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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - द्यावापृथिवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - महद्ब्रह्मा सूक्त
    103

    विश्व॑म॒न्याम॑भी॒वार॒ तद॒न्यस्या॒मधि॑ श्रि॒तम्। दि॒वे च॑ वि॒श्ववे॑दसे पृथि॒व्यै चा॑करं॒ नमः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्व॑म । अ॒न्याम् । अ॒भि॒ऽवार॑ । तत् । अ॒न्यस्या॑म् । अधि॑ । श्रि॒तम् । दि॒वे । च॒ । वि॒श्वऽवे॑दसे । पृ॒थि॒व्यै । च॒ । अ॒क॒र॒म् । नम॑: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वमन्यामभीवार तदन्यस्यामधि श्रितम्। दिवे च विश्ववेदसे पृथिव्यै चाकरं नमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वम । अन्याम् । अभिऽवार । तत् । अन्यस्याम् । अधि । श्रितम् । दिवे । च । विश्वऽवेदसे । पृथिव्यै । च । अकरम् । नम: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (विश्वम्) उस सर्वव्यापक [रस] ने (अन्याम्) एक [सूर्य्य वा भूमि] को (अभि) चारों ओर से [वार=ववार] घेर लिया, (तत्) वही [रस] (अन्यस्याम्) दूसरी में (अधिश्रितम्) आश्रित हुआ। (च) और (दिवे) सूर्यरूप वा आकाशरूप (च) और (पृथिव्यै) पृथिवीरूप (विश्ववेदसे) सबके जाननेवाले [वा सब धनों के रखनेवाले, वा सबमें विद्यमान ब्रह्म] को (नमः) नमस्कार (अकरम्) मैंने किया है ॥४॥

    भावार्थ

    सृष्टि का कारण रस अर्थात् जल, सूर्य की किरणों से आकाश में जाकर फिर पृथिवी में प्रविष्ट होता, वही फिर पृथिवी से आकाश में जाता और पृथिवी पर आता है। इस प्रकार उन दोनों का परस्पर आकर्षण, जगत् को उपकारी होता है। विद्वान् लोग इसी प्रकार जगदीश्वर की अनन्त शक्तियों को विचार कर सत्कारपूर्वक उपकार लेकर आनन्द भोगते हैं ॥४॥ यजुर्वेद म० ३। अ० ५। में इस प्रकार वर्णन है- भूर्भुवः॒ स्वर्द्यौरि॑व भू॒म्ना पृ॑थि॒वीव वरि॒म्णा ॥ सबका आधार, सबमें व्यापक, सुखस्वरूप परमेश्वर बहुत्व के कारण [सब लोकों के धारण करने से] आकाश के समान और अपने फैलाव से पृथिवी के समान है ॥

    टिप्पणी

    ४−विश्वम्। १।१०।२। सर्वं व्याप्तं आर्द्रम्। म० ३। अन्याम्। एकाम् द्यां भूमिं वा। अभि वार। वृञ् वरणे−लिट्। वकारलोपश्छान्दसः। सर्वतो ववार, आच्छादितं चकार। तत्। आर्द्रम्। अन्यस्याम्। अपरस्याम्। अधि+श्रितम्। आश्रितम्। दिवे। १।३०।३। आकाशाय। तद्रूपाय। विश्व-वेदसे। विद्लृ लाभे, वा विद् ज्ञाने सत्तायां च−असुन्। सर्वधन−युक्तायै, सर्वाधारभूतायै। पृथिव्यै। १।२।१। विस्तीर्णायै भूम्यै, तद्रूपाय परमेश्वराय। अकरम्। डुकृञ् करणे−लुङ्। अहं कृतवानस्मि ॥

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    विषय

    परस्पर सम्बद्धता

    पदार्थ

    १. (विश्वम्) = [सर्व विशति यस्मिन्] यह व्यापक आकाश (अन्याम्) = दूसरी-अपने से विलक्षण इस पृथिवी को (अभीवार) = चारों ओर से घेरे हुए है। वस्तुत: आकाश के एक देश में ही पृथिवी स्थित है, परन्तु (तत्) = वह आकाश (अन्यस्याम्) = अपने से भिन्न इस पृथिवी में (अधिश्रितम्) = आश्रित है। पृथिवीस्थ जल ही वाष्पीभूत होकर आकाश में पहुँचता है और आकाश को वर्षण के योग्य बनाता है। २. इसप्रकार परस्पर सम्बद्ध (दिवे च पृथिव्यै) = धुलोक और पृथिवीलोक के लिए जो (विश्ववेदसे) = सब आवश्यक ओषधियों, वनस्पतियों व अन्य धनों को प्राप्त करानेवाले हैं (नमः अकरम्) = मैं आदर की भावना धारण करता हूँ। इनमें मुझे प्रभु की महिमा दीखती है और मैं नतमस्तक हो जाता हैं।

    भावार्थ

    प्रभु ने द्यावापृथिवी को परस्पर सम्बद्ध बनाकर इन्हें सब ओषधियों का जन्मदाता बना दिया है। प्रभु की यह महिमा हमें उसके प्रति नतमस्तक करनेवाली है।

    विशेष

    विशेष-इस सूक्त में धुलोक की महिमा का वर्णन करके उस महिमा के आधारभूत प्रभु की महिमा का वर्णन हुआ है। ये धुलोक व पृथिवीलोक जिस वृष्टि की व्यवस्था करते हैं उस वृष्टि से प्राप्त जल का महत्त्वपूर्ण वर्णन अगले सूक्त में है। इन जलों से सब प्रकार की शान्ति का विस्तार करनेवाला 'शन्ताति' ही इस सूक्त का ऋषि है। यह प्रार्थना करता है -

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    भाषार्थ

    (विश्वम्) समस्त ब्रह्माण्ड ने (अन्याम् ) इस प्रकृति को (अभीवार) सब ओर से घेरा हुआ है। (तद्) वह ब्रह्माण्ड (अन्यस्याम) तद्भिन्न प्रकृति में (अधि श्रितम्) आश्रित है। (विश्ववेदसे) विश्व के वेत्ता (दिवे च) और द्योतमान, (पृथिव्यै च) और पृथिवी के सदृश प्रथित और आधारभूत ब्रह्म के लिए (नमः) नमस्कार (अकरम् ) मैंने किया है, या मैं करता हूँ।

    टिप्पणी

    [सूक्त में महद्-ब्रह्म का वर्णन प्रतिज्ञात हुआ है ( मन्त्र १ ) । अतः उसकी विभूति का वर्णन मन्त्र में हुआ है, उस महद्-ब्रह्म को नमस्कार किया है। "विश्ववेदसे" द्वारा महद्-ब्रह्म को विश्ववेत्ता कहा है। अतः मन्त्र के प्रथमपाद में पठित "विश्वम्" पद ब्रह्माण्डवाची प्रतीत होता है। मन्त्र से यह अतिस्पष्ट है कि सूक्त में उदक का वर्णन नहीं, अपितु आधारभूत ब्रह्म का ही वर्णन है। अधिक स्पष्टता के लिए मन्त्र में ब्रह्माण्ड, प्रकृति और महद्-ब्रह्म का परस्पर सम्बन्ध दर्शाया है। महद्-ब्रह्म ब्रह्माण्ड का रचयिता और प्रकृति का अधिष्ठाता है, नियन्ता है। ]

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    विषय

    ब्रह्म का विवेचन।

    भावार्थ

    ( विश्वं ) समस्त विश्व को ( अभिवारं ) सब ओर से आच्छादन करने वाली ( अन्यां ) उससे अतिरिक्त प्रकृति को हम लोग जानते हैं। (तत्) और वह अतिरिक्त सत्ता भी ( अन्यस्यां ) इससे भी अतिरिक्त ब्रह्मशक्ति में (अधिश्रितम्) आश्रित है। मैं ( विश्ववेदसे ) उस समस्त पदार्थों या ब्रह्माण्ड को जानने हारी ( दिवे च ) प्रकाशमान (च) और ( पृथिव्यै ) विस्तृत तथा सर्वाश्रय ब्रह्मशक्ति को ( नमः ) नमस्कार (अकरम् ) करता हूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मऋषिः । द्यावापृथिवी देवते । ब्रह्मसूक्तम् । १, ३, ४ अनुष्टुप् छन्दः । २ ककुम्मती । चतुऋचं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma: Life-Universal

    Meaning

    I know the universal presiding presence all pervasive in the other, its power and vitality, immanent in Prakrti and transcending it. I offer homage and obeisance to heaven, to earth and to lord omniscient and presiding power of the universe.

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    Translation

    All this has surrounded the one of them and all that is resting in the other. I pay my homage to heaven, the knower of all and to the earth, the bestower of all the riches.

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    Translation

    We know other one, the matter which surrounds all the world and he, the Almighty divinity pervades in it, is its support. We offer our words of appreciation to soul which comes in world and our prayer to Prithivi, the grand Lord of the universe.

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    Translation

    We know matter as the encompasser of the universe. Matter itself depends on another Power, known as God. I pay my adoration to the All Knowing, Refulgent, Diffused God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−विश्वम्। १।१०।२। सर्वं व्याप्तं आर्द्रम्। म० ३। अन्याम्। एकाम् द्यां भूमिं वा। अभि वार। वृञ् वरणे−लिट्। वकारलोपश्छान्दसः। सर्वतो ववार, आच्छादितं चकार। तत्। आर्द्रम्। अन्यस्याम्। अपरस्याम्। अधि+श्रितम्। आश्रितम्। दिवे। १।३०।३। आकाशाय। तद्रूपाय। विश्व-वेदसे। विद्लृ लाभे, वा विद् ज्ञाने सत्तायां च−असुन्। सर्वधन−युक्तायै, सर्वाधारभूतायै। पृथिव्यै। १।२।१। विस्तीर्णायै भूम्यै, तद्रूपाय परमेश्वराय। अकरम्। डुकृञ् करणे−लुङ्। अहं कृतवानस्मि ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (বিশ্বং) সেই সর্বব্যাপক রস (অন্যাম্) এক সূর্যকে (অভি) চতুর্দিক হইতে (বার) ঘিরিয়া রাখিয়াছে। (তৎ) সেই রস (অন্যস্যাং) দ্বিতীয়টীতে (অধিশ্রিতং) অধিষ্ঠিত রহিয়াছে (চ) এবং (দিবে) আকাশ তুল্য ব্যাপক (চ) এবং (পৃথিব্যৈ) পৃথিবী তুল্য বিস্তৃত (বিশ্ববেদসে) সর্বজ্ঞ ব্রহ্মকে (নমঃ) নমস্কার।।

    भावार्थ

    যে সর্বব্যাপক রস এক সূর্যকে চারিদিক হইতে ঘিরিয়া রহিয়াছে সেই রসই সূর্য ভিন্ন দ্বিতীয় স্থানেও অধিষ্ঠিত রহিয়াছে। আকাশ তুল্য ব্যাপক ও পৃথিবী তুল্য বিস্তৃত সর্বজ্ঞ ব্রহ্মকে নমস্কার।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    বিশ্বমন্যামভীবার তদন্যস্যামধি শ্রিতম্। দিবে চ বিম্ববেদসে পৃথিব্যৈ চাকরং নমঃ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ব্ৰহ্মা। দ্যাব্যাপৃথিবী। অনুষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (ব্রহ্মবিচারোপদেশঃ) ব্রহ্মবিচারের উপদেশ

    भाषार्थ

    (বিশ্বম্) সেই সর্বব্যাপক [রস] (অন্যাম্) এক [সূর্য বা ভূমিকে] (অভি) সর্বতোভাবে [বরাবর] আবৃত করেছে, (তৎ) সেই [রস] (অন্যস্যাম্) অন্যের মধ্যে (অধিশ্রিতম্) আশ্রিত হয়েছে। (চ) এবং (দিবে) সূর্যরূপ বা আকাশরূপ (চ) এবং (পৃথিব্যৈ) পৃথিবীরূপ (বিশ্ববেদসে) সকলের জ্ঞাতা [বা সকল ধন ধারণকারী বা সকলের মধ্যে বিদ্যমান ব্রহ্মকে] (নমঃ) নমস্কার (অকরম্) আমি করেছি॥৪॥

    भावार्थ

    সৃষ্টির কারণ রস অর্থাৎ জল, সূর্যের কিরণ দ্বারা আকাশে গমন করে আবার পৃথিবীতে প্রবিষ্ট হয়। তা আবার পৃথিবী থেকে আকাশে গমন করে এবং পৃথিবীতে আগমন করে। এভাবে সেই উভয়ের পরস্পর আকর্ষণ জগতের জন্য উপকারী হয়। বিদ্বানগণ এভাবে জগদীশ্বরের অনন্ত শক্তিসমূহ বিচার করে সৎকারপূর্বক উপকার গ্রহণের মাধ্যমে আনন্দ ভোগ করে/করুক ॥৪॥ যজুর্বেদ ম০ ৩। অ০ ৫। মন্ত্রে এই প্রকার বর্ণনা রয়েছে- ভূর্ভুবঃ॒ স্বর্দ্যৌরি॑ব ভূ॒ম্না পৃ॑থি॒বীব বরি॒ম্ণা ॥ সর্বাধার, সর্বব্যাপক, সুখস্বরূপ পরমেশ্বর বহুত্বের কারণে [সব লোকের ধারণ করার কারণে] আকাশের ন্যায় এবং নিজের বিস্তার দ্বারা পৃথিবীর ন্যায় ॥

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    भाषार्थ

    (বিশ্বম্) সমস্ত ব্রহ্মাণ্ড (অন্যাম্) এই প্রকৃতিকে (অভীবার) সব দিক থেকে ঘিরে রয়েছে। (তদ্) সেই ব্রহ্মাণ্ড (অন্যস্য) তদ্ভিন্ন প্রকৃতিতে (অধি শ্রিতম্) আশ্রিত । (বিশ্ববেদসে) বিশ্বের জ্ঞাতা (দিবে চ) এবং দ্যোতমান, (পৃথিব্যৈ চ) এবং পৃথিবীর সদৃশ প্রসিদ্ধ/বিস্তৃত এবং আধারভূত ব্রহ্মের প্রতি (নমঃ) নমস্কার (অকরম্) আমি করেছি/করি।

    टिप्पणी

    [সূক্তে মহদ্-ব্রহ্ম এর বর্ণন প্রতিজ্ঞাত হয়েছে (মন্ত্র ১)। অতএব উনার বিভূতির বর্ণনা মন্ত্রে হয়েছে, সেই মহদ্-ব্রহ্মকে নমস্কার করা হয়েছে। "বিশ্ববেদসে" দ্বারা মহদ্-ব্রহ্মকে বিশ্ববেত্তা বলা হয়েছে। অতঃ মন্ত্রের প্রথমপাদে পঠিত "বিশ্বম্" পদ ব্রহ্মাণ্ডবাচী প্রতীত হয়। মন্ত্র থেকে এটা অতিস্পষ্ট যে, সূক্তে উদক/জল এর বর্ণনা নেই, বরং আধারভূত ব্রহ্ম-এর বর্ণনা হয়েছে। অধিক স্পষ্টতার জন্য মন্ত্রে ব্রহ্মাণ্ড, প্রকৃতি এবং মহদ্-ব্রহ্ম-এর পরস্পর সম্পর্ক দর্শানো হয়েছে। মহদ্-ব্রহ্ম ব্রহ্মাণ্ড এর রচয়িতা এবং প্রকৃতির অধিষ্ঠাতা, নিয়ন্তা।]

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