अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
81
येषां॑ प्रया॒जा उ॒त वा॑नुया॒जा हु॒तभा॑गा अहु॒ताद॑श्च दे॒वाः। येषां॑ वः॒ पञ्च॑ प्र॒दिशो॒ विभ॑क्ता॒स्तान्वो॑ अ॒स्मै स॑त्र॒सदः॑ कृणोमि ॥
स्वर सहित पद पाठयेषा॑म् । प्र॒ऽया॒जा: । उ॒त । वा॒ । अ॒नु॒ऽया॒जा: । हु॒तऽभा॑गा: । अ॒हु॒त॒ऽअद॑: । च॒ । देवा: । येषा॑म् । व॒: । पञ्च॑ । प्र॒ऽदिश॑: । विऽभ॑क्ता: । तान् । व॒: । अ॒स्मै । स॒त्र॒ऽसद॑: । कृ॒णो॒मि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
येषां प्रयाजा उत वानुयाजा हुतभागा अहुतादश्च देवाः। येषां वः पञ्च प्रदिशो विभक्तास्तान्वो अस्मै सत्रसदः कृणोमि ॥
स्वर रहित पद पाठयेषाम् । प्रऽयाजा: । उत । वा । अनुऽयाजा: । हुतऽभागा: । अहुतऽअद: । च । देवा: । येषाम् । व: । पञ्च । प्रऽदिश: । विऽभक्ता: । तान् । व: । अस्मै । सत्रऽसद: । कृणोमि ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजतिलक-यज्ञ के उपदेश।
पदार्थ
(येषाम्) जिन [तुम्हारे] (प्रयाजाः) उत्तम पूजनीय कर्म (उत वा) और (अनुयाजाः) अनुकूल पूजनीय कर्म और (हुतभागाः) देने-लेने के विभाग (च) और (अहुतादः) यज्ञ वा दान से बचे पदार्थों के आहार (देवाः) विजय करनेहारे [वा प्रकाशवाले] हैं और (येषाम् वः) जिन तुम्हारे (पञ्च) विस्तीर्ण [वा पाँच] (प्रदिशः) उत्तम दानक्रियाएँ [वा प्रधान दिशाएँ] (विभक्ताः) अनेक प्रकार बटी हुयी हैं (तान् वः) उन तुमको (अस्मै) इस [पुरुष] के हित के लिये [अपने लिये] (सत्रसदः) सभासद् (कृणोमि) बनाता हूँ ॥४॥
भावार्थ
जो धर्मात्मा विद्वान् पुरुष स्वार्थ छोड़ कर दान करते हों और सब संसार के हित में दत्तचित्त हों, राजा उन महात्माओं को चुन कर अपनी राजसभा का सभासद् बनावे ॥४॥ यज्ञशेष के भोजन के विषय में भगवान् श्रीकृष्ण महाराज ने कहा है। भगवद्गीता अ० ४ श्लोक ३१ ॥ यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥१॥ यह [दान वा देवपूजा] से बचे अमृत का भोजन करनेवाले पुरुष सनातन ब्रह्म को पाते हैं। यज्ञ न करनेवाले का यह लोक नहीं है, हे कौरवों में श्रेष्ठ ! फिर उसका परलोक कहाँ से हो ॥
टिप्पणी
४−प्र-याजाः। अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्। पा० ३।३।१९। इति प्र+यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु−घञ्। प्रयाजानुयाजौ यज्ञाङ्गे। पा० ७।३।६२। इति कुत्वप्रतिषेधो निपात्यते। प्रकृष्टपूजनीयकर्माणि। वा। समुच्चये, पाद−पूरणे वा। अनु-याजाः। अनु+यज−घञ् पूर्ववत्−अनुकूलानि पूजनीयकर्माणि। हुतभागाः। हु दानादानादनेषु−क्त। भज भागसेवयोः−भावे घञ्। हुतस्य, दत्तस्य, दानस्य गृहीतस्य वा विभागाः। अहुत-अदः। संपदादिभ्यः क्विप्। वार्तिकम्, पा० ३।३।९४। अहुत+अद भक्षणे−भावे क्विप्। अदानस्य दानशेषस्य भोजनानि। धान्यधनादीनि। देवाः। १।७।१। विजयिनः। प्रकाशमयाः। पञ्च। सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। इति पचि व्यक्तिकारे विस्तारे च कनिन्। विस्तीर्णाः, व्यक्ताः प्रसिद्धाः। संख्यावाची वा। प्र-दिशः। प्र+दिश दाने आज्ञापने च−क्विप्। प्रकृष्टा दानक्रियाः। प्राच्याद्याः सर्वा दिशाः वि-भक्ताः। वि+भज−क्त। प्राप्तविभागाः। अस्मै। आत्मने, मदर्थम्। सत्र-सदः। गुधृवीपचिवचियमिसदिक्षदिभ्यस्त्रः। उ० ४।१६७। इति षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु त्र प्रत्ययः। सीदन्ति यत्रेति सत्रं सदनं यज्ञः। सभास्थानम्। पुनः। सत्सूद्विषद्रुह०। पा० ३।२।६१। इति सत्रोपपदे तस्मादेव धातोः−कर्तरि क्विप्। सभासदः, सभ्यान्। कृणोमि। कृवि हिंसाकरणयोः−लट्। करोमि ॥
विषय
दीर्घ-जीवन के लिए चार महत्त्वपूर्ण बातें
पदार्थ
१. '(महाभूतानि प्रयाजा:), (भूतान्यनुयाजा:) = प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् के अनुसार शरीर में महाभूत प्रयाज हैं तथा जीवन में जिनके साथ हम सम्पर्क में आते हैं वे भूत-प्राणी अनुयाज हैं। (येषाम) = जिनके शरीर में (प्रयाजा:) = ये महाभूत (विभक्ताः) = ठीक रूप में विभक्त हैं उत वा तथा (अनुयाजा:) = जीवन में सम्पर्क में आनेवाले माता-पिता, आचार्य आदि व्यक्ति भी (विभक्ता:) = विशेषरूप से सेवित होते हैं [भज सेवायाम्], (व:) = तुममें से (तान्) = उन्हें (अस्मै) = इस जीवन-यात्रा के लिए (सत्रसद:) = जीवन-यज्ञ में स्थित होनेवाला (कृणोमि) = करता हूँ। शरीर में पृथिवी आदि तत्त्वों के ठीक अनुपात में होने पर किसी प्रकार के रोग नहीं होते। तत्पश्चात् यदि माता-पिता, आचार्य आदि का उत्तमता से सेवन होता है तो जीवन का विकास ठीक रूप में होता है। २. शरीर में इन्द्रियाँ, "हुतभाग' देव कहलाती हैं। ये शरीर में आहुत किये गये भोजन का सेवन करती हैं। उससे ही इनका पोषण होता है। प्राण'अहुताद' कहलाते हैं। ये बिना थके निरन्तर कार्य करते चलते हैं। (येषाम्) = जिनकी (हुतभागा: देवा:) = हुत का सेवन करनेवाली इन्द्रियाँ ठीक कार्य करती हैं (च) = और (आइताद:) = हुत का सेवन किये बिना ही निरन्तर कार्य करनेवाले प्राण ठीक कार्य करते हैं, उन्हें जीवन-यज्ञ में स्थिर होनेवाला कहता हूँ। ३. (वः) = तुममें से (येषाम्) = जिनके (पञ्च प्रदिश:) = पाँचों प्रकृष्ट प्रेरणाओं को देनेवाले अन्त:करण पञ्चक (विभक्ता:) = ठीक रूप में विभक्त होते हैं, अर्थात् अपना-अपना कार्य ठीक रूप में करते हैं, उन्हें इस जीवन यज्ञ में ठीक स्थिति प्राप्त होती हैं। ये ही व्यक्ति दीर्घ जीवनवाले बनते हैं।
भावार्थ
दीर्घ जीवन के लिए आवश्यक है कि [क] महाभूत शरीर में ठीक अनुपात में हों, [ख] माता-पिता, आचार्य आदि का सम्पर्क ठीक रहे, [ग] इन्द्रियों व प्राण ठीक कार्य करें, [घ] अन्त:करण पञ्चक की प्रेरणा ठीक चले।
विशेष
इस सूक्त में दीर्घ जीवन के लिए उपायों का वर्णन करते हुए कहा है कि [क] जल-वायु आदि देवों की अनुकूलता सर्वप्रथम साधन है, [ख] माता-पिता, आचार्य का बालक को उत्तम बनाना दूसरा साधन है, [ग] पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्धों का ठीक होना आवश्यक है और [घ] राष्ट्रीय व्यवस्था की उत्तमता भी अपेक्षित है [१][ङ] अन्न, जल ब दूध का ही प्रयोग दीर्घ जीवन का साधन बनता है [३]। इसप्रकार दीर्घ-जीवन प्राप्त करनेवाला यह अब 'ब्रह्मा' बनता है और चारों दिशाओं का रक्षण करता है। यह चतुर्दिक रक्षण ही अगले सूक्त का विषय है -
सूचना
दीर्घजीवन के लिए प्रयाजों व अनुयाजों का ठीक अनुपात में होना आवश्यक है। अन्त:करण पञ्चक का कार्य ठीक चलना चाहिए तथा प्राण व इन्द्रियों का कार्य भी ठीक होना चाहिए। अन्त:करण पञ्चक का कार्य है-'मन' का उत्तम इच्छाएँ, 'बुद्धि' का विवेक, 'चित्त' का अविस्मरण, 'अहंकार' का आत्मा का उचित अभिमान, 'हृदय' का शब्द।
भाषार्थ
(येषाम् ) जिन [सद्गृहस्थियों ] के (प्रयाजाः) प्रकृष्ट पञ्चमहायज्ञ हैं, (उत वा) या (अनुयाजाः) आनुषङ्गिक याग हैं, (हुतभागाः) अग्निहोत्र तथा बलिवैश्वयज्ञ में आहुतियाँ देकर जो अन्नभागी हैं, अन्न ग्रहण करते हैं, (च) और (अहुतादः) बिना आहुतियाँ दिये अन्नादन करते है, वे संन्यासी या विरक्त (देवा:) दिव्य मनुष्य हैं; (येषाम् ) तथा जिन (वः) तुम्हारे लिये (पञ्च) विस्तृत (प्रदिशः) दिशाएँ (विभक्ताः) विभक्त हैं [जोकि पृथिवी, वायु आदि हैं ] (तान् व:) उन तुमको, (अस्मै) इस ब्रह्मचारी के लिये (सत्रसदः) त्राण करने में स्थित (कृणोमि ) मैं परमेश्वर नियत करता हूँ। पञ्च =पचि विस्तारे (चुरादिः)।
टिप्पणी
[मन्त्र में याज्ञिक-प्रसिद्ध प्रयाजों और अनुयाजों का वर्णन नहीं है। ये हैं इध्म से लेकर वनस्पति पर्यन्त ११ (निरुक्त ८।२।४ से ८।३।२२)।]
विषय
प्रजा का राजा के प्रति कर्तव्य।
भावार्थ
( येषां ) आप लोगों में से जिसके ( प्रयाज़ाः ) उत्कृष्ट मोक्षप्राप्ति के निमित्त निष्काम यज्ञ हैं ( उत वा ) और जिनके ( अनुयाजाः ) आशानुरूप कर्मफल प्राप्त करने के निमित्त सकाम कर्म हैं और जो ( हुतभागाः ) आहुति रूप में अग्नि में डाले गये पदार्थों को ) अपने भीतर ग्रहण करने वाले हैं और जो ( अहुतादः ) आहुति न दिये गये केवल भिक्षामात्र से प्राप्त अन्न का भोग करने वाले (देवाः) विद्वान्गण हैं ( वः ) आप लोगों में से ( येषां ) जिनके ( पञ्च ) पांच प्रदिशः ) दिशाएं ( विभक्ताः ) विभक्त हैं ( तान् ) उन ( वः ) आप लोगों को मैं ( अस्मै ) इस राष्ट्रपति के यज्ञ में ( सत्रसदः ) सत्रसद् या सभासद् ( कृणोमि ) बनाता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आयुष्कामोऽथर्वा ऋषिः। विश्वेदेवाः देवताः। वस्वादिदेवस्तुतिः । १, २, ४ त्रिष्टुभः। ३ शाकरगर्भा विराड् जगती । चतुर्ऋचं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Health and Full Age
Meaning
Those among you, O noble divines, who are pioneers of research and innovation in the yajnic development of the nation, those who are yajnic followers of the pioneers, who partake of their share in the national economy of yajnic inputs and consequential fragrance and those who don’t, those among you who are organised in five ways of national economy, all such I raise and dedicate to membership of the nation’s parliament and other institutions for him.
Translation
O enlightened ones, those of you whose share are the afterofferings, those who consume oblations and those who eat the food not offered as oblation, and those, among whom the five regions have been divided, all of you I make his companions at (assigned different) sessions.
Translation
To all of those Devas, the worldly forces for whose sake the hymns of Prayya are applied in Yajna and for whose the Annuyaja hymns are applied in Yajnas; for whom the oblations are offered in the Yajna and who do not share with the oblation and even those who are connected with the five divided regions, the five directions. I make them present in this Yajna,
Translation
Ye, learned persons, who work selflessly for the attainment of emancipation, who crave for the fruit of actions, who are the sharers of oblation, and who live on alms, diversified are your acts of sacrifice, I make you the member of the cabinet of this king.
Footnote
I refers to the Purohit. The king should select such learned, simple, selfless persons as his ministers.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−प्र-याजाः। अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्। पा० ३।३।१९। इति प्र+यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु−घञ्। प्रयाजानुयाजौ यज्ञाङ्गे। पा० ७।३।६२। इति कुत्वप्रतिषेधो निपात्यते। प्रकृष्टपूजनीयकर्माणि। वा। समुच्चये, पाद−पूरणे वा। अनु-याजाः। अनु+यज−घञ् पूर्ववत्−अनुकूलानि पूजनीयकर्माणि। हुतभागाः। हु दानादानादनेषु−क्त। भज भागसेवयोः−भावे घञ्। हुतस्य, दत्तस्य, दानस्य गृहीतस्य वा विभागाः। अहुत-अदः। संपदादिभ्यः क्विप्। वार्तिकम्, पा० ३।३।९४। अहुत+अद भक्षणे−भावे क्विप्। अदानस्य दानशेषस्य भोजनानि। धान्यधनादीनि। देवाः। १।७।१। विजयिनः। प्रकाशमयाः। पञ्च। सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। इति पचि व्यक्तिकारे विस्तारे च कनिन्। विस्तीर्णाः, व्यक्ताः प्रसिद्धाः। संख्यावाची वा। प्र-दिशः। प्र+दिश दाने आज्ञापने च−क्विप्। प्रकृष्टा दानक्रियाः। प्राच्याद्याः सर्वा दिशाः वि-भक्ताः। वि+भज−क्त। प्राप्तविभागाः। अस्मै। आत्मने, मदर्थम्। सत्र-सदः। गुधृवीपचिवचियमिसदिक्षदिभ्यस्त्रः। उ० ४।१६७। इति षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु त्र प्रत्ययः। सीदन्ति यत्रेति सत्रं सदनं यज्ञः। सभास्थानम्। पुनः। सत्सूद्विषद्रुह०। पा० ३।२।६१। इति सत्रोपपदे तस्मादेव धातोः−कर्तरि क्विप्। सभासदः, सभ्यान्। कृणोमि। कृवि हिंसाकरणयोः−लट्। करोमि ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(য়েষাং) যে তোমাদের (প্র য়াজাঃ) উত্তম সৎকর্মশীল (উত বা) এবং (অনুয়াজাঃ) অনুকূল সৎকর্মশীল (হুততভাগাঃ) আদান প্রদানের বিভাগকর্তা (চ) এবং (অহুতাদঃ) দান হইতে উদ্বৃত্ত পদার্থের ভক্ষক (দেবাঃ) বিজয়ী বিদ্বানেরা আছেন (য়েষাং বঃ) যে তোমাদের (পঞ্চ) পাঁচ (প্রদিশঃ) প্রধান দিক (বিভক্তাঃ) বহু প্রকারে বিভক্ত (তান্ বঃ) সেই তোমাদিগকে (অস্মৈ) এই পুরুষের জন্য (সত্রসদঃ) সভাসদ (কৃণোমি) করিতেছি।।
भावार्थ
তোমাদের জন্য শুভকর্ম পরায়ণ, অনুকূল কর্মশীল, আদান প্রদানের বিভাগকর্তা এবং দান হইতে উদ্বৃত্ত পদার্থের ভক্ষক বিদ্বানেরা আছেন। প্রধান পঞ্চ দিকে তোমরা বিভক্ত হইয়া রহিয়াছ। এই সব ব্যক্তিগণকেই রাজসভার সভাসদ নির্বাচন করিতেছি।।
मन्त्र (बांग्ला)
য়েষাং প্রয়াজা উত বানুয়াজা হুতভাগা অহুতাদশ্চ দেবাঃ। য়েষাং বঃ পঞ্চ প্রদিশো বিভক্তাপ্তান্ বো অস্মৈ সত্ৰসদঃ কৃণোমি।।
ऋषि | देवता | छन्द
অর্থবা (আয়ুষ্কামঃ)। বিশ্বে দেবাঃ। ত্রিষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(রাজসূয়যজ্ঞোপদেশঃ) রাজতিলক যজ্ঞের জন্য উপদেশ।
भाषार्थ
(যেষাম্) যেসব [তোমাদের] (প্রয়াজাঃ) উত্তম পূজনীয় কর্ম (উত বা) এবং (অনুয়াজাঃ) অনুকূল পূজনীয় কর্ম এবং (হুতভাগাঃ) আদান-প্রদানের বিভাগ (চ) এবং (অহুতাদঃ) যজ্ঞ বা দান থেকে অতিরিক্ত পদার্থসমূহের আহার (দেবাঃ) বিজয়কারী [বা প্রকাশকারী] রয়েছে এবং (যেষাম্ বঃ) যেসব তোমাদের (পঞ্চ) বিস্তীর্ণ [বা পাঁচ] (প্রদিশঃ) উত্তম দানক্রিয়াসমূহ [বা প্রধান দিকসমূহ] (বিভক্তাঃ) অনেক প্রকারে বিভক্ত, (তান্ বঃ) সেইসব তোমাদের (অস্মৈ) এই [পুরুষের] হিতের জন্য [নিজের জন্য] (সত্রসদঃ) সভাসদ (কৃণোমি) তৈরি করি ॥৪॥
भावार्थ
যে ধর্মাত্মা বিদ্বান পুরুষ স্বার্থ ত্যাগ কর দান করেন এবং সমস্ত সংসারের হিতের জন্য উদার চিত্ত হন, রাজা সেই মহাত্মাদের নিজের রাজসভার সভাসদ হিসেবে নিয়োগ/নিয়োজিত/নির্বাচিত করবেন ॥৪॥ যজ্ঞশেষের ভোজন বিষয়ে ভগবান শ্রীকৃষ্ণ মহারাজ বলাছেন– ভগবদ্গীতা অ০ ৪ শ্লোক ৩১ ॥ যজ্ঞশিষ্টামৃতভুজো যান্তি ব্রহ্ম সনাতনম্। নায়ং লোকোঽস্ত্যযজ্ঞস্য কুতোঽন্যঃ কুরুসত্তম ॥১॥ এই [দান বা দেবপূজা] থেকে অতিরিক্ত অমৃতের ভোজনকারী পুরুষ সনাতন ব্রহ্মকে লাভ করে। যজ্ঞ করে না এমন ব্যক্তির এই লোকই নয়, হে কৌরবশ্রেষ্ঠ ! আবার তাদের পরলোক কোথায় থেকে হবে ॥
भाषार्थ
(যেষাম্) যে [সদ্গৃহস্থীদের] (প্রয়াজাঃ) প্রকৃষ্ট পঞ্চমহাযজ্ঞ আছে, (উত বা) বা (অনুয়াজাঃ) আনুষঙ্গিক যাগ আছে, (হুতভাগাঃ) অগ্নিহোত্র তথা বলিবৈশ্বযজ্ঞে আহুতি দিয়ে যে অন্নভাগী আছে, অন্ন গ্রহণ করে, (চ) এবং (অহুতাদঃ) আহুতি না দিয়ে অন্নাদন করে, তাঁরা সন্ন্যাসী বা বিরক্ত (দেবাঃ) দিব্য মনুষ্য; (যেষাম্) এবং যে (বঃ) তোমাদের জন্য (পঞ্চ) বিস্তৃত (প্রদিশঃ) দিশা (বিভক্তাঃ) বিভক্ত রয়েছে [যা পৃথিবী, বায়ু ইত্যাদি] (তান্ বঃ) সেই তোমাদের, (তস্মৈ) এই ব্রহ্মচারীর জন্য (সত্রসদঃ) ত্রাণ করার ক্ষেত্রে স্থিত (কৃণোমি) আমি পরমেশ্বর নিয়ত করি। পঞ্চ=পচি বিস্তারে (চুরাদিঃ)।
टिप्पणी
[মন্ত্রে যাজ্ঞিক-প্রসিদ্ধ প্রয়াজ এবং অনুযাজের বর্ণনা নেই। এটা হলো সমিধা থেকে শুরু করে বনস্পতি পর্যন্ত ১১ (নিরুক্ত ৮।২।৪ থেকে ৮।৩।২২)।]
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