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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    46

    योऽस्य॒दक्षि॑णः॒ कर्णो॒ऽयं सो अ॒ग्निर्योऽस्य॑ स॒व्यः कर्णो॒ऽयं स पव॑मानः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒स्य॒ । दक्षि॑ण: । कर्ण॑: । अ॒यम् । स: । अ॒ग्नि: । य: । अ॒स्य॒ । स॒व्य: । कर्ण॑: । अ॒यम् । स: । पव॑मान: ॥१८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योऽस्यदक्षिणः कर्णोऽयं सो अग्निर्योऽस्य सव्यः कर्णोऽयं स पवमानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अस्य । दक्षिण: । कर्ण: । अयम् । स: । अग्नि: । य: । अस्य । सव्य: । कर्ण: । अयम् । स: । पवमान: ॥१८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    व्रात्य के सामर्थ्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (अस्य) इस [व्रात्य] का (दक्षिणः) दाहिना (कर्णः) कान है, (सः) सो (अयम्) यह (अग्निः)व्यापक अग्नि है, (यः) जो (अस्य) इस का (सव्यः) बायाँ (कर्णः) कान है, (सः) सो (अयम्) यह (पवमानः) शोधक वायु है ॥३॥

    भावार्थ

    विद्वान् अतिथि अपनेस्वस्थ सचेत कानों द्वारा विद्याओं का श्रवण करके अग्निसमान व्यापक और पवन केसमान दोषनाशक होकर संसार में सुख बढ़ाता है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यः) (अस्य) व्रात्यस्य (दक्षिणः) अवामः (कर्णः) श्रोत्रम् (अयम्) (सः) (अग्निः) व्यापकोऽग्निः (सव्यः)वामः (पवमानः) दोषशोधको वायुः। अन्यद् गतं स्पष्टं च ॥

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    विषय

    व्रात्याय नमः

    पदार्थ

    १. (तस्य व्रात्यस्य) = उस व्रात्य की-अमृतत्व को प्राप्त करनेवाले तथा प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले व्रात्य की (यत् अस्य दक्षिणम् अक्षि) = जो इसकी दाहिनी आँख है (असौ स आदित्यः) = वही आदित्य है। (यत् अस्य सव्य अक्षि) = जो इसकी बायौं आँख है (असौ स चन्द्रमा:) = वही चन्द्रमा है। दाहिनी आँख ज्ञान का आदान करनेवाली है तो बायीं आँख सबको चन्द्र-शीतल ज्योत्स्ना की भाँति प्रेम से देखनेवाली है। (यः) = जो (अस्य दक्षिण: कर्ण:) = इसका दाहिना कान है (अयं स:) = वह ये (अग्नि:) = अग्नि है, (यः अस्य सव्यः कर्ण:) = जो इसका बायौँ कान है, (अयं सः) = वह यह (पवमानः) = पवमान है। दाहिने कान से यह अग्रगति [उन्नति] की बातों को सुनता है तो बाएँ कान से उन्हीं ज्ञानचर्चाओं को सुनता है जो उसे पवित्र बनानेवाली हैं। २. इसके (अहोरात्रे नासिके) = नासिका-छिद्र अहोरात्र हैं। दाहिना छिद्र अहन् है तो बायाँ रात्रि। दाहिना सूर्यस्वरवाला [दिन] है तो बायाँ चन्द्रस्वरवाला [रात] है। दाहिना प्राणशक्ति का संचार करता है तथा बायाँ अपान के द्वारा दोषों को दूर करता है। इसी दृष्टि से यह दिन-रात प्राणसाधना का ध्यान करता है। इस व्रात्य के (दितिः च अदितिः च शीर्षकपाले) = दिति और अदिति सिर के दो कपाल हैं [Cerebrum, cerebelium] प्रकृति विद्या ही दिति है, आत्मविद्या अदिति । यह विविध प्रकार का ज्ञान प्राप्त करता है। संवत्सरं शिर:-इसका संवत्सर ही सिर है। सम्पूर्ण वर्ष उसी ज्ञान को प्राप्त करने का यह प्रयत्न करता है, जोकि उसके निवास को उत्तम बनाने के लिए आवश्यक है। ३. इस प्रकार अपने जीवन को बनाकर वह व्रात्यः-व्रतमय जीवनवाला पुरुष अह्नः-दिनभर के कार्यों को करने के द्वारा दिन की समाप्ति पर (प्रत्यङ्) = अपने अन्दर आत्मतत्त्व को देखने का प्रयत्न करता है और रात्र्या सम्पूर्ण रात्रि के द्वारा अपने जीवन में शक्ति का संचार करके प्राङ् [प्र अञ्च] अपने कर्तव्य-कर्मों में आगे बढ़ता है। (व्रात्याय नम:) = इस व्रात्य के लिए हम नमस्कार करते हैं।

    भावार्थ

    व्रतमय जीवनवाले पुरुष की दाहिनी आँख ज्ञान का आदान करती है तो बायीं आँख सबको प्रेम से देखती है। इसका दाहिना कान अग्रगति की बातों को सुनता है तो बायाँ कान पवित्रता की। इसके नासिका-छिद्र दिन-रात दीर्घश्वास लेनेवाले होते हैं। यह प्रकृतिविद्या व आत्मविद्या को प्राप्त करता है। कालज्ञ बनता है-सब कार्यों को ठीक स्थान व ठीक समय पर करता है। दिनभर के कार्य के पश्चात् आत्मचिन्तन करता है और रात्रि विश्राम के बाद कर्तव्यों में प्रवृत्त होता है। यह व्रात्य नमस्करणीय है।

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    भाषार्थ

    (अस्य) इस परमेश्वर का (यः) जो (अयम्) यह (दक्षिणः) दायां (कर्णः) कान है, (सः) वह है (अग्निः) अग्नि। (अस्य) इस परमेश्वर का (यः) जो (अयम्) यह (सव्यः) बायां (कर्णः) कान है, (सः) वह है (पवमानः) वायु।

    टिप्पणी

    [दाहिने कान को अधिक शक्ति शाली माना प्रतीत होता है, इस लिये इसे अग्नि कहा है, और बाएं कान को कम शक्ति वाला माना है, इसलिये इसे पवमान कहा है। "जातकर्मसंस्कार" में भी दाहिने कान में "वेदोऽसि" हे शिशु !तू वेद है, ऐसे कथन का विधान है (संस्कार विधि, महर्षि दयानन्द)। कान का सम्बन्ध शब्द श्रवण के साथ है। पवमान अर्थात् वायु शब्द का माध्यम है। अत: कान को पवमान कहना भी उचित प्रतीत होता है। कान का सम्बन्ध अग्नि के भी साथ है, यह अनुसन्धान के योग्य है। इतना तो समम्क में आ सकता है कि वायु जो वायुरूप में है, वह सौराग्नि के ताप के कारण है, अन्यथा यह भी अतिशैत्य के कारण द्रवरूप हो जाती, और अन्तरिक्ष, वायु से शून्य हो जाता, और शब्द सुनाई न देता। इसलिये सम्भवतः अग्नि का दक्षिण कर्ण के साथ, तथा पवमान (वायु) का सव्यकर्ण के साथ सम्बन्ध, मन्त्र में दर्शाया हो।]

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    विषय

    व्रात्य के अन्य अङ्ग प्रत्यङ्ग।

    भावार्थ

    (यः अस्य दक्षिणः कर्णः) जो जीव का यह दायां कान है उसी प्रकार इस व्रात्य प्रजापति का दायां कान (अयं सः अग्निः) यह वह अग्नि है। (यः अस्य सव्यः कर्णः) जो इस जीव का बायां कान है वैसे ही उस व्रात्य का बायां कान (सः पवमानः) यह पवमान=वायु है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ दैवी पंक्तिः, २, ३ आर्ची बृहत्यौ, ४ आर्ची अनुष्टुप् ५ साम्न्युष्णिक्। पञ्चर्चं अष्टादशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    The right ear is Agni, the left is the Wind.

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    Translation

    What is his right ear, that is this fire; what is his left ear, that is this purifying wind (or the Soma)..

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    Translation

    That which is his right ear, is Agni, the fire and that which is his left ear is Pavamana, the air.

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    Translation

    His right ear is fire and his left ear is purifying air.

    Footnote

    He listens to noble teachings of the sages, and benefits humanity thereby like fire and air.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यः) (अस्य) व्रात्यस्य (दक्षिणः) अवामः (कर्णः) श्रोत्रम् (अयम्) (सः) (अग्निः) व्यापकोऽग्निः (सव्यः)वामः (पवमानः) दोषशोधको वायुः। अन्यद् गतं स्पष्टं च ॥

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