा । लक्ष्म । श्वेतम् । अनीनशम् ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
महारोग के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थ
“दूष्याकृतस्य अस्थिजस्य तनूजस्य च किलासस्य यत् श्वेतं लक्ष्म त्वचि अस्ति तद् ब्रह्मणा (अहम्) अनीनशम्”−इत्यन्वयः। (दूष्या) दुष्ट क्रिया से (कृतस्य) उत्पन्न हुए, (अस्थिजस्य) हड्डी से उत्पन्न हुए (च) और (तनूजस्य) शरीर से निकले हुए (किलासस्य) रूप बिगाड़नेहारे, कुष्ठ आदि रोग का (यत्) जो (श्वेतम्) श्वेत (लक्ष्म) चिह्न (त्वचि) त्वचा पर है [उसको] (ब्रह्मणा) वेदविज्ञान से (अनीनशम्) मैंने नाश कर दिया है ॥४॥
भावार्थ
भारी रोग दो प्रकार के होते हैं, एक (अस्थिज) हड्डी से उत्पन्न होनेवाले अर्थात् भीतरी रोग जो ब्रह्मचर्य के खण्डन और कुपथ्य भोजन आदि के कारण मज्जा और वीर्य के विकार से हो जाते हैं और दूसरे (तनुज) शरीर से उत्पन्न हुए बाहिरी रोग जो मलिन वायु, मलिन घर, आदि के कारण होते हैं, इस प्रकार (ब्रह्मणा) वेदिक ज्ञान से रोगों का निदान करके उत्तम परीक्षित ओषधियों से रोगियों को स्वस्थ करे ॥४॥ इस सूक्त का आशय यह है कि जिस प्रकार सद्वैद्य रोगों का आदि कारण जानकर ओषधि करके रोगनिवृत्ति करता है, उसी प्रकार नीतिज्ञ राजा नियमपूर्वक दुष्टों का दमन करता है, सेनापति शत्रु के प्रहार से अपनी सेना की रक्षा करके जीत पाता है और ब्रह्मज्ञानी और वैज्ञानिक लोग बाह्य और आभ्यन्तर विघ्नों को हटाकर अपना कार्य सिद्ध करते हैं ॥
टिप्पणी
४−अस्थि-जस्य। असिसञ्जिभ्यां क्थिन्। उ० ३।१५४। इति असु क्षेपणे-क्थिन्। अस्यते क्षिप्यते शरीरे तत् अस्थि, शरीरस्थ सप्तधातुमध्ये धातुविशेषः, कीकसम्। ततः। पञ्चम्यामजातौ। पा० ३।२।९८। इति जनी प्रादुर्भावे−ड प्रत्ययः। अस्थ्नो जातस्य मज्जाधातोः। किलासस्य। म० १। वर्णनाशकस्य कुष्ठरोगादिकस्य। तनू-जस्य। तन्वाः शरीराज् जायते, पूर्ववत् तनू+जनी−ड। शरीरजातस्य। यत्। लक्ष्म। त्वचि। तनोरनश्च वः। उ० २।६३। इति तनु विस्तारे−चिक प्रत्ययः, अन भागस्य वकारश्च। तन्यते विस्तीर्यते सा त्वक्। यद्वा। त्वच संवरणे−क्विप्। त्वचति संवृणोति भेदः शोणितादिकं सा। शरीरावरणे, चर्मणि। दूष्या। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति दुष वैरे, दुष्टकर्मणि−इन्। दूषयति प्राणिनं हिनस्तीति दूषिः, तया दुष्टक्रियया ब्रह्मचर्यखण्डनमद्यादिकुपथ्यसेवनरूपया। कृतस्य। उत्पादितस्य। ब्रह्मणा। १।८।४। वेदविज्ञानेन। लक्ष्म। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति लक्ष दर्शने−मनिन्। चिह्नम्। श्वेतम्। श्वित शुक्लतायाम्−अच् घञ् वा। शुक्लवर्णयुक्तम्। अनीनशम्। णश अदर्शने−णिचि लुङि रूपम्। अहं नाशितवानस्मि ॥
विषय
ज्ञानरूप महौषध
पदार्थ
१. यदि कुष्ठ का प्रभाव अस्थि तक पहुँच गया है तो यह 'अस्थिज किलास' कहलाएगा। यदि अभी उसका प्रभाव गहराई तक नहीं गया तो वह 'तनूज' कहलाता है। ये दोनों आहार व्यवहार के दोषों के कारण ही उत्पन्न होते हैं, अत: कहते हैं कि-(अस्थिजस्य किल्लासस्य) = हड्डी तक पहुंचे हुए कुष्ठ का (च) = और (तनूजस्य) = शरीर में उपरले पृष्ठ पर उत्पन्न हुए-हुए कुष्ठ का (यत्) = जो (त्वचि) = त्वचा में (श्वेतं लक्ष्म) = श्वेत धव्या है उसे तथा (दूष्या कृतस्य) = दूषित आहार विहार के द्वारा उत्पादित किलास को (ब्रह्मणा) = ज्ञान के द्वारा (अनीनशम्) = मैं नष्ट करता हूँ। २. ज्ञान के अभाव में ही आहार-व्यवहार के दोष उत्पन्न होते हैं और उन दोषों से यह कुष्ठ-विकार उत्पन्न होता है। ज्ञान के द्वारा आहार-व्यवहार की शुद्धि होने पर इन विकारों की आंशका जाती रहती है।
भावार्थ
ज्ञान के द्वारा आहार-व्यवहार को शुद्ध करके हम कुष्ठ आदि विकारों को उत्पन्न न होने दें।
विशेष
इस सूक्त का ही विषय अगले सूक्त में भी प्रतिपादित हो रहा है। इस सूक्त में "ब्रह्मा' आसुरी वनस्पति के प्रयोग से कुष्ठ को दूर करते हैं -
भाषार्थ
(अस्थिजस्य) अस्थि में उत्पन्न हुए, (तनूजस्य) तनू में उत्पन्न हुए, (च) और (त्वचि) त्वचा में हुए, ( दुष्या) दूषित कृति द्वारा ( कृतस्य) किये गये, (श्वेतम् ) श्वेत-कुष्ठ रूपी (लक्ष्म) चिह्न को, (ब्रह्मणा ) वेदोक्त विधि द्वारा (अनीनशम् ) मैंने नष्ट कर दिया है।
टिप्पणी
[दूषित कृति= दूषित अर्थात् बुरा कर्म। अनीनशम्= नश अदर्शने, लुङ् लकार, च्लि को चङ्।] [विशेष वक्तव्य-- कौशिक सूत्रानुसार सूक्त का देवता असिक्नी है। अतः सूक्त का देवता एक ही है। अतः मन्त्र (१) में राम और कृष्णे पद असिक्नी के ही विशेषण हैं । सायण ने इन्हें पृथक्-पृथक् औषधियाँ माना है। "रजनी" पृथक ओषधि प्रतीत होती है, जिसे कि कौशिक-विनियोग में वनस्पति पद द्वारा दर्शाया है। मन्त्र (३) में भी असिक्नी को ही ओषधि कहा है, रामे कृष्णे को स्वतन्त्र रूप में पृथक्-पृथक् वर्णित नहीं किया।]
विषय
कुष्ठ और पलित चिकित्सा
भावार्थ
( अस्थिजस्य ) हड्डियों में उत्पन्न होने वाले (च) और ( तनूजस्त्र ) त्वचा और अस्थि के बीच मांस में उत्पन्न होने वाले (किलासस्य) किलास नामक कुष्ठ को और ( यत् ) जो कुष्ठ रोग ( त्वचि ) त्वचा में उत्पन्न होगया है और (दूष्या) शरीर के रक्त आदि में विकार उत्पन्न करने वाले दूषी विष द्वारा ( कृतस्य ) उत्पन्न हुए कुष्ठ रोग को और ( लक्ष्म ) शरीर की शोभा के नाशक कलंकरूप ( श्वेतं ) श्वेतकुष्ठ को भी मैं उत्तम वैद्य (ब्रह्मणा) ‘ब्रह्म’ नामक ओषधि से ( अनीनशम् ) दूर करता हूं।
टिप्पणी
इस सूक्त में नक्त, रामा, कृष्णा, असिक्नी और ब्रह्म ये नाम ओषधिवाचक हैं। धन्वन्तरि के अनुसार इनका विवेक इस प्रकार है( १ ) ‘नक्त’ नाम से कलिकारी, गुग्गुलु, उलूक, प्रसहा, करंज, फंजी या भार्ङ्गी इन ओषधियों का ग्रहण होता है। इनके गुण इस प्रकार हैं—( १ ) कलिकारी ( नक्तेन्दुपुष्पिका ) कफ, और वात का नाशक, सोज, शल्य व्रण का नाशक। (२) गुग्गुलु (=नक्तं च) व्रण, प्रमेह और शोफ का नाशक । कण गुग्गुलु और भूमि इसके दो भेद हैं । ( ३ ) उल्लू पक्षी के मांसादि विसर्प कुष्ठ के नाशक हैं । (४) प्रसह वर्ग में काक, गीध, उल्लू चील आदि पक्षिगण । (५) करंज (नक्तमाल) या घृतकरंज व्रण, प्लीहा और कृमिनाशक और सब त्वचा के दोषों को दूर करता है। उदकीर्य और अङ्गारवल्लिका इसीके भेद हैं जिनमें अङ्गारवल्लिका भी कण्डू, विचर्चिका, कुष्ठ, त्वग्दोष, व्रण (नासूर) आदि का नाशक है। (६) फंजी या भार्ङ्गी या ब्रह्मसुवर्चला–शोफ, व्रण, कृमि का नाश करती है। इसका दूसरा नाम ब्राह्मणयष्टि भी है । (२) रामा नाम से आरामशीतला, गृहकन्या, रोचना, लक्ष्मणा, इनका ग्रहण होता है। जिनमें आरामशीतला दाहदोष, विस्फोट और व्रण का नाशक है और गृहकन्या या घृतकुमारी पित्त, कास श्वास और कुष्ठ का नाशक है। शेष भी कटु तिक्त होने से रक्तशोधक हैं। (३) कृष्णा शब्द से काश्मर्य, कृष्णा तुलसी, कृष्णा मूली, कृष्णा नीलपुनर्भवा द्राक्षा और पिप्पली इन ओषधियों का ग्रहण है। जिनमें से काश्मर्य ( १ । १२ ) सूक्त में लिखा जा चुका है। इनमें से कृष्णा तुलसी जन्तु, भूत, कृमि आदि का नाशक है । नीलपुर्नवा हृद्रोग प्रदर, पाण्डु, सोज, श्वास वात आम आदि का नाशक है। पुनर्नवा और क्रूर ये दो भी इसी जाति के हैं । कृष्णा काला जीरा कफशोफनाशक है। पिप्पली रक्त शोधक हैं, ये सभी कटु और तिक्त उष्ण हैं । ( ४ ) ‘ असिक्नी’ नामक औषध वर्तमान में कोई प्रसिद्ध नहीं है तथापि असिक्नी यह ‘असि-कनी’ असिशिम्बी प्रतीत होती है जो व्रण दोष नाशक है। (५) ‘रजनी’ शब्द से हरिद्रा, दारुहरिद्रा, उदकीर्य (करंजभेद) रोचना, शिंशपा, वनवीजपुर, यूथिका, मूर्वा, ये सभी ओषधियां ‘पीता’ कहाती हैं और इनका गुण त्वचादोष, कुष्ठ, कण्डू आदि को नाश करना है। ( ६ ) ‘ब्रह्मन्’—भार्ङ्गी, फांजी नामक ओषधि ही ब्रह्मसुवर्चला या ब्राह्मणयष्टि नाम से कही गई है वही यहां ‘ब्रह्म’ शब्द से लेनी उचित हैं। इसका वर्णन पूर्व कर चुके हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। श्वेतलक्ष्मविनाशनाय ओषधिस्तुतिः। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
White Leprosy
Meaning
Whatever of leprosy in the skin is born of the bone, in whatever is born of other parts of the body caused by physical imbalance of the system, I cure and eliminate by Brahma according to scientific formula. Note: Pandit Jayadev in his commentary on this sukta explains in detail the specific herbs covered by the general terms Nakta, Rama, Krishna, Asikni, Rajani and Brahma according to Dhanvantari, famous physician of India and supposed founder of the science of Ayurveda. Correspondingly, Charaka is known to be the surgeon.
Translation
With my excellent knowledge and experience (as a physician), I have chased away the spots of bone born leprosy and those of the body-born, which are caused on the skin by infections.
Translation
I, the physician dispel with the Brahman herb the leprosy of flash and the white spot on the skin, caused due to infection.
Translation
I with my knowledge have chased away the pallid sign of leprosy, caused by infection, on the skin sprung from the body or from the bones.
Footnote
Two varieties of the disease appear to be meant (1) communicated by contact, breathing the same air, eating with or wearing the clothes of a leper, and (2) caused by the sufferer’s own sins, irregularities in eating and fasting, indigestible food, mental agitation,. excessive fatigue, and lack of Brahmcharya. Brahm is the name of a medicine as well, by the use of which the physician cures the patient. Dhanvantri, the famous authority on medicines has described in detail these medicines named Mukta, Rama Krishna, Asikni, and Brahma.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−अस्थि-जस्य। असिसञ्जिभ्यां क्थिन्। उ० ३।१५४। इति असु क्षेपणे-क्थिन्। अस्यते क्षिप्यते शरीरे तत् अस्थि, शरीरस्थ सप्तधातुमध्ये धातुविशेषः, कीकसम्। ततः। पञ्चम्यामजातौ। पा० ३।२।९८। इति जनी प्रादुर्भावे−ड प्रत्ययः। अस्थ्नो जातस्य मज्जाधातोः। किलासस्य। म० १। वर्णनाशकस्य कुष्ठरोगादिकस्य। तनू-जस्य। तन्वाः शरीराज् जायते, पूर्ववत् तनू+जनी−ड। शरीरजातस्य। यत्। लक्ष्म। त्वचि। तनोरनश्च वः। उ० २।६३। इति तनु विस्तारे−चिक प्रत्ययः, अन भागस्य वकारश्च। तन्यते विस्तीर्यते सा त्वक्। यद्वा। त्वच संवरणे−क्विप्। त्वचति संवृणोति भेदः शोणितादिकं सा। शरीरावरणे, चर्मणि। दूष्या। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति दुष वैरे, दुष्टकर्मणि−इन्। दूषयति प्राणिनं हिनस्तीति दूषिः, तया दुष्टक्रियया ब्रह्मचर्यखण्डनमद्यादिकुपथ्यसेवनरूपया। कृतस्य। उत्पादितस्य। ब्रह्मणा। १।८।४। वेदविज्ञानेन। लक्ष्म। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति लक्ष दर्शने−मनिन्। चिह्नम्। श्वेतम्। श्वित शुक्लतायाम्−अच् घञ् वा। शुक्लवर्णयुक्तम्। अनीनशम्। णश अदर्शने−णिचि लुङि रूपम्। अहं नाशितवानस्मि ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(দূষ্যা) দুষ্ট কার্য দ্বারা (কৃতস্য) উৎপন্ন (অস্থিজস্য) অস্থি হইতে উৎপন্ন (কিলাসস্য) সৌন্দর্য বিনাশক কুষ্ঠাদি রোগের (য়) যে (শ্বেতং) শ্বেত চিহ্ন (ত্বচি) চর্মের উপরে থাকে তাহাকে (ব্রহ্মণা) বেদ বিজ্ঞান দ্বারা (অনীনশম্) আমি নাশ করিয়াছি।।
भावार्थ
দুষ্ট কার্য দ্বারা উৎপন্ন, অস্থি হইতে উৎপন্ন এবং শরীর হইতে উৎপন্ন সৌন্দর্য বিনাশক কুন্ঠাদি রোগের যে শ্বেত চিহ্ন চর্মের উপর বিদ্যমান থাকে আমরা বেদ বিজ্ঞান দ্বারা তাহা নাশ করিয়াছি।।
উৎকট ব্যাধি দুই প্রকারের প্রথমথঃ ব্রহ্মচর্য নাশ ও কুপথ্য ভোজন হেতু মজা ও বীর্য বিকার প্রাপ্ত হয় এগুলি অস্থিজ ব্যাধি। দ্বিতীয়তঃ মলিন বায়ু, মলিন, গৃহ, মলিন শর্যা বস্ত্রাদি হেতু শরীরের উপর কতকগুলি ব্যাধি প্রকাশ পায় সেগুলি তনুজ ব্যাধি। বেদ জ্ঞান লাভ করিয়া রোগনাশক ওষধি প্রয়োগ করিলে এই সব ব্যাধি দূরীভূত হয়।।
मन्त्र (बांग्ला)
অস্থিজস্য কিলাসস্য তনূজস্য চ য়ৎ ত্বচি৷ দূষ্যা কৃতস্য ব্ৰহ্মণা লক্ষ্ম শ্বেতমনীনশম্।।
ऋषि | देवता | छन्द
অর্থবা। বনস্পতয়ঃ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(মহারোগনাশোপদেশঃ) মহারোগ নাশের জন্য উপদেশ
भाषार्थ
(দূষ্যাকৃতস্য অস্থিজস্য তনূজস্য চ কিলাসস্য যৎ শ্বেতং লক্ষ্ম ত্বচি অস্তি তদ্ ব্রহ্মণা অহম্ অনীনশম্−ইত্যন্বয়ঃ) (দূষ্যা) দুষ্ট ক্রিয়া দ্বারা (কৃতস্য) উৎপন্ন, (অস্থিজস্য) অস্থি থেকে উৎপন্ন (চ) এবং (তনূজস্য) শরীর থেকে নির্গত (কিলাসস্য) রূপ বিনষ্টকারী কুষ্ঠ আদি রোগের (যৎ) যে (শ্বেতম্) শ্বেত (লক্ষ্ম) চিহ্ন (ত্বচি) ত্বকের উপর রয়েছে [তা] (ব্রহ্মণা) বেদবিজ্ঞান দ্বারা (অনীনশম্) আমি নাশ করে দিয়েছি॥৪॥
भावार्थ
কঠিন রোগ দুই প্রকারের হয়ে থাকে– এক (অস্থিজ) অস্থি থেকে উৎপন্ন অর্থাৎ অভ্যন্তরীণ রোগ, যা ব্রহ্মচর্যের খণ্ডন এবং কুপথ্য ভোজন আদির কারণে মজ্জা এবং বীর্যের বিকার থেকে হয় এবং দুই (তনুজ) শরীর থেকে উৎপন্ন বাহ্যিক রোগ, যা মলিন বায়ু, মলিন ঘর আদির কারণে হয়। (ব্রহ্মণা) বৈদিক জ্ঞান দ্বারা এরূপ রোগসমূহের নিদান করে উত্তম পরীক্ষিত ঔষধি দ্বারা রোগীদের সুস্থ করে তোলা যায় ॥৪॥ এই সূক্তের মূলভাব হল, যেভাবে সদ্বৈদ্য রোগসমূহের আদি কারণ জেনে ঔষধি তৈরি করে রোগনিবৃত্তি করেন, তেমনিভাবে নীতিজ্ঞ রাজা নিয়মপূর্বক দুষ্টদের দমন করেন/করুক, সেনাপতি শত্রুর প্রহার থেকে নিজের সেনার রক্ষা করে বিজয় লাভ করে/করুক এবং ব্রহ্মজ্ঞানী ও বৈজ্ঞানিকগণ বাহ্য এবং আভ্যন্তর বিঘ্নসমূহ দূর করে নিজের কার্য সিদ্ধ করে/করুক ॥
भाषार्थ
(অস্থিজস্য) অস্থিতে উৎপন্ন, (তনূজস্য) দেহে উৎপন্ন (চ) এবং (ত্বচা) ত্বকে উৎপন্ন, (দূষ্যা) দূষিত কৃতি দ্বারা (কৃতস্য) কৃত, (শ্বেতম্) শ্বেত-কুষ্ঠ রূপী (লক্ষ্ম) চিহ্নকে, (ব্রহ্মণা) বেদোক্ত বিধি দ্বারা (অনীনশম্) আমি নষ্ট করে দিয়েছি।
टिप्पणी
[দূষিত কৃতি = দূষিত অর্থাৎ কুকর্ম। অনীনশম্ = নশ অদর্শনে, লুঙ্ লকার, চ্লি কে চঙ্।] [বিশেষ বক্তব্য ---কৌশিক সূত্রানুসারে সূক্তের দেবতা হলো অসিক্নী। অতএব সূক্তের দেবতাও এক। তাই মন্ত্র (১) এ রামে ও কৃষ্ণ পদ অসিক্নী এর বিশেষণ। সায়ণ এগুলোকে পৃথক-পৃথক ঔষধি বলেছেন। "রজনী" পৃথক ঔষধি প্রতীত হয়, যা কৌশিক-বিনিয়োগে বনস্পতি পদ দ্বারা বোঝানো হয়েছে। মন্ত্র (৩) এও অসিক্নীকে ঔষধি বলা হয়েছে, রামে, কৃষ্ণে-কে স্বতন্ত্র রূপে পৃথক্-পৃথক্ বর্ণিত করা হয়নি।]
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