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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 16
    ऋषिः - रुद्र देवता - द्विपदा प्राजापत्या अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    62

    नास्य॑ प॒शून्न स॑मा॒नान्हि॑नस्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । अ॒स्य॒ । प॒शून् । न । स॒मा॒नम् । हि॒न॒स्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥५.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नास्य पशून्न समानान्हिनस्ति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । अस्य । पशून् । न । समानम् । हिनस्ति । य: । एवम् । वेद ॥५.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 5; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्माके अन्तर्यामी होने का उपदेश।

    पदार्थ

    (हिनस्ति) कष्ट देताहै, (न)(अस्य) उस [विद्वान्] के (पशून्) प्राणियों को और (न) न [उसके] (समानान्) तुल्य गुणवालों को [कष्ट देता है], (यः) जो [विद्वान्] (एवम्) ऐसे वाव्यापक [व्रात्य परमात्मा] को (वेद) जानता है ॥१६॥

    भावार्थ

    मन्त्र १-३ के समान है॥१४, १५, १६॥

    टिप्पणी

    १४, १५, १६−(अन्तर्देशेभ्यः) मध्यदेशेभ्यः (ईशानम्) सर्वस्वामिनम्। अन्यत् पूर्ववत्-म०१-३, स्पष्टं च ॥

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    विषय

    सब अन्तर्देशों से

    पदार्थ

    १. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (दक्षिणायाः दिशः अन्तर्देशात्) = दक्षिणदिशा के अन्तर्देश से (शर्वम्) = सर्वसंहारक प्रभु को सब देवों ने (इष्वासम्) = धुनर्धर रक्षक को तथा (अनुष्ठातारम्) = सब क्रियाओं का सामर्थ्य देनेवाला (अकुर्वन्) = किया। यह (इष्वासः शर्व:) = धनुर्धर-सर्वसंहारक प्रभु (एनम्) = इस नात्य को (दक्षिणायाः दिश: अन्तर्देशात्) = दक्षिणदिक् से मध्यदेश से अनुष्ठाता (अनुतिष्ठति) = सब कार्यों का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। २. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (प्रतीच्याः दिश: अन्तर्देशात्) = पश्चिमदिशा के अन्तर्देश से पशुपति (इष्वासम्) = सब प्राणियों के रक्षक धनुर्धर प्रभु को सब देवों ने (अनुष्ठातारं अकुर्वन्) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देनेवाला किया। यह (इष्वासः पशुपति:) = धनुर्धर सब प्राणियों का रक्षक प्रभु (एनम्) = इस व्रात्य को (प्रतीच्यां दिश: अन्तर्देशात्) = पश्चिमदिशा के मध्यदेश से अनुष्ठातानुतिष्ठति-सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। ३. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (उदीच्याः दिशः अन्तर्देशात्) = उत्तरदिशा के अन्तर्देश से (उग्रं देवम्) = प्रचण्ड सामर्थ्यवाले [so powerful], शत्रुभयंकर [fierce], उदात्त [highly noble] दिव्य प्रभु को सब देवों ने (इष्वासम्) = धनुर्धर को (अनुष्ठातारं अकुर्वन्) = सब कार्यों को करने की सामर्थ्य देनेवाला किया। यह (उग्र देवः) = उदात्त, दिव्य प्रभु (इष्वासः) = धनुर्धर होकर (एनम्) = इस व्रात्य को (उदीच्या: दिश: अन्तर्देशात्) = ऊपर दिशा के मध्यदेश से (अनुष्ठाता अनुतिष्ठति) = सब कार्यों का सामर्थ्य देनेवाला होता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। ४. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (भुवाया: दिश: अन्तर्देशात्) = ध्रुवा दिशा के अन्तर्देश से रुद्रम्-शत्रुओं को रुलानेवाले प्रभु को सब देवों ने (इष्वासम्) = धनुर्धर को (अनुष्ठातारं अकुर्वन्) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देनेवाला बनाया। यह (रुद्रः इष्वासः) = रुद्र धनुर्धर (एनम्) = इस व्रात्य को ध्रुवायाः दिशः अन्तर्देशात्-ध्रुवादिशा के मध्यदेश से (अनुष्ठाता अनुतिष्ठाति) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। ५. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (ऊर्ध्वायाः दिश: अन्तर्देशात) = ऊर्ध्वा दिक के अन्तर्देश से (महादेवम्) = सर्वमहान्, सर्वपूज्य देव को सब देवों ने (इष्वासम्) = धनुर्धर की अनुष्ठातार अकुर्वन्-सब क्रियाओं का सामर्थ्य देनेवाला किया। (देवः) = यह महादेव (इष्वासः) = यह महान् धनुर्धर देव (एनम्) = इस व्रात्य को (ऊर्ध्वायाः दिश: अन्तर्देशात्) = ऊर्वादिक् के अन्तर्देश से अनुष्ठाता (अनुतिष्ठति) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। ६. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (सर्वेभ्यः अन्तर्देशेभ्य:) = सब मध्य देशों से सब देवों ने (ईशानम्) = सबके शासक प्रभु (इष्यासम्) = धनुर्धर को (अनुष्ठातारं अकुर्वन्) = कार्यों को करने का सामर्थ्य देनेवाला किया। यह (ईशानः इष्वासः) = सबका ईशान प्रभु धनुर्धर होकर (एनम्) = इस ब्रात्य को (सर्वेभ्यः अन्तर्देशेभ्यः) = सब अन्तर्देशों से अनुष्ठाता (अनुतिष्ठति) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है।

    भावार्थ

    एक व्रात्य विद्वान् दक्षिण दिशा के अन्तर्देश में सर्वसंहारक प्रभु को अपने रक्षक व सामर्थ्यदाता के रूप में देखता है। पश्चिम दिशा के अन्तर्देश से सब प्राणियों का रक्षक प्रभु इसे अपने रक्षक के रूप में दिखता है। उत्तर दिशा के अन्तर्देश से प्रचण्ड सामर्थ्यवाले प्रभु उसका रकष ण कर रहे हैं तो धूवा दिशा के अन्तर्देश से रुद्र प्रभु उसके शत्रुओं को रुला रहे हैं। ऊध्यां दिशा के अन्तर्देश से महादेव उसका रक्षण कर रहे हैं तो सब अन्तर्देशों से ईशान उसके रक्षक बने हैं। इन्हें ही वह अपने लिए सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देनेवाला जानता है।

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    भाषार्थ

    (न) और न (अस्य) इस के (पशून्) पशुओं की, (न समानान्) न समान आदि प्राणवायुओं की (हिनस्ति) हिंसा करता या हिंसा होने देता है (यः) जो कि (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता तथा तदनुसार जीवनचर्या करता है॥

    टिप्पणी

    [(क) वर्तमान सूक्त ५ वें में भव, ईशान, शर्व, पशुपति, उग्र, रुद्र तथा महादेव नामों द्वारा परमेश्वर का वर्णन हुआ है। भवनामक परमेश्वर व्रात्य संन्यासी में सद्गुणों की उत्पत्ति करता, ईशान नामक परमेश्वर उत्पादित सद्गुणों को रक्षा करता, तथा शर्वनामक परमेश्वर व्रात्य के अन्तरायों और विघ्नों का विनाश करता है। पशुपति और ईशान शब्द समानाभिप्रायक हैं, रक्षार्थक हैं। उग्र तथा रुद्र शब्द शर्व के अभिप्राय को द्योतित करते हैं। महादेव शब्द परमेश्वर को महत्ता अर्थात् महाकाय क्षेत्र में विस्तार का वर्णन करता है। (ख) सूक्त में अवान्तर प्रदेशों तथा अन्तरिक्ष और द्युलोक आदि में व्रात्य संन्यासी को परमेश्वर द्वारा रक्षा का वर्णन हुआ है। जीवन्मुक्त योगी आकाशगमन कर सकता है। यथा– “कायाकाशयोः सम्बन्ध संयमात् लघुतूल समापक्षेश्चाकाश गमनम्" (योग ३।४२); तथा "मुनयो वातरशनाः"; वातस्यानुघ्नाजि यन्ति; उन्मदिता मौनेयेन वातां आ तस्थिमा वयम्; अन्तरिक्षेण पतति विश्वा रूपावचाकशत्; इत्यादि (ऋग्वेद १०।१३६।२,३,४)। इस प्रकार योगी सशरीर आकाश विचरण कर सकता है। और मुक्तात्मा तो लोक लोकान्तरों में भी स्वेच्छ विहारी होता है। ऐसी अवस्थाओं में भी योगी की रक्षा परमेश्वर करता है]।

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    विषय

    व्रात्य प्रजापति का राज्यतन्त्र।

    भावार्थ

    (सर्वेभ्यः अन्तर्देशेभ्यः तस्मै ईशानम् इष्वासम् अनुष्ठातारम् अकुर्वन्) समस्त भीतरी देशों से उसके लिये ईशान धनुर्धर को उसका भृत्य कल्पित करते हैं। (ईशानः एनम् इष्वासः सर्वेभ्यः अन्तः देशेभ्यः) समस्त अन्तर्देशों से ईशान धनुर्धर (अनुष्ठाता अनु तिष्ठति) भृत्य उसकी आज्ञा पालन करता है (नैनं शर्व० इत्यादि) पूर्ववत्। (नास्य पशून्० इत्यादि) पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रुद्रगणसूक्तम्। मन्त्रोक्तो रुद्रो देवता। १ प्र० त्रिपदा समविषमा गायत्री, १ द्वि० त्रिपदा भुरिक् आर्ची त्रिष्टुप्, १-७ तृ० द्विपदा प्राजापत्यानुष्टुप्, २ प्र० त्रिपदा स्वराट् प्राजापत्या पंक्तिः, २-४ द्वि०, ६ त्रिपदा ब्राह्मी गायत्री, ३, ४, ६ प्र० त्रिपदा ककुभः, ५ ७ प्र० भुरिग् विषमागायत्र्यौ, ५ द्वि० निचृद् ब्राह्मी गायत्री, ७ द्वि० विराट्। षोडशर्चं पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Nor does any one injure, much less destroy, the person, fellow equals, wealth or cattle of the man who knows this.

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    Translation

    does any harm to him, who knows it thus, nor to his animals, nor to his kinsmen.

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    Translation

    Neither animals nor contemporaries of him who knows this. [N.B.—The hymn 5 is quite concerned with the Rudras. In the verses the names—Bhava, Sharva, Pashupati, Ugra? Rudra Mahadeva and Ishana are very clearly mentioned. These are the name of Rudra, the fire. These names Rudra indicate various stages of fire. Says shatpath Brahmana (6. 1-3. 18) that there are nine names of Rudra of and they signify the fire. They are Rudra, Sharva, Pashupati Ugra. Ashani, Bhava, Mahadeva, Ishana, Kumara, the ninth. They are the forms of Agni, the fire.]-

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    Translation

    God manifested Himself in the region of the nadir.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४, १५, १६−(अन्तर्देशेभ्यः) मध्यदेशेभ्यः (ईशानम्) सर्वस्वामिनम्। अन्यत् पूर्ववत्-म०१-३, स्पष्टं च ॥

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