अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - द्यावापृथिवी
छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - महद्ब्रह्मा सूक्त
113
अ॒न्तरि॑क्ष आसां॒ स्थाम॑ श्रान्त॒सदा॑मिव। आ॒स्थान॑म॒स्य भू॒तस्य॑ वि॒दुष्टद्वे॒धसो॒ न वा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्तरि॑क्षे । आ॒सा॒म् । स्याम॑ । श्रा॒न्त॒सदा॑म्ऽइव । आ॒ऽस्थान॑म् । अ॒स्य । भू॒तस्य॑ । वि॒दु: । तत् । वे॒धस॑: । न । वा॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तरिक्ष आसां स्थाम श्रान्तसदामिव। आस्थानमस्य भूतस्य विदुष्टद्वेधसो न वा ॥
स्वर रहित पद पाठअन्तरिक्षे । आसाम् । स्याम । श्रान्तसदाम्ऽइव । आऽस्थानम् । अस्य । भूतस्य । विदु: । तत् । वेधस: । न । वा ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मविचार का उपदेश।
पदार्थ
(अन्तरिक्षे) सबके भीतर दिखाई देनेहारे आकाशरूप परमेश्वर में (आसाम्) इनका [लतारूप सृष्टियों का] (स्थाम) ठहराव है (श्रान्तसदाम् इव) जैसे थक कर बैठे हुए यात्रियों का पड़ाव। (वेधसः) बुद्धिमान् लोग (तत्) उस ब्रह्म को (अस्य भूतस्य) इस संसार का (आस्थानम्) आश्रय (विदुः) जानते हैं, (वा) अथवा (न) नहीं [जानते हैं] ॥२॥
भावार्थ
सूर्य आदि असंख्य लोक उसी परमब्रह्म में ठहरे हैं, वही समस्त जगत् का केन्द्र है। इस बात को विद्वान् लोग विधि और निषेधरूप विचार से निश्चित करते हैं, जैसे ब्रह्म जड़ नहीं है, किन्तु चैतन्य है, इत्यादि, अथवा जितना अधिक ब्रह्मज्ञान होता जाता है, उतना ही वह अनन्त, ब्रह्म अगम्य और अति अधिक जान पड़ता है, इससे वह ब्रह्मज्ञानी अपने को अज्ञानी समझते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−अन्तरिक्षे। १।३०।३। सर्वमध्ये दृश्यमाने परमेश्वरे। आसाम्। वीरुधाम्। म० १। विरोहणशीलानां पदार्थानाम्। स्थाम। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४४। ष्ठा गतिनिवृत्तौ−मनिन्। स्थानं। स्थितिः। श्रान्तसदाम्। श्रमु तपःखेदयोः−भावे क्त+षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु−क्विप्। श्रमेण मार्गस्वेदेन स्थितानाम्। आ-स्थानम्। आ+ष्ठा−ल्युट्। स्थानम्। आश्रयम्। अस्य। परिदृश्यमानस्य। भूतस्य। लोकस्य, जगतः। विदुः। विद ज्ञाने−लट्। विदन्ति जानन्ति। तत्। कारणभूतं ब्रह्म। वेधसः। १।११।१। मेधाविनः, विद्वांसः। न। निषेधे। वा। अथवा ॥
विषय
सर्वाधार
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णित (आसाम्) = इन वीरुधों [लताओं] का (स्थाम) = आधार (अन्तरिक्षे) = उस सबके अन्तर निवास करनेवाले [यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तर:-उप०] प्रभु में है, (इव) = उसी प्रकार जैसे (श्रान्तसदाम्) = थककर बैठनेवाले यात्रियों की वृक्षछाया आधार बनती है। २. (अस्य भूतस्य) = इस सृष्टि में वर्तमान प्रत्येक प्राणी के (तत्) = उस (आस्थानम्) = आधारभूत प्रभु को (वेधसः) = ज्ञानी भी (विदुः न वा) = जानते हैं या नहीं जानते। वस्तुत: उस प्रभु का जानना सुगम नहीं होता। वे प्रभु अचिन्त्य व अप्रमेय है, चक्षुरादि इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं है। मन से उसका मापना सुगम नहीं। इसी कारण सामान्यतया मनुष्य इन द्यावापृथिवी आदि पदार्थों को ही इन वीरुधों का आधार मान लेता है-इन्हीं से उन्हें प्राणित होता हुआ समझता है। वस्तुत: इन द्यावापृथिवी को भी प्राणित करनेवाला प्रभु ही है।
भावार्थ
सबका आधार, सबके अन्दर स्थित वे प्रभु ही हैं। इस प्रभु का ज्ञान ज्ञानियों के लिए भी सुगम नहीं होता।
भाषार्थ
(आसाम्) इन ओषधियों का (स्थाम) स्थान (अन्तरिक्षे१) ब्रह्माण्ड में निवास करनेवाले में है (इव) जैसेकि (श्रान्तसदाम् ) जगत् के धन्धों से थके हुए विरक्त व्यक्तियों का वह विश्रामस्थान है। (अस्य भूतस्य) इस भूत-भौतिक के (तत् ) उस ( आ स्थानम् ) व्यापी-स्थान को ( वेधसः ) मेधावी भी (विदुः) जानते हैं (न वा) अथवा नहीं जानते।
टिप्पणी
[यह सन्देहास्पद है] । वेधसः = वेधा मेधाविनाम (निघं० ३।१५) विदुः नवा=यथा– यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः। अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्।। जिसे ब्रह्मा अज्ञेय है, उसे तो वह ज्ञेय है, और जिसे ब्रह्म ज्ञेय है उसे वह नहीं जानता। (अविज्ञातम्, विजानताम् )ज्ञेयवादियों को ब्रह्म अविज्ञात है, और अज्ञेयवादियों को ब्रह्म विज्ञात है [जाननेवाला जीवात्मा अल्पज्ञ और सीमित है, और ब्रह्म सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है। अल्पज्ञ और सीमित, सर्वज्ञ और निःसीम को जानने की शक्ति नहीं रखता। इस औषनिषद वचन द्वारा ज्ञेयवाद और अज्ञेयवाद का अन्तिम निर्णय हो गया। इस वचन में "वि" का विशेष महत्त्व है। "वि" का अभिप्राय है विशेषतया जानना। ब्रह्म का विशेष ज्ञान नहीं हो सकता, सामान्य ज्ञान ही हो सकता है। मतम्=मन ज्ञाने (दिवादिः), मनु अवबोधने (तनादिः)।] [१. "अन्तरिक्ष" को आकाश भी कहा है, यथा "आकाशस्तल्लिंगात्" (ब्रह्मसूत्र वेदान्त)। ब्रह्मसूत्र में "आकाश" का प्रयोग "ब्रह्म" के लिए हुआ है जोकि सर्वाधार है। तथा अन्तरिक्षम् = अन्तराक्षान्तं भवति (निरुक्त २।३।१०), क्षि निवासे (तुदादिः)।]
विषय
ब्रह्म का विवेचन।
भावार्थ
(आसाम्) इस वनस्पति आदि जगत् की (स्थाम) स्थिति ( अन्तरिक्षे ) आकाश की नाईं व्यापक उस ब्रह्म में ही है, (श्रान्तसदामिव ) जीवन मरण के चक्र से थककर विश्राम करने वाले आत्मवेत्ताओं की स्थिति जैसे कि उस ब्रह्म में होती है ( अस्य भूतस्य ) इस समस्त जड़ चेतन जगत् के (आस्थान) स्थानभूत (तत्) उस को (वेधसः) बुद्धिमान् लोग ( विदुः ) जानते हैं ( न वा ) या नहीं जानते - यह वे ही जानते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मऋषिः । द्यावापृथिवी देवते । ब्रह्मसूक्तम् । १, ३, ४ अनुष्टुप् छन्दः । २ ककुम्मती । चतुऋचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahma: Life-Universal
Meaning
The main stay of these living forms is in infinite Space like the station of satiated self-realised souls. That home of this world of existence, they know who know, and may be they too don’t - which, again, only they know, we don’t. (Compare Rgveda 10, 129, 7.)
Translation
The mid-space is their stop-over, like the one meant for the resting of the tired. The real station of all this creation, only the virtuous ones know or perhaps they also know not.
Translation
In Antariksha, the all pervading God is the support of these plants like the tired enlightened ones who take rest in Him. To Him who is the basic support of all the worlds learned men know or know not is known by them only.
Translation
The stability of all these plants lies in God, just as enlightened souls wearied of the cycle of birth and death take rest in God after salvation, The learned alone can tell, whether they know or not God to be the source of animate and inanimate creation.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−अन्तरिक्षे। १।३०।३। सर्वमध्ये दृश्यमाने परमेश्वरे। आसाम्। वीरुधाम्। म० १। विरोहणशीलानां पदार्थानाम्। स्थाम। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४४। ष्ठा गतिनिवृत्तौ−मनिन्। स्थानं। स्थितिः। श्रान्तसदाम्। श्रमु तपःखेदयोः−भावे क्त+षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु−क्विप्। श्रमेण मार्गस्वेदेन स्थितानाम्। आ-स्थानम्। आ+ष्ठा−ल्युट्। स्थानम्। आश्रयम्। अस्य। परिदृश्यमानस्य। भूतस्य। लोकस्य, जगतः। विदुः। विद ज्ञाने−लट्। विदन्ति जानन्ति। तत्। कारणभूतं ब्रह्म। वेधसः। १।११।१। मेधाविनः, विद्वांसः। न। निषेधे। वा। अथवा ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(অন্তরিক্ষে) আকাশ তুল্য ব্যাপক পরমেশ্বরের (আসাম্) সৃষ্টির (স্থাম) আশ্রয় (শ্রান্ত সদাং ইব) শ্রান্ত যাত্রীদের বিশ্রাম স্থানের ন্যায়। (বেধসঃ) জ্ঞানীরা (তৎ) সেই ব্রহ্মকে (অস্য ভূতস্য) এই সংসারের (আস্থানং) আশ্রয় (বিদুঃ) জানেন (বা) অথবা (ন) জানেন না।।
भावार्थ
অন্তরিক্ষ তুল্য ব্যাপক পরমেশ্বর সৃষ্টির পক্ষে শ্রান্ত যাত্রীদের নিবাস স্থানের ন্যায় আশ্রয় স্বরূপ। জ্ঞানবানেরা সেই পরমেশ্বরকে এই সংসারের আশ্রয় রূপই জানেন জ্ঞান বৃদ্ধির সঙ্গে সঙ্গে জ্ঞানীরা নিজেকে অজ্ঞানী মনে করেন।।
मन्त्र (बांग्ला)
অন্তরিক্ষ আসাং স্থাম শ্রান্তসদামিব । আস্থানমস্য ভূতস্য বিদুষ্টদ্ বেধসো ন বা।।
ऋषि | देवता | छन्द
ব্ৰহ্মা। দ্যাব্যাপৃথিবী। ককুম্মত্যনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(ব্রহ্মবিচারোপদেশঃ) ব্রহ্মবিচারের উপদেশ
भाषार्थ
(অন্তরিক্ষে) সকলের অভ্যন্তরে দৃশ্যমান আকাশরূপ পরমেশ্বরে (আসাম্) এদের [লতারূপ সৃষ্টিসমূহের] (স্থাম) অবস্থান রয়েছে, (শ্রান্তসদাম্ ইব) যেরূপ পরিশ্রান্ত হয়ে বসে থাকা যাত্রীদের স্থান। (বেধসঃ) বুদ্ধিমানগণ (তৎ) সেই ব্রহ্মকে (অস্য ভূতস্য) এই সংসারের (আস্থানম্) আশ্রয় (বিদুঃ) জানেন, (বা) অথবা (ন) না [জানেন] ॥২॥
भावार्थ
সূর্য আদি অসংখ্য লোক সেই পরমব্রহ্মে অবস্থান করে, তিনিই সমস্ত জগতের কেন্দ্র। এই কথাকে বিদ্বানগণ বিধি এবং নিষেধরূপ বিচার দ্বারা নিশ্চিত করেন। যেরূপ ব্রহ্ম জড় নয়, কিন্তু চৈতন্য ইত্যাদি, অথবা যতটা অধিক ব্রহ্মজ্ঞান হয়ে যায়, ততই সেই অনন্ত, ব্রহ্ম অগম্য এবং অতি অধিক জানা যায়, এর দ্বারা সেই ব্রহ্মজ্ঞানী নিজেকে অজ্ঞানী মনে করেন ॥২॥
भाषार्थ
(আসাম্) এই ঔষধি-সমূহের (স্থাম) স্থান (অন্তরিক্ষে ১) ব্রহ্মাণ্ডে নিবাসকারীদের মধ্যে হয়/আছে (ইব) যেমন (শ্রান্তসদাম্) জগতের কাজকর্মে ক্লান্ত আসক্তিরহিত ব্যক্তির তা [এই জগৎ] বিশ্রামস্থান। (অস্য ভূতস্য) এই ভূত-ভৌতিকের (তৎ) সেই (আ স্থানম্) ব্যাপী-স্থানকে (বেধসঃ) মেধাবী ব্যক্তিও (বিদুঃ) জানে (ন বা) অথবা জানে না।
टिप्पणी
[ইহা সন্দেহাস্পদ]। বেধসঃ= বেধা মেধাবিনাম (নিঘং০ ৩।১৫) বিদুঃ নবা=যথা-- যস্যামতং তস্য মতং মতং যস্য ন বেদ সঃ। অবিজ্ঞাতং বিজানতাং বিজ্ঞাতমবিজানতাম্ ॥ (কেনোপনিষদ ২।৩) ভাবার্থঃ [জ্ঞাত জীবাত্মা অল্পজ্ঞ ও সীমিত হয়, এবং ব্রহ্ম সর্বজ্ঞ ও সর্বব্যাপক। অল্পজ্ঞ এবং সীমিত জীবের পক্ষে, সর্বজ্ঞ এবং অসীমকে পরিপূর্ণভাবে জানার শক্তি থাকে না। এই ঔষনিষদ বচন দ্বারা জ্ঞেয়বাদ ও অজ্ঞেয়বাদের অন্তিম নির্ণয় হয়ে গেছে। এই বিবরণে "বি" এর বিশেষ মহত্ত্ব রয়েছে। "বি" এর উদ্দেশ্য হলো বিশেষভাবে জানা। ব্রহ্মের বিশেষ জ্ঞান হতে পারে না, সামান্য জ্ঞানই হতে পারে। মতম্=মন জ্ঞানে (দিবাদিঃ), মনু অববোধনে (তনাদিঃ)।] [১. "অন্তরিক্ষ" কে আকাশও বলা হয়েছে, যথা "আকাশস্তল্লিংগাৎ" (ব্রহ্মসূত্র বেদান্ত)। ব্রহ্মসূত্রে "আকাশ" এর প্রয়োগ "ব্রহ্ম" এর জন্য হয়েছে যিনি সর্বাধার। তথা অন্তরিক্ষম্ = অন্তরাক্ষান্তং ভবতি (নিরুক্ত ২।৩।১০), ক্ষি নিবাসে (তুদাদিঃ)।]
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