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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - द्यावापृथिवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - महद्ब्रह्मा सूक्त
    66

    यद्रोद॑सी॒ रेज॑माने॒ भूमि॑श्च नि॒रत॑क्षतम्। आ॒र्द्रं तद॒द्य स॑र्व॒दा स॑मु॒द्रस्ये॑व स्रो॒त्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । रोद॑सी॒ इति॑ । रेज॑माने॒ इति॑ । भूमि॑: । च॒ । नि॒:ऽअत॑क्षतम् । आ॒र्द्रम् । तत् । अ॒द्य । स॒र्व॒दा । स॒मु॒द्रस्य॑ऽइव । स्रो॒त्या: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्रोदसी रेजमाने भूमिश्च निरतक्षतम्। आर्द्रं तदद्य सर्वदा समुद्रस्येव स्रोत्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । रोदसी इति । रेजमाने इति । भूमि: । च । नि:ऽअतक्षतम् । आर्द्रम् । तत् । अद्य । सर्वदा । समुद्रस्यऽइव । स्रोत्या: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (रोदसी=सि) हे सूर्य (च) और (भूमिः) भूमि। (रेजमाने) काँपते हुए तुम दोनों ने (यत्) जिस [रस] को (निरतक्षम्) उत्पन्न किया है, (तत्) वह (आर्द्रम्) रस (अद्य) आज (सर्वदा) सदा से (समुद्रस्य) सींचनेवाले समुद्र के (स्रोत्याः) प्रवाहों के (इव) समान वर्तमान है ॥३॥

    भावार्थ

    जिस रस वा उत्पादनशक्ति को, परमेश्वर ने सूर्य और भूमि को (कम्पमान) वश में रख के, सृष्टि के आदि में उत्पन्न किया था वह शक्ति मेघ आदि रस रूप से सदा संसार में सृष्टि की उत्पत्ति और स्थिति का कारण है ॥३॥

    टिप्पणी

    टिप्पणी−सायणभाष्य में (रोदसी इति) यह पदपाठ और उसका अर्थ [हे द्यावापृथिव्यौ] हे सूर्य और भूमि अशुद्ध है। यहाँ (रोदसी) एकवचन और केवल सूर्यवाची है क्योंकि (भूमिः च) [और भूमि] यह पद मन्त्र में वर्तमान हैं। फिर (भूमिः च) का भी अर्थ [भूमि और द्युलोक] उक्त भाष्य में है ॥ ३−यत्। आर्द्रम्। रोदसी। एकवचनं स्त्री। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति रुध आवरणे−असुन्। षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। इति ङीप्। द्युलोको भूमिर्वा। सम्बोधने दीर्घश्छान्दसः। हे रोदसि। सूर्यलोक। रेजमाने। रेजृ कम्पने−शानच्। भ्यसते रेजत इति भयवेपनयोः−निरु० ३।२१। उभे कम्पमाने। भूमिः। १।११।२। भवन्ति पदार्था अस्यामिति। पृथिवी। निः−अतक्षतम्। तक्षू तनूकरणे−लङ्। युवामुदपादयतम्। आर्द्रम्। अर्देर्दीघश्च। उ० २।१८। इति अर्द वधे, गतौ−रक्, दीर्घश्च। क्लेदनं रसत्वम् उत्पादनसामर्थ्यम्। तत्। प्रसिद्धम्। अद्य। १।१।१। वर्तमाने दिने। समुद्रस्य। १।३।८। समुन्दनशीलस्य सागरस्य, अर्णवस्य। स्रोत्याः। पुंलि०। स्रोतसो विभाषा ड्यड्यौ। पा० ४।४।११३। इति स्रोतस्-ड्य डित्त्वात् टिलोपः। स्रोतसि भवाः, जलप्रवाहाः ॥

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    विषय

    सदा नवीन

    पदार्थ

    १. (रेजमाने) = चमकते [ho shine] हुए (रोदसी) = ये द्यावापृथिवी (च भूमि:) = अथवा यह भूमि (यत्) = जिस भी (आर्द्रम्) = रस का (निरतक्षतम्) = निर्माण करते हैं (तत्) = वह रस (अद्य) = आज की भाँति (सर्वदा) = सदा ही (समद्रस्य) = समुद्र के (स्त्रोत्याः इव) = स्रोतों के समान है। जैसे समुद्र के स्त्रोत शुष्क नहीं होते, इसीप्रकार इन द्यावापृथिवी से उत्पन्न किया गया रस शुष्क नहीं हो जाता। २. प्रभु की यह भी अद्भुत ही रचना है कि द्यावापृथिवी में रस-निर्माण की शक्ति बनी ही रहती है। एक चाक्रिक क्रम से गति करती हुई यह शक्ति सदा समानरूप से बनी रहती है। पृथिवी में एक चक्र में [by rotation] विविध अन्न बोये जाते हैं और पृथिवी की उपजाऊ शक्ति में कमी नहीं आती। सनातनकाल से बरसता हुआ यह मेघ बरसता ही रहेगा। 'बरसते-बरसते थक जाएगा' ऐसी बात नहीं है।

    भावार्थ

    प्रभु से द्यावापृथिवी में स्थापित की गई शक्ति सदा नवीन-सी बनी रहती है।

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    भाषार्थ

    (रोदसी) हे द्यौः-तथा-पृथिवी ! (रेजमाने) कम्पन करते हुए तुम (भूमिः च) अर्थात् भूमि और पृथिवी तुम दो ने, (यद्) जिस ब्रह्म को (निरतक्षतम्) घड़ा, प्रकट किया, (तत्) वह ब्रह्मा ( अद्य सर्वदा) आज तक और सदा से (आर्द्रम्) दयार्द्रहृदय रहा है, (समुद्रस्य स्रोत्याः इव) जैसेकि समुद्रगामिनी नदियाँ सदा आई रहती हैं, (प्रभूत जल होने से)

    टिप्पणी

    [समग्र द्यौः और पृथिवी सदा गतिवाले हैं, इसे कम्पन से सूचित किया है। कम्पन करनेवाला है, ब्रह्म। ब्रह्म द्वारा ही इन सबमें गतियां हो रही हैं। ब्रह्माण्ड की गतियों का करनेवाला कोई चेतन तत्त्व होना चाहिए, यह इन गतियों द्वारा सूचित होता है। यह ही ब्रह्म को घड़ना है, ज्ञापित करना है। मन्त्र में निरतक्षतम् की भावना निम्न मन्त्र द्वारा सूचित भी होती है। यथा- किम् स्विद् वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः। मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यवध्यतिष्ठद् भुवनामि धारयन् ॥ (--यजु:० १७।२०)। मन्त्र में निष्टतक्षु: और भुवनानि धारयन् यदध्यतिष्ठत् तथा वनम् द्वारा ब्रह्म का सम्बन्ध घड़ने के साथ सूचित होता है। निस्ततक्षु:= निस्ततक्ष [परमेश्वरः] महीधर; बहुवचन पूजार्थम्, उव्वट:। अथवा निस्ततक्षुः प्राकृतिक-शक्तयः। परमेश्वर तो तक्षा है, वह प्राकृतिक-शक्तियों की सहायता से तक्षण करता है। अतः सहायक शक्तियों में भी तक्षण क्रिया का सम्बन्ध दर्शाया है।]

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    विषय

    ब्रह्म का विवेचन।

    भावार्थ

    ( रेजमाने ) सदा गतिशील ( रोदसी ) द्युलोक और पृथिवी लोक ( भूमिश्च ) अर्थात् भूलोक और द्युलोक ( यत् ) जिस ब्रह्म द्वारा ( निरतक्षतम् ) घड़े गये अर्थात् रचे गये हैं, ( तद् ) वह ब्रह्म ( अद्य ) आज ( सर्वदा ) और सदा से ( आर्द्रम् ) दयार्द्र हृदय है ( समुद्रस्य ) समुद्र के ( स्त्रोत्या इव ) सोतों अर्थात् आन्तरिक लहरों की नाईं या समुद्रगामिनी महा नदियों की नाईं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मऋषिः । द्यावापृथिवी देवते । ब्रह्मसूक्तम् । १, ३, ४ अनुष्टुप् छन्दः । २ ककुम्मती । चतुऋचं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma: Life-Universal

    Meaning

    The living fluid vitality which the dynamic heaven and earth and the firmament created and create is the same today which has ever been flowing from the universal Spirit like the streams of water and waves of the sea.

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    Translation

    Whatever the agitated heaven and earth have formed, that even today is ever full of sap like the springs coming out of a lake.

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    Translation

    Grand he who produces the trembling earth and celestial region, is merciful now and for ever like the currents of the sea.

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    Translation

    God, who hath produced and fashioned forth this ever moving sun and earth is today and ever filled With compassion, as an ocean is ever filled with water through streams that flow into it.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    टिप्पणी−सायणभाष्य में (रोदसी इति) यह पदपाठ और उसका अर्थ [हे द्यावापृथिव्यौ] हे सूर्य और भूमि अशुद्ध है। यहाँ (रोदसी) एकवचन और केवल सूर्यवाची है क्योंकि (भूमिः च) [और भूमि] यह पद मन्त्र में वर्तमान हैं। फिर (भूमिः च) का भी अर्थ [भूमि और द्युलोक] उक्त भाष्य में है ॥ ३−यत्। आर्द्रम्। रोदसी। एकवचनं स्त्री। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति रुध आवरणे−असुन्। षिद्गौरादिभ्यश्च। पा० ४।१।४१। इति ङीप्। द्युलोको भूमिर्वा। सम्बोधने दीर्घश्छान्दसः। हे रोदसि। सूर्यलोक। रेजमाने। रेजृ कम्पने−शानच्। भ्यसते रेजत इति भयवेपनयोः−निरु० ३।२१। उभे कम्पमाने। भूमिः। १।११।२। भवन्ति पदार्था अस्यामिति। पृथिवी। निः−अतक्षतम्। तक्षू तनूकरणे−लङ्। युवामुदपादयतम्। आर्द्रम्। अर्देर्दीघश्च। उ० २।१८। इति अर्द वधे, गतौ−रक्, दीर्घश्च। क्लेदनं रसत्वम् उत्पादनसामर्थ्यम्। तत्। प्रसिद्धम्। अद्य। १।१।१। वर्तमाने दिने। समुद्रस्य। १।३।८। समुन्दनशीलस्य सागरस्य, अर्णवस्य। स्रोत्याः। पुंलि०। स्रोतसो विभाषा ड्यड्यौ। पा० ४।४।११३। इति स्रोतस्-ड्य डित्त्वात् टिलोपः। स्रोतसि भवाः, जलप्रवाहाः ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (রোদসী) হে সূর্য (চ) এবং (ভূমিঃ) ভূমি! (রেজমানে) কম্পিত হইয়া তোমরা উভয়ে (য়) যে রসকে (নিরতক্ষতম্) উৎপন্ন করিয়াছ (তৎ) সেই (আর্দ্রং) রস (অদ্র) আজ (সর্বদা) চিরদিন (সমুদ্রস্য) সমুদ্রের (স্রোত্যাঃ) প্রবাহের (ইব) সমান বর্তমান।

    भावार्थ

    হে কম্পমান সূর্য ও ভূমি! তোমরা উভয়ে যে রসকে উৎপন্ন করিয়াছ সেই রস আজ চিরদিন সমুদ্রের প্রবাহের ন্যায় বর্তমান রহিয়াছ।

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়দ্ রোদসী রেজমানে ভূমিমচ নিরতক্ষতম্। আর্দ্রং তদদ্য সর্বদা সমুদ্রস্যেব স্রোত্যাঃ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ব্রহ্মা। দ্যাব্যাপৃথিবী। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (ব্রহ্মবিচারোপদেশঃ) ব্রহ্মবিচারের উপদেশ

    भाषार्थ

    (রোদসী=সি) হে সূর্য (চ) এবং (ভূমিঃ) ভূমি ! (রেজমানে) কম্পমান তোমরা (যৎ) যে [রস] (নিরতক্ষম্) উৎপন্ন করেছ, (তৎ) সেই (আর্দ্রম্) রস (অদ্য) আজ (সর্বদা) সর্বদা (সমুদ্রস্য) সিঞ্চনকারী সমুদ্রের (স্রোত্যাঃ) প্রবাহের (ইব) ন্যায় বর্তমান ॥৩॥

    भावार्थ

    যে রস বা উৎপাদন শক্তিকে পরমেশ্বর সূর্য এবং ভূমিকে (কম্পমান) নিয়ন্ত্রণাধীন রেখে সৃষ্টির আদিতে উৎপন্ন করেছিলেন, সেই শক্তি মেঘরূপ রস আদি দ্বারা সর্বদা সংসারে সৃষ্টির উৎপত্তি এবং স্থিতির কারণ হয় ॥৩॥ টিপ্পণী−সায়ণভাষ্যে (রোদসী ইতি) এই পদপাঠ এবং তার অর্থ [হে দ্যাবাপৃথিব্যৌ] হে সূর্য এবং ভূমি অশুদ্ধ। এখানে (রোদসী) একবচন এবং কেবল সূর্যবাচী। কেননা (ভূমিঃ চ) [এবং ভূমি] এই পদ মন্ত্রে বর্তমান রয়েছে। আবার (ভূমিঃ চ) ভূমির অর্থও [ভূমি এবং দ্যুলোক] উক্ত ভাষ্যে রয়েছে॥

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    भाषार्थ

    (রোদসী) হে দ্যৌঃ এবং পৃথিবী! (রেজমানে) কম্পমান তোমরা (ভূমিঃ চ) অর্থাৎ ভূমি ও পৃথিবী তোমরা, (যদ্) যে ব্রহ্মকে (নিরতক্ষতম্) প্রকট করেছো, (তৎ) সেই ব্রহ্ম (অদ্য, সর্বদা) আজ পর্যন্ত এবং সদা (আর্দ্রম্) দয়ার্দ্রহৃদয় রয়েছেন, (সমুদ্রস্য স্রোত্যাঃ ইব) যেমন সমুদ্রগামিনী নদী সদা আর্দ্র থাকে, (প্রভূত জল হওয়ার কারণে)

    टिप्पणी

    [সমগ্র দ্যৌঃ এবং পৃথিবী সদা গতিশীল, ইহাকে কম্পন দ্বারা সূচিত করা হয়েছে। কম্পনে রত করেন ব্রহ্ম। ব্রহ্ম দ্বারাই এই সবকিছুর মধ্যে গতি হচ্ছে। ব্রহ্মাণ্ডের গতির জন্য কোনো চেতন-তত্ত্ব হওয়া উচিত, তা এই গতির দ্বারা সূচিত হয়। এটাই ব্রহ্মের অস্তিত্ব জ্ঞাপন করে। মন্ত্রে নিরতক্ষতম্ এর ভাবনা নিম্ন মন্ত্র দ্বারা অবগত হয়। যথা- কি স্বিদ্ বনম্ ক উ স বৃক্ষ আস যতো দ্যাবাপৃথিবী নিষ্টতক্ষুঃ। মনীষিণো মনসা পৃচ্ছতেদু তদ্যদধ্যতিষ্ঠদ্ ভুবনামি ধারয়ন্ । (-যজুঃ০ ১৭।২০) মন্ত্রে নিষ্টতক্ষুঃ এবং ভুবনানি ধারয়ন্ যদধ্যতিষ্ঠৎ, এবং বনম্ দ্বারা ব্রহ্মের সম্পর্ক সৃষ্টির সাথে সূচিত হয়। নিস্ততক্ষুঃ=নিস্ততক্ষ [পরমেশ্বরঃ] মহীধর; বহুবচনং পূজার্থম্, উব্বটঃ। অথবা নিস্ততক্ষুঃ প্রাকৃতিক-শক্তয়ঃ। পরমেশ্বর তো কারিগর, তিনি প্রাকৃতিক-শক্তির সহায়তা দ্বারা কারিগরী করেন। অতএব সহায়ক শক্তির মধ্যেও কারিগরী ক্রিয়ার সম্পর্ক দর্শানো হয়েছে।]

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