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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
    ऋषिः - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त
    79

    प्रति॑ दह यातु॒धाना॒न्प्रति॑ देव किमी॒दिनः॑। प्र॒तीचीः॑ कृष्णवर्तने॒ सं द॑ह यातुधा॒न्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । द॒ह॒ । या॒तु॒ऽधाना॑न् । प्रति॑ । दे॒व॒ । कि॒मी॒दिन॑: । प्र॒तीची॑: । कृ॒ष्ण॒ऽव॒र्त॒ने॒ । सम् । द॒ह॒ । या॒तु॒ऽधा॒न्य: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रति दह यातुधानान्प्रति देव किमीदिनः। प्रतीचीः कृष्णवर्तने सं दह यातुधान्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति । दह । यातुऽधानान् । प्रति । देव । किमीदिन: । प्रतीची: । कृष्णऽवर्तने । सम् । दह । यातुऽधान्य: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (4)

    विषय

    युद्ध का प्रकरण।

    पदार्थ

    (देव) हे विजयी सेनापति (यातुधानान्) दुःखदायी (किमीदिनः) क्या-क्या करनेहारे छली सूचकों को (प्रति) एक-एक करके (प्रतिदह) जला दे। (कृष्णवर्तने) हे धूँआ-धार मार्गवाले अग्निरूप सेनापति (प्रतीचीः) सन्मुख धावा करती हुयी (यातुधान्यः=०-नीः) दुःखदायिनी शत्रुसेनाओं को (सम् दह) चारों ओर से भस्म कर दे ॥२॥

    भावार्थ

    युद्धकुशल सेनापति अपने घातस्थानों से तोप तुपक आदि द्वारा अग्नि के समान धूँआ-धार करता हुआ शत्रुओं के मुखियाओं और सेनादलों को व्याकुल करके भस्म कर देवे ॥२॥ सायणभाष्य में (कृष्णवर्तने) के स्थान में [कृष्णवर्त्मने] पद है और उसका अर्थ [हे कृष्णवर्त्मन्] है ॥

    टिप्पणी

    २−प्रति। प्रतिमुखम्। प्रत्येकम्। दह। भस्मीकुरु, यातु-धानान्। म० १। पीडादातॄन्, राक्षसान्। देव। म० १। हे विजयशील ! किमीदिनः। म० १। पिशुनान्। प्रतीचीः। ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।३।५९। इति। प्रति+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्। नलोपः ङीप्। यथा विषूचीः शब्दः, १।१९।१। प्रतिकूलं गच्छन्तीः। कृष्ण-वर्तने। वृतेश्च। उ० २।१०६। इति वृतु वर्तने−अनि। कृष्णा कृष्णावर्णा शतघ्नी भुशुण्ड्यादिप्रसारितधूमेन वर्तनिः वर्तिः पन्थाः यस्य सः, अग्निर्वा। हे कृष्णमार्ग, अग्निरूप सेनापते। सम्। सम्यक्, सर्वथा। धातु-धान्यः। पुंयोगादाख्यायाम्। पा० ४।१।४८। इति यातुधान−ङीप्, शसः स्थाने छन्दसि जस्। यणि कृते स्वरितः। यातुधानीः पीडादायिनीः शत्रुसेनाः ॥

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    विषय

    देव व कृष्णवर्तनि

    पदार्थ

    १. हे (देव) = दीतिमय ज्ञानवाले अग्ने! आप अपने अहिंसा व माधुर्य से परिपूर्ण उपदेशों से (यातुधानान्) = पीड़ा का आधान करनेवालों को (प्रतिदह) = भस्मीभूत कर दीजिए। (किमीदिन:) = क्या खाँऊ और क्या खाँऊ' सदा इसप्रकार की वृत्तिवालों को भी प्रति [दह]-भस्म कर दीजिाए। आपके उपदेशों से उनका यातुधानपना और किमीदिपना समाप्त हो जाए। 'यातुधान' यातुहान पीड़ा को दूर करनेवाले बन जाएँ। 'किमीदी' किन्द बन जाएँ 'क्या और क्या दूँ' यही सोचनेवाले हों। २. हे (कृष्णवर्तने) = आकर्षक मार्ग व बर्ताववाले! आप (प्रतीची:) = [प्रति अञ्च] धर्म से विमुख होकर जानेवाली (यातुधान्य:) = पीड़ा का आधान करनेवाली बहिनों को भी (सन्दह) = अपने उपदेशों व बर्तावों से भस्म कर दीजिए। वे पीड़ा देने के मार्ग को छोड़कर फिर से धर्म-मार्ग का अनुवर्तन करनेवाली हों। ३. प्रचारक को स्वयं तो देव होना ही चाहिए. स्वयं देव न होते हुए वह औरों को देव नहीं बना सकता। यह कृष्णवर्तनि हो। इसके वर्तने का मार्ग आकर्षक हो। यह दूसरों को अपनी ओर आकृष्ट करनेवाला हो। इसके प्रचार की विधि प्रभावक हो।

    भावार्थ

    प्रचारक को 'देव, कृष्णवर्तनि' बनकर यातुधानों को 'यातुहान' बनाना है और किमीदियों को 'किन्द।

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    भाषार्थ

    हे प्रधानमन्त्रिन् ! (यातुधानान्) यातनाओं के निधिभूत या यातनाओं के परिपोषक सैनिकों को (प्रतिदह) प्रत्येक को दग्ध कर, (किमीदिनः ) "किम् इदानीम्" इस प्रकार प्रश्नपूर्वक भेद लेनेवालों में से (प्रतिदह) प्रत्येक सैनिक को दग्ध कर। (कृषणवर्तने) कृष्णवर्ताव करनेवाले सेनाधिपति के प्रति कृष्णवर्ताव करनेवाले हे प्रधानमन्त्रिन् ! (प्रतीची:) प्रतिकूल चालों वाली (यातुधान्यः) यातनाओं के निधिभूत सेनाओं को (सं दह) सम्यक् दग्ध कर।

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    विषय

    घृणाकारी दुष्टों का नाश।

    भावार्थ

    ( देवा ) हे देव ! मुख्यनेता ! ( किमीदिनः यातुधानान् ) उन, छिद्रान्वेषी यातना पहुंचाने वाले परराष्ट्रीय शत्रुओं को ( प्रति दह ) यदि वे मुकाबले में आवें तो अग्नि के अस्त्रों द्वारा दग्ध कर। हे ( कृष्णवर्तने ) शत्रु के कर्षण अर्थात् विनाश कर देने के बर्ताव वाले ? यातुधान्यः ) यातना पहुंचाने वाली शत्रु की सेनाएं ( प्रतीचीः ) यदि तेरे प्रति आक्रमण करें तो ( सं दह ) उन सबका तू आग्नेय अस्त्रों द्वारा संहार कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः । १ अग्निर्देवता २, ३, ४ यातुधान्यो देवताः । १, २ अनुष्टुभौ, ३ विराट् पथ्याबृहती, ४ पथ्यापंक्तिः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destroying the Wicked

    Meaning

    O yajnic fire, light of divine sun, burn up constantly and instantly the infectious afflictions, cancerous germs and life threatening viruses. O fire of flames reaching into the darkest comers, bum up all the evil destroyers hiding around in the unknown places too.

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    Translation

    O divine one, may you subdue the deceits, germs or infections and burn them up. O Lord of black trail, may you burn out the malicious ones thoroughly.

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    Translation

    This Yajna fire has a great power. Let it burn the infections, germs and painful diseases. Let this fire which has black smokes burn the female germs of infection which attack us.

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    Translation

    Consume the plunderers, O Commander, meet the greedy slanderers with thy flame. Burn up the piratical adventurers as they face thee, thou whose path is black.

    Footnote

    ‘Piratical adventurers’ refers to the army of the enemy ‘whose path is black’ means the path of the commander is black, as it is filled with the smoke emitted by the warlike instruments discharged by him.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−प्रति। प्रतिमुखम्। प्रत्येकम्। दह। भस्मीकुरु, यातु-धानान्। म० १। पीडादातॄन्, राक्षसान्। देव। म० १। हे विजयशील ! किमीदिनः। म० १। पिशुनान्। प्रतीचीः। ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।३।५९। इति। प्रति+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्। नलोपः ङीप्। यथा विषूचीः शब्दः, १।१९।१। प्रतिकूलं गच्छन्तीः। कृष्ण-वर्तने। वृतेश्च। उ० २।१०६। इति वृतु वर्तने−अनि। कृष्णा कृष्णावर्णा शतघ्नी भुशुण्ड्यादिप्रसारितधूमेन वर्तनिः वर्तिः पन्थाः यस्य सः, अग्निर्वा। हे कृष्णमार्ग, अग्निरूप सेनापते। सम्। सम्यक्, सर्वथा। धातु-धान्यः। पुंयोगादाख्यायाम्। पा० ४।१।४८। इति यातुधान−ङीप्, शसः स्थाने छन्दसि जस्। यणि कृते स्वरितः। यातुधानीः पीडादायिनीः शत्रुसेनाः ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (দেব) হে বিজয়ী সেনাপতি! (য়াতুধানান্) পরপীড়ক রাক্ষস ও (কিমীদিনঃ) পরনিন্দুককে (প্রতি) এক এক করিয়া (প্রতি দহ) দগ্ধ কর। (কৃষ্ণবর্তনে) ধূম্রান্ধকার পথের যাত্রী সেনাপতি (প্রতীচীঃ) সম্মুখে অগ্রসর হইয়া (য়াতুধান্যঃ) শত্রুসৈন্যদিগকে (সমৃদহ) চারিদিক হইতে দগ্ধ কর।।

    भावार्थ

    হে বিজয়ী সেনাপতি! পরপীড়ক রাক্ষস ও পরনিন্দুকদিগকে এক এক করিয়া দগ্ধ কর। ধূম্রান্ধকার পথের যাত্রী সেনাপতি সম্মুখে অগ্রসর হইয়া শত্রু সৈন্যদিগকে চারিদিক হইতে দগ্ধ কর।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    প্রতি দহ য়াতুধানান্ প্ৰতি দেব কিমীদিনঃ ৷ প্রহীচীঃ কৃষ্ণবর্তনে সংদহ য়াতু ধাতুধান্যঃ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    চাতনঃ। (পূর্বার্ধস্য) অগ্নিঃ, (উত্তরার্ধাৎ) যাতুধান্যঃ। অনুষ্টুপ

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    मन्त्र विषय

    (যুদ্ধপ্রকরণম্) যুদ্ধের প্রকরণ

    भाषार्थ

    (দেব) হে বিজয়ী সেনাপতি ! (যাতুধানান্) দুঃখদায়ী (কিমীদিনঃ) কী কী শব্দকারী ছল সূচকদেরকে (প্রতি) এক-এক করে (প্রতিদহ) দহন করো/জ্বালিয়ে দাও। (কৃষ্ণবর্তনে) হে ধোঁয়াময় মার্গসম্পন্ন অগ্নিরূপ সেনাপতি ! (প্রতীচীঃ) সন্মুখে ধাবমান (যাতুধান্যঃ=০-নীঃ) দুঃখদায়িনী শত্রু সেনাদের (সম্ দহ) চারিদিক থেকে ভস্ম করে দাও/ভস্মীভূত করো ॥২॥

    भावार्थ

    যুদ্ধকুশল সেনাপতি নিজের ঘাতস্থান থেকে তোপ তুপক আদি দ্বারা অগ্নির ন্যায় ধোঁয়াময় করতে থেকে শত্রুদের প্রধান এবং সেনাদলকে ব্যাকুল করে ভস্ম করুক ॥২॥ সায়ণভাষ্যে (কৃষ্ণবর্তনে) এর স্থানে [কৃষ্ণবর্তমনে] পদ আছে এবং তার অর্থ [হে কৃষ্ণবর্তমন্] রয়েছে॥

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    भाषार्थ

    (দেব) হে প্রধানমন্ত্রী! (যাতুধানান্) যাতনার নিধিভূত বা যাতনার পরিপোষক সৈনিকদের (প্রতিদহ) প্রত্যেককে দগ্ধ করো, (কিমীদিনঃ) "কিম্ ইদানীম্" এই প্রকার প্রশ্নপূর্বক ভেদ গ্ৰহণকারীদের মধ্যে (প্রতিদহ) প্রত্যেক সৈনিককে দগ্ধ করো। (কৃষ্ণবর্তনে) কৃষ্ণবর্তাব/কুআচরণকারী সেনাধিপতির প্রতি কৃষ্ণবর্তাব/কুআচরণকারী হে প্রধানমন্ত্রী ! (প্রতীচীঃ) প্রতিকূল (যাতুধান্যঃ) যাতনার নিধিভূত সেনাদের (সং দহ) সম্যক দগ্ধ করো।

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