अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
62
तं वै॑रू॒पं च॑वैरा॒जं चाप॑श्च॒ वरु॑णश्च॒ राजा॑नु॒व्यचलन् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । वै॒रू॒पम् । च॒ । वै॒रा॒जम् । च॒ । आप॑: । च॒ । वरु॑ण: । च॒ । राजा॑ । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलन् ॥२.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वैरूपं चवैराजं चापश्च वरुणश्च राजानुव्यचलन् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । वैरूपम् । च । वैराजम् । च । आप: । च । वरुण: । च । राजा । अनुऽव्यचलन् ॥२.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर की सर्वत्र व्यापकता का उपदेश।
पदार्थ
(वैरूपम्) वैरूप [विविध पदार्थों का जतानेवाला वेदज्ञान] (च च) और (वैराजम्) वैराज [विराट् रूप, अर्थात् बड़े ऐश्वर्यवान् वा प्रकाशमान परमात्मा के स्वरूप का प्राप्त करानेवालामोक्षज्ञान] (च) और (आपः) प्रजाएँ [सृष्टि की वस्तुएँ] (च) और (राजा) राजा [ऐश्वर्यवान्] (वरुणः) श्रेष्ठ जीव [मनुष्य] (तम्) उस [व्रात्य परमात्मा] के (अनुव्यचलन्) पीछे-पीछे विचरे ॥१६॥
भावार्थ
ज्ञानी पुरुष साक्षात्करता है कि सब वेदज्ञान, मोक्षज्ञान और सृष्टि के पदार्थ, और सब सृष्टि मेंउत्तम यह मनुष्य उसी परमात्मा के आश्रित हैं ॥१६॥
टिप्पणी
१६−(तम्) व्रात्यम् (वैरूपम्)विरूप-अण्। विविधपदार्थानां रूपं निरूपणं यस्मात् तद् वेदज्ञानम् (च) (वैराजम्)विराज्-अण्। विराड्रूपस्य ऐश्वर्यवतः प्रकाशमानस्य वा परमात्मस्वरूपस्यप्रतिपादकं मोक्षज्ञानम् (च) (आपः) प्रजाः। सृष्टिपदार्थाः (च) (वरुणः)श्रेष्ठजीवो मनुष्यः (च) (राजा) ऐश्वर्यवान् (अनुव्यचलन्) अनुसृत्य विचरितवन्तः॥
विषय
प्रतीची दिशा में 'वैरूप, वैराज, आपः, वरुण राजा'
पदार्थ
१.(सः) = वह व्रात्य विद्वान (उदतिष्ठत) = उठा और आलस्य को दूर भगाकर (प्रतीचीं दिशं अनुव्यचलत्) = प्रतीची दिशा की ओर प्रति अञ्च' प्रत्याहार की दिशा में चला। इन्द्रियों को इसने विषय-व्यावृत्त करने का प्रयत्न किया। २. इस प्रत्याहार के होने पर (तम्) = उस व्रात्य विद्वान् को (वैरूपं च) = विशिष्ट तेजस्वीरूप (वैराजं च) = विशिष्ट ज्ञानदीप्ति, (आप: च) = रेत:कण [आप: रेतो भूत्वा०], (वरुणः च राजा) = और जीवन को दीप्त करनेवाला [राजा], नि?षता का भाव (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। ३. (सः) = वह व्रात्य विद्वान् (वै) = निश्चय से (वैरूपाय च) = विशिष्ट तेजस्वीरूप के लिए, (वैराजाय च) = विशिष्ट ज्ञानदीप्ति के लिए, (अजय: च) = शरीर में रेत:कणों के रक्षण के लिए (च) = तथा (वरुणाय राज्ञः) = जीवन को दीप्त बनानेवाले निडेषता के भाव के लिए (आवश्चते) = समन्तात् वासनाओं का छेदन करता है। यह पुरुष भी वासनाओं का छेदन करता है, (यः) = जो (एवम्) = इसप्रकार (व्रात्यम्) = वती (विद्वांसम्) = विद्वान् के (उपवदति) = समीप होकर इन बातों की चर्चा करता है ४. (स:) = वह (वैरूपस्य च) = विशिष्ट तेजस्वीरूप का, (वैराजाय च) = विशिष्ट ज्ञानदीति का, (अपां च) = रेत:कणों का (च) = और (राज्ञः वरुणस्य) = जीवन को दीप्त बनानेवाले निद्वेषता के भाव का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय स्थान बनता है। (तस्य) = उस विद्वान् व्रात्य के (प्रतीच्यां दिशि) = इस प्रत्याहार की दिशा में 'वैरूप, वैराज्ञ, आपः और वरुण राजा' साथी बनते हैं।
भावार्थ
यह व्रात्य विद्वान् प्रत्याहार के द्वारा 'विशिष्ट तेजस्वीरूप को, विशिष्ट ज्ञानदीप्ति को, रेत:कणों को तथा जीवन को दीप्स बनानेवाली निढेषता' को प्राप्त करता है।
भाषार्थ
(तम्, अनु) उस के अनुकूल होकर, (वैरूपम् च) वैरूप नामक सामगान, (वैराजम्, च) और वैराज नामक सामगान, (आपः, च) जल, (वरणः, च, राजा) और वरुण राजा (व्यचलत्) चले।
टिप्पणी
[वैरूप और वैराज सामगान पश्चिमदिशा की जलवायु तथा ऋतु के अनुकूल प्रतीत होते हैं। पृथिवी की पश्चिमदिशा में एटलाण्टिक महासागर है, जिस का निर्देश "आपः" द्वारा किया है। पूर्वदिशा में पेसिफिक महासागर है। "वरुणः अपामधिपतिः" (अथर्व० ५।२४।४) के अनुसार आपः के साथ वरुण का सम्बन्ध है। परन्तु वरुण को राजा कहा है। यह वरुण जगत् का राजा परमेश्वर है। वरुणः = वृणोति व्रियते वाऽसौ वरुणः। आस्तिक लोग, जगत्-के राजा का वरण करते हैं, और जगत्-का-राजा आस्तिक-महात्माओं का वरण करता है। वरुण का अर्थ "अपनाना" भी हैं। व्रात्य संन्यासी जगत्-के राजा की विभूतियों को देखता हुआ प्राची दिशा से चला, और दक्षिण दिशा से होता हुआ पश्चिम दिशा में आया। यहां की जलीय विभूतियों को देखकर व्रात्य ने जगत्-के-राजा को अपना-लिया, और जगत्-के-राजा ने व्रात्य को अपना-लिया। अब से व्रात्य, निज राजा के संरक्षण में अपने-आप को समझने लगा। यह "अपनाना" मन्त्र १३ की योगजन्या प्रज्ञा का भी परिणाम है। "आपः" की अनुकूलता का अभिप्राय यह है जलप्रायः प्रदेश में रहते हुए भी संन्यासी को जलीय रोगों का न होना। योगी-संन्यासी योगाग्नि द्वारा रोगों को भस्मीभूत कर देता है। यथा " न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः, प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्' (श्वेता० उप० २।१२) अर्थात् योगाग्नि रोग, जरा और मृत्यु को भस्म कर देती है।]
विषय
व्रत्य प्रजापति का वर्णन।
भावार्थ
वह प्रतीची अर्थात् पश्चिम दिशा की ओर चला।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-४ (प्र०), १ ष०, ४ ष० साम्नी अनुष्टुप् १, ३, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, १ तृ० द्विपदा आर्षी पंक्तिः, १, ३, ४ (च०) द्विपदा ब्राह्मी गायत्री, १-४ (पं०) द्विपदा आर्षी जगती, २ (पं०) साम्नी पंक्तिः, ३ (पं०) आसुरी गायत्री, १-४ (स०) पदपंक्तिः १-४ (अ०) त्रिपदा प्राजापत्या त्रिष्टुप्, २ (द्वि०) एकपदा उष्णिक्, २ (तृ०) द्विपदा आर्षी भुरिक् त्रिष्टुप् , २ (च०) आर्षी पराऽनुष्टुप, ३ (तृ०) द्विपदा विराडार्षी पंक्तिः, ४ (वृ०) निचृदार्षी पंक्तिः। अष्टाविंशत्यृचं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Vairupa Sama and Vairaja Sama, Vedic knowledge of variety of diversity and knowledge of one comprehensive refulgence followed him. Also, apah, waters, and ruling Varuna, the ruling spirit of cosmic waters, followed him.
Translation
The Vairüpa Saman and the vairaja Saman, the waters and the venerable king started following him.
Translation
The Vairupa, Vairajyy samans, waters and Raja Varuna, the air follow him.
Translation
The Vedic knowledge, the knowledge of salvation, material objects, all dignified noble persons, work under His control.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(तम्) व्रात्यम् (वैरूपम्)विरूप-अण्। विविधपदार्थानां रूपं निरूपणं यस्मात् तद् वेदज्ञानम् (च) (वैराजम्)विराज्-अण्। विराड्रूपस्य ऐश्वर्यवतः प्रकाशमानस्य वा परमात्मस्वरूपस्यप्रतिपादकं मोक्षज्ञानम् (च) (आपः) प्रजाः। सृष्टिपदार्थाः (च) (वरुणः)श्रेष्ठजीवो मनुष्यः (च) (राजा) ऐश्वर्यवान् (अनुव्यचलन्) अनुसृत्य विचरितवन्तः॥
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