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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 24
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदा ब्राह्मी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    51

    श्यै॒तस्य॑ च॒ वैस नौ॑ध॒सस्य॑ च सप्तर्षी॒णां च॒ सोम॑स्य च॒ राज्ञः॑ प्रि॒यं धाम॑ भवति॒ तस्योदी॑च्यां दि॒शि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्यै॒तस्य॑ । च॒ । वै । स: । नौ॒ध॒सस्य॑ । च॒ । स॒प्त॒ऽऋ॒षी॒णाम् । च॒ । सोम॑स्य । च॒ । राज्ञ॑: । प्रि॒यम् । धाम॑ । भ॒व॒ति॒ । तस्य॑ । उदी॑च्याम् । दि॒शि ॥२.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्यैतस्य च वैस नौधसस्य च सप्तर्षीणां च सोमस्य च राज्ञः प्रियं धाम भवति तस्योदीच्यां दिशि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्यैतस्य । च । वै । स: । नौधसस्य । च । सप्तऽऋषीणाम् । च । सोमस्य । च । राज्ञ: । प्रियम् । धाम । भवति । तस्य । उदीच्याम् । दिशि ॥२.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 2; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [विद्वान्] (वै) निश्चय करके (श्यैतस्य) श्यैत [सद्गति बतानेवाले वेदज्ञान] का (च च) और भी (नौधसस्य) नौधस [ऋषियों के हितकारी मोक्षज्ञान] का (च) और (सप्तर्षीणाम्) सातऋषियों [छह इन्द्रियों और सातवीं बुद्धि-मन्त्र २२] का (च) और (राज्ञः)ऐश्वर्यवान् (सोमस्य) प्रेरक पुरुष का (प्रियम्) प्रिय (धाम) धाम [घर] (भवति)होता है। और (तस्य) उस [विद्वान्] के लिये (उदीच्याम्) बायीं [वा उत्तर] (दिशि)दिशा में ॥२४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परमात्मामें लवलीन होता है, वही वेदज्ञान और मोक्षज्ञान से जितेन्द्रिय और सर्वहितैषीहोकर संसार में सब पदार्थों से उपकार लेकर आनन्द पाता है ॥२४-२८॥

    टिप्पणी

    २४−(श्यैतस्य) म० २२।सद्गतिप्रतिपादकस्य वेदज्ञानस्य (नौधसस्य) ऋषीणां हितकरस्य मोक्षज्ञानस्य (सप्तर्षीणाम्) म० २२। सबुद्धिषडिन्द्रियाणाम् (सोमस्य) प्रेरकस्य मनुष्यस्य (राज्ञः) ऐश्वर्यवतः। अन्यद् गतम्-म० ४ ॥

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    विषय

    उदीची दिशा में 'श्यैत, नौधस, सप्तर्षि, सोम राजा'

    पदार्थ

    १. (स:) = वह व्रात्य (उदतिष्ठत्) = आलस्य छोड़कर उठ खड़ा हुआ और (स:) = वह इन्द्रियों को विषयों से व्यावृत्त करके (उदीचीं दिशं अनुव्यचलत्) = उत्तर दिशा की ओर-उन्नति की ओर क्रमश: चला। २. (तम्) = उन्नति की दिशा में चलते हुए उसको (श्यैतं च) = [श्यै गतौ] गतिशीलता (नौधसं च) = [नौधा ऋषिर्भवति भवनं दधाति-नि०] प्रभु-स्तवन, (सप्तर्षयः च) = 'दो कान, दो औंखें, दो नासिका-छिद्र व मुख' रूप सप्तर्षयः और राजा (सोमः) = जीवन को दीस बनानेवाला सोम [वीर्यशक्ति]-ये सब (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। ३. (स:) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (श्यैताय च) = गतिशीलता के लिए (नौधसाय च) = प्रभु-स्तवन के लिए, (सप्तर्षभ्यः च) = कान आदि सप्तर्षियों के लिए (च) = और (राज्ञे सोमाय) = जीवन को दीप्स बनानेवाले सोम [वीर्य] के लिए (आवृश्चते) = समन्तात् वासनाओं का विनाश करता है। वह भी वासनाओं का विनाश करता है (यः) = जो (एवम्) = इसप्रकार (व्रात्यम्) = व्रती (विद्वांसम्) = विद्वान् को (उपवदति) = समीपता से प्रास होकर इस उन्नति के मार्ग की चर्चा करता है। ४. (स:) = वह व्रात्य विद्वान् (वै) = निश्चय से (श्यैतस्य च) = क्रियाशीलता का (नौधसस्य च) = प्रभु-स्तवन की वृत्ति का (सप्तर्षीणां च) = कान आदि समर्षियों का (च) = और (राज्ञः सोमस्य) = जीवन को दीस बनानेवाले सोम का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय स्थान बनता है। (तस्य) = उस व्रात्य विद्वान् के (उदीच्यां दिशि) = उत्तर दिशा में-उन्नति की दिशा में "श्यैत, नवधस, सप्तर्षि व सोम राजा' साथी होते हैं।

    भावार्थ

    यह व्रात्य विद्वान् उन्नति की दिशा में आगे बढ़ता हुआ 'गतिशीलता, प्रभु-स्तवन, सप्तर्षियों द्वारा ज्ञानप्राप्ति तथा सोमरक्षण द्वारा दीस जीवन' को प्राप्त करता है।

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    भाषार्थ

    (सः) वह श्रद्धालु व्यक्ति (वै) निश्चय से (श्यैतस्य, च) श्यैतनामक सामगानों का, (नौधसस्य, च) और नौधसनामक सामगानों का, (सप्तर्षीणाम्, च) सप्तर्षि स्थान तथा इन्द्रियवशीकार का, (सोमस्य, च) तथा जगदुत्पादक परमेश्वर का (प्रियम्, धाम) प्रेमपात्र (भवति) हो जाता है। (तस्य) उस व्रात्य संन्यासी की (उदीच्याम्, दिशि) उत्तर दिशा में:- (अगला मन्त्र देखो)

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह कि श्रद्धालु व्यक्ति, व्रात्य का संगी हो कर भक्ति के गान सुनता, उत्तरदिशा के प्रदेशों की यात्रा करता और सत्संगों का लाभ उठाता है]।

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    विषय

    व्रत्य प्रजापति का वर्णन।

    भावार्थ

    जो उसको जान लेता है वह श्यैत, नौघस, सप्तर्षिगण और सोम राजा का प्रियपात्र हो जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    On the other hand, that person who knows and follows Vratya becomes the favourite centre of the love of Shaitya, Naudhasa, Seven Sages and the Ruling Soma, and in his northern quarter upfront:

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    Translation

    Surely he becomes a favourite of the Syaita Saman and the naudhasa Saman, of the seven-seers and of the sparkling Soma (thé cure-juice). In the northern quarter he has a pleasing abode.

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    Translation

    He who has the knowledge of this becomes the favorable resort of shyeta, Naudhasa, Saptarshis and shining soma in his northern region.

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    Translation

    He who hath the knowledge of God, verily becomes the beloved home of Vedic knowledge, knowledge of salvation, the seven Rishis, the dignified influential persons. In the northern region for such a learned person.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(श्यैतस्य) म० २२।सद्गतिप्रतिपादकस्य वेदज्ञानस्य (नौधसस्य) ऋषीणां हितकरस्य मोक्षज्ञानस्य (सप्तर्षीणाम्) म० २२। सबुद्धिषडिन्द्रियाणाम् (सोमस्य) प्रेरकस्य मनुष्यस्य (राज्ञः) ऐश्वर्यवतः। अन्यद् गतम्-म० ४ ॥

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