अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आर्ची बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
50
यद॑स्य॒दक्षि॑ण॒मक्ष्य॒सौ स आ॑दि॒त्यो यद॑स्य स॒व्यमक्ष्य॒सौ स च॒न्द्रमाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒स्य॒ । दक्षि॑णम् । अक्षि॑ । अ॒सौ । स: । आ॒दि॒त्य: । यत् । अ॒स्य॒ । स॒व्यम् । अक्षि॑ । अ॒सौ । स: । च॒न्द्रमा॑: ॥१८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यदस्यदक्षिणमक्ष्यसौ स आदित्यो यदस्य सव्यमक्ष्यसौ स चन्द्रमाः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अस्य । दक्षिणम् । अक्षि । असौ । स: । आदित्य: । यत् । अस्य । सव्यम् । अक्षि । असौ । स: । चन्द्रमा: ॥१८.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
व्रात्य के सामर्थ्य का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जो (अस्य) इस [व्रात्य] की (दक्षिणम्) दाहिनी (अक्षि) आँख है, (सः) सो (असौ) वह (आदित्यः)चमकता हुआ सूर्य है, और (यत्) जो (अस्य) इस की (सव्यम्) बायीं (अक्षि) आँख है, (सः) सो (असौ) वह (चन्द्रमाः) आनन्दप्रद चन्द्रमा है ॥२॥
भावार्थ
आप्त संन्यासी पूर्णदृष्टि से सब मर्यादाओं को जाँचकर अपनी विद्या से सूर्य चन्द्रमा के समान उपकारकरता है ॥१, २॥
टिप्पणी
१, २−(यत्) (अस्य) (दक्षिणम्) अवामम् (अक्षि) नेत्रम् (असौ) (सः) प्रसिद्धः (आदित्यः) आदीप्यमानःसूर्यः (सव्यम्) वामम् (चन्द्रमाः) आह्लादकश्चन्द्रलोकः। अन्यत् पूर्ववत् सुगमंच ॥
विषय
व्रात्याय नमः
पदार्थ
१. (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य की-अमृतत्व को प्राप्त करनेवाले तथा प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले व्रात्य की (यत् अस्य दक्षिणम् अक्षि) = जो इसकी दाहिनी आँख है (असौ स आदित्यः) = वही आदित्य है। (यत् अस्य सव्य अक्षि) = जो इसकी बायौं आँख है (असौ स चन्द्रमा:) = वही चन्द्रमा है। दाहिनी आँख ज्ञान का आदान करनेवाली है तो बायीं आँख सबको चन्द्र-शीतल ज्योत्स्ना की भाँति प्रेम से देखनेवाली है। (यः) = जो (अस्य दक्षिण: कर्ण:) = इसका दाहिना कान है (अयं स:) = वह ये (अग्नि:) = अग्नि है, (यः अस्य सव्यः कर्ण:) = जो इसका बायौँ कान है, (अयं सः) = वह यह (पवमानः) = पवमान है। दाहिने कान से यह अग्रगति [उन्नति] की बातों को सुनता है तो बाएँ कान से उन्हीं ज्ञानचर्चाओं को सुनता है जो उसे पवित्र बनानेवाली हैं। २. इसके (अहोरात्रे नासिके) = नासिका-छिद्र अहोरात्र हैं। दाहिना छिद्र अहन् है तो बायाँ रात्रि। दाहिना सूर्यस्वरवाला [दिन] है तो बायाँ चन्द्रस्वरवाला [रात] है। दाहिना प्राणशक्ति का संचार करता है तथा बायाँ अपान के द्वारा दोषों को दूर करता है। इसी दृष्टि से यह दिन-रात प्राणसाधना का ध्यान करता है। इस व्रात्य के (दितिः च अदितिः च शीर्षकपाले) = दिति और अदिति सिर के दो कपाल हैं [Cerebrum, cerebelium] प्रकृति विद्या ही दिति है, आत्मविद्या अदिति । यह विविध प्रकार का ज्ञान प्राप्त करता है। संवत्सरं शिर:-इसका संवत्सर ही सिर है। सम्पूर्ण वर्ष उसी ज्ञान को प्राप्त करने का यह प्रयत्न करता है, जोकि उसके निवास को उत्तम बनाने के लिए आवश्यक है। ३. इस प्रकार अपने जीवन को बनाकर वह व्रात्यः-व्रतमय जीवनवाला पुरुष अह्नः-दिनभर के कार्यों को करने के द्वारा दिन की समाप्ति पर (प्रत्यङ्) = अपने अन्दर आत्मतत्त्व को देखने का प्रयत्न करता है और रात्र्या सम्पूर्ण रात्रि के द्वारा अपने जीवन में शक्ति का संचार करके प्राङ् [प्र अञ्च] अपने कर्तव्य-कर्मों में आगे बढ़ता है। (व्रात्याय नम:) = इस व्रात्य के लिए हम नमस्कार करते हैं।
भावार्थ
व्रतमय जीवनवाले पुरुष की दाहिनी आँख ज्ञान का आदान करती है तो बायीं आँख सबको प्रेम से देखती है। इसका दाहिना कान अग्रगति की बातों को सुनता है तो बायाँ कान पवित्रता की। इसके नासिका-छिद्र दिन-रात दीर्घश्वास लेनेवाले होते हैं। यह प्रकृतिविद्या व आत्मविद्या को प्राप्त करता है। कालज्ञ बनता है-सब कार्यों को ठीक स्थान व ठीक समय पर करता है। दिनभर के कार्य के पश्चात् आत्मचिन्तन करता है और रात्रि विश्राम के बाद कर्तव्यों में प्रवृत्त होता है। यह व्रात्य नमस्करणीय है।
भाषार्थ
(अस्य) इस परमेश्वर की (यद्) जो (दक्षिणम्, अक्षि) दायीं आंख है (सः) वह है (असौ) वह दूरस्थ (आदित्यः) सूर्य, और (अस्य) इस परमेश्वर की (यद्) जो (सव्यम्) बायीं (अक्षि) आंख है (सः) वह (चन्द्रमाः) चांद है।
टिप्पणी
["यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः" (अथर्व० १०।७।३३)।आदित्य शक्ति प्रदाता है, और चन्द्रमा शक्तिग्रहण करता है, आदित्य प्राण है, और चन्द्रमा रयि है (प्रश्न० उप० १। ख० ४)। इसलिये दक्षिण आंख आदित्य है, और सव्य आंख चन्द्रमा है। शरीर में दायां भाग अधिक शक्तिमान् होता है और बायां कम शक्तिमान्। सम्भवतः इस दृष्टि से दायीं आंख को आदित्य और बायीं को चन्द्रमा कहा हो। वेदों में जगत् को, परमेश्वर के शरीररूप में, वर्णित किया है। यह अवगत कराने के लिए कि जैसे अस्मदादि शरीरों में आत्मा, ज्ञान, इच्छा, कृति आदि शरीरों को सक्रिय कर रहे हैं, वैसे समष्टि जगत् में भी एक महती आत्मा और उस के ज्ञानादि, जगत् को सक्रिय कर रहे हैं। परमेश्वर तो वस्तुतः अशरीरी है, "अकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्" (यजु० ४०।८) है।
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
The right eye is Sun, the left is Moon.
Translation
What is his right eye, that is the sun; what is his left eye, that is the moon.
Translation
That which is the right eye is the sun and which is the left eve is the Moon.
Translation
The right eye is the lustrous Sun and the left eye is the pleasant Moon.
Footnote
The learned Sanyasi who comes as a guest, examining all things in their true aspect serves mankind like the Sun and Moon.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१, २−(यत्) (अस्य) (दक्षिणम्) अवामम् (अक्षि) नेत्रम् (असौ) (सः) प्रसिद्धः (आदित्यः) आदीप्यमानःसूर्यः (सव्यम्) वामम् (चन्द्रमाः) आह्लादकश्चन्द्रलोकः। अन्यत् पूर्ववत् सुगमंच ॥
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