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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - साम्नी पङ्क्ति,पदपङ्क्ति,त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    51

    अ॑मावा॒स्या चपौर्णमा॒सी च॑ परिष्क॒न्दौ मनो॑ विप॒थम्। मा॑त॒रिश्वा॑ च॒ पव॑मानश्च विपथवा॒हौवा॒तः सार॑थी रे॒ष्मा प्र॑तो॒दः। की॒र्तिश्च॒ यश॑श्च पुरःस॒रावैनं॑की॒र्तिर्ग॑च्छ॒त्या यशो॑ गच्छति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मा॒ऽवा॒स्या᳡ । च॒ । पौ॒र्ण॒ऽमा॒सी । च॒ । प॒रि॒ऽस्क॒न्दौ । मन॑: । वि॒ऽप॒थम् । मा॒त॒रिश्वा॑ । च॒ । पव॑मान: । च॒ । वि॒प॒थ॒ऽवा॒हौ । वात॑: । सार॑थि: । रे॒ष्मा । प्र॒ऽतो॒द: । की॒र्ति: । च॒ । यश॑: । च॒ । पु॒र॒:ऽस॒रौ । आ । ए॒न॒म् । की॒र्ति: । ग॒च्छ॒ति॒ । आ । यश॑: । ग॒च्छ॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ।॥२.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमावास्या चपौर्णमासी च परिष्कन्दौ मनो विपथम्। मातरिश्वा च पवमानश्च विपथवाहौवातः सारथी रेष्मा प्रतोदः। कीर्तिश्च यशश्च पुरःसरावैनंकीर्तिर्गच्छत्या यशो गच्छति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमाऽवास्या । च । पौर्णऽमासी । च । परिऽस्कन्दौ । मन: । विऽपथम् । मातरिश्वा । च । पवमान: । च । विपथऽवाहौ । वात: । सारथि: । रेष्मा । प्रऽतोद: । कीर्ति: । च । यश: । च । पुर:ऽसरौ । आ । एनम् । कीर्ति: । गच्छति । आ । यश: । गच्छति । य: । एवम् । वेद ।॥२.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (अमावास्या) अमावस [कृष्णपक्ष की अन्तिम तिथि, अर्थात् अन्धकार वा अविद्या] (च च) और भी (पूर्णमासी) पूर्णमासी [शुक्लपक्ष की अन्तिम तिथि, अर्थात् प्रकाश वा विद्या] (परिष्कन्दौ) [सब ओर चलनेवाले] दो सेवक [समान] (मनः) मन.... [म० ६, ७, ८] ॥१–४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परमात्मा केज्ञान के साथ अविद्या के त्याग और विद्या की प्राप्ति से योग्य पदार्थों केउपकार और अयोग्यों के अपकार को जानकर अपना कर्तव्य करता है, वह संसार मेंकीर्तिमान् और यशस्वी होता है ॥१२-१–४॥

    टिप्पणी

    १–४−(अमावास्या) अमा सह चन्द्रार्कौ वसतोयत्र तिथौ सा, अमा+वस निवासे-आधारे ण्यत्, टाप्। कृष्णपक्षशेषतिथिः अन्धकारः।अविद्या (पौर्णमासी) पूर्णो मासश्चन्द्रौ वर्तते यस्यां तिथौ सा। पूर्णमासादण्।वा० पा० ४।२।३५। पूर्णमास-अण्। शुक्लपक्षान्तिमतिथिः प्रकाशः। विद्या। अन्यत्पूर्ववत्-म० ६ ॥

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    विषय

    उषा, अमावास्या, पौर्णमासी

    पदार्थ

    १. दक्षिण दिशा में-नैपुण्य की दिशा में गतिवाले इस विद्वान् व्रात्य की (उषा:) = उषा (पुंश्चली) = नारी के समान होती है, इसे कर्मों में प्रेरित करती है। यह उषा में ही उठकर कर्तव्य कर्मों का प्रारम्भ करता है। (मन्त्र: मागध:) = वेदमन्त्र इसके स्तुति-पाठक होते हैं। यह मन्त्रों द्वारा प्रभु-स्तवन करता है। शेष मन्त्र पञ्चमवत्। २. (अमावास्या च पौर्णमासी च परिष्कन्दौ) = अमावास्या और पौर्णमासी इसके सेवक होते हैं। अमावास्या से यह अपने जीवन में सूर्य-चन्द्र के समन्वय का पाठ पढ़ता है। मस्तिष्क में ज्ञानसूर्य को तथा हृदय में मन:प्रसादरूप चन्द्र को उदित करने का प्रयत्न करता है तथा पौर्णमासी से जीवन को पूर्ण चन्द्र की भाँति सोलह कला सम्पूर्ण बनाने के लिए यत्नशील होता है। शेष मन्त्र षष्टवत्।

    भावार्थ

    यह विद्वान् व्रात्य आगे बढ़ता हुआ, नैपुण्य को प्राप्त करता हुआ, ऐश्वर्यसम्पन्न होकर भी उषाकाल में प्रबुद्ध होकर मन्त्रों द्वारा प्रभु-स्तवन करता है। अपने जीवन में ज्ञान व मन:प्रसाद का समन्वय करता है और जीवन को पूर्ण व चन्द्र की भाँति सोलह कला सम्पन्न बनाता है।

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    भाषार्थ

    (आमावास्या च) अमावास्या (पौर्णमासी च) और पौर्णमासी (परिष्कन्दौ) चारों ओर से रक्षक होते हैं, (मनो विपथम्) मन विविध-पथगामी रथ होता है, -शेष पूर्ववत् (मन्त्र ७, ८)

    टिप्पणी

    [अमावास्या और पौर्णमासी दोनों का सम्बन्ध दक्षिण दिशा के साथ दर्शाया है। ये दोनों दक्षिण दिशा में इकट्ठे नहीं हो सकते। यदि दक्षिण दिशा में अमावास्या होंगी तो उत्तर दिशा में पौर्णमासी, और यदि दक्षिण दिशा में पौर्णमासी होगी तो उत्तर दिशा में अमावास्या होगी। अमावास्या और पौर्णमासी परस्पर छः राशियों के या १८० डिग्री के अन्तर पर स्थित होती हैं। इसलिये यहां अमावास्येष्टि अर्थात् दर्शेष्टि और पौर्णमास्येष्टि का अभिप्राय सम्भव है। सूक्त २, मन्त्र १०,११,१२ में, यज्ञ और यजमान का वर्णन है, जो कि अमावास्येष्टि तथा पौर्णमास्येष्टि के साथ सुसङ्गत प्रतीत होता है।]

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    विषय

    व्रत्य प्रजापति का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः एवं विद्वासं व्रात्यम् उपददति) जो ऐसे विद्वान् ब्रात्य की निन्दा करता है (यज्ञायज्ञियाय, च, वै सः वामदेव्याय च यज्ञाय च, यजमानाय च पशुभ्यः च प्रावृश्चते) वह यज्ञायज्ञिय, वामदेव्य, यज्ञ, यजमान, और पशुओं के प्रति अपराधी होता है। और (य एवं वेद) जो उस प्रकार व्रात्य प्रजापति का स्वरूप जान लेता है वह (यज्ञायज्ञियस्य च चै सः वामदेव्यस्य च यज्ञस्य च पशूनां च प्रियं धाम भवति) यज्ञायज्ञिय, वामदेव्य, यज्ञ, यजमान, और पशुओं का भी प्रियाश्रय हो जाता है। (दक्षिणायाम् दिशि तस्य) दक्षिण दिशा में उसकी (पुंश्चली उपाः) उषा, पुंश्चली, नारी के समान है। (मन्त्रः मागधः) वेद मन्त्र समूह उसके स्तुति पाठक के समान, (विज्ञानं वासः) विज्ञान उसके वस्त्र के समान, (श्रहः उष्णीपम् रात्री केशाः हरितौ प्रवत्तौ कल्मलिः मणिः) दिन पगड़ी, रात्रि केश, सूर्य चन्द्र दोनों कुण्डल और तारे गले में पड़ी मणियां हैं। १॥ १३॥ (श्रमवास्या च पौर्णमासी च परिष्कन्दौ मनो विपथम्) अमावस्या और पौर्णमासी दोनों हरकारे हैं। मन उसका रथ है। (मातरिश्वा च० इत्यादि) पूर्ववत् ऋचा सं० ७८ की व्याख्या देखो॥ १४॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Amavasya, the dark night, and Paurnamasi, the full moon night, his guards, the mind, his chariot, cosmic wind and pranic energy, his chariot horses, air, his charioteer, the whirlwind, the goad, honour and fame, the fore-running pilots. Honour and fame indeed receive and welcome him who knows this for truth and follows Vratya, lord creator and benefactor of his children.

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    Translation

    The night of no moon and the night of full moon (become) his two foot men, the wind his war-chariot; the atmospheric wind and the purified wind (become) his two chariot-horses, the gale his charioteer and the tempest his whip; glory and fame become His two fore-runners; to him comes the glory, (to him) comes the fame, who knows it thus.

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    Translation

    The New Moon light and the Full Moon light are like his attendents and mind chariot like above.

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    Translation

    New Moon Night and Full Moon Night are his running attendants, Mind is his war-chariot, In-breath and out-breath are the horses of his chariot, air is his charioteer, storm his goad. Fame and glory are his harbingers. Fame and glory Come to him who hath this knowledge of God.

    Footnote

    Both these nights guard him.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १–४−(अमावास्या) अमा सह चन्द्रार्कौ वसतोयत्र तिथौ सा, अमा+वस निवासे-आधारे ण्यत्, टाप्। कृष्णपक्षशेषतिथिः अन्धकारः।अविद्या (पौर्णमासी) पूर्णो मासश्चन्द्रौ वर्तते यस्यां तिथौ सा। पूर्णमासादण्।वा० पा० ४।२।३५। पूर्णमास-अण्। शुक्लपक्षान्तिमतिथिः प्रकाशः। विद्या। अन्यत्पूर्ववत्-म० ६ ॥

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