Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 5 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - रुद्र देवता - त्रिपदा भुरिक् आर्ची त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    59

    भव॑ एनमिष्वा॒सःप्राच्या॑ दि॒शो अ॑न्तर्दे॒शाद॑नुष्ठा॒तानु॑ तिष्ठति नैनं॑ श॒र्वो नभ॒वो नेशा॑नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भ॒व: । ए॒न॒म् । इ॒षु॒ऽआ॒स: । प्राच्या॑: । दि॒श: । अ॒न्त॒:ऽदे॒शात् । अ॒नु॒ऽस्था॒ता । अनु॑ । ति॒ष्ठ॒ति॒ । न । ए॒न॒म् । श॒र्व: । न । भ॒व: । न । ईशा॑न: ॥५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भव एनमिष्वासःप्राच्या दिशो अन्तर्देशादनुष्ठातानु तिष्ठति नैनं शर्वो नभवो नेशानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भव: । एनम् । इषुऽआस: । प्राच्या: । दिश: । अन्त:ऽदेशात् । अनुऽस्थाता । अनु । तिष्ठति । न । एनम् । शर्व: । न । भव: । न । ईशान: ॥५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्माके अन्तर्यामी होने का उपदेश।

    पदार्थ

    (भवः) सर्वत्रवर्तमान, (इष्वासः) हिंसानिवारक, (अनुष्ठाता) साथ रहनेवाला परमात्मा (प्राच्याःदिशः) पूर्व दिशा के (अन्तर्देशात्) मध्य देश से (एनम् अनु) उस [विद्वान्] केसाथ (तिष्ठति) रहता है, और (एनम्) उस [विद्वान्] को (न)(शर्वः) दुःखनाशक, (न)(भवः) सर्वत्र वर्तमान और (न)(ईशानः) सर्वस्वामी परमेश्वर ॥२॥

    भावार्थ

    विद्वानों का मत है किजो मनुष्य परमात्मा को सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी जानकर सदा सर्वत्र पुरुषार्थकरके उसका आज्ञाकारी रहता है, वह सर्वशक्तिमान् परमेश्वर सब विघ्न हटाकर उस परउसके अनुगामियों पर अनुग्रह करता है ॥१-३॥

    टिप्पणी

    २−(भवः) सर्वत्रवर्तमानः (एनम्) विद्वांसम् (इष्वासः) हिंसानाशकः (प्राच्याः) (दिशः) (अन्तर्देशात्) (अनुष्ठाता) सहवर्तमानः (अनु) अनुलक्ष्य (तिष्ठति) वर्तते (न)निषेधे (शर्वः) दुःखनाशकः परमेश्वरः (न) (भवः) (न) (ईशानः) सर्वेश्वरः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्राच्याः दिशः अन्तर्देशात्

    पदार्थ

    १. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए सब देवों ने (प्राच्याः दिश: अन्तर्देशात्) = पूर्व दिशा के अन्तर्देश [मध्यदेश] से (भवम्) = सर्वोत्पादक प्रभु को (इष्वासम्) = धनुर्धारी-धनुष के द्वारा रक्षक (अनुष्ठातारम्) सब क्रियाओं का करनेवाला (अकुर्वन) = किया। इसे बाल्यकाल से ही यह शिक्षा प्राप्त हुई थी कि वे सर्वोत्पादक प्रभु तुम्हारे रक्षक हैं और सब क्रियाएँ उन्हीं की शक्ति व कृपा से होती हैं। २. (भवः) = वह सर्वोत्पादक (इष्वासः) = धनुर्धर प्रभु (एनम्) = इस व्रात्य को (प्राच्याः दिशः अन्तर्देशात्) = पूर्व दिशा के मध्यदेश से (अनुष्ठाता) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ (अनुतिष्ठति) = अनुकूलता से स्थित होता है। ३. (यः एवं वेद) = जो इस प्रकार उस "भव, इष्वास, अनुष्ठाता' प्रभु को समझ लेता है (एनम्) = इस विद्वान् व्रात्य को (शर्वा:) = वह [भृ हिंसायाम्] प्रलय कर्ता प्रभु [रुद्र], (न भवः) = न ही [ब्रह्म] सर्वोत्पादक प्रभु, (न ईशानः) = न ही ईश [शासक, विष्णु] (हिनस्ति) = विनष्ट करते हैं। (अस्य) = इसके (पशून् न) = पशुओं को भी नष्ट नहीं करते। (न समानान्) = न इसके समान-तुल्य गुणवाले व्यक्तियों को, बन्धु-बान्धवों को विनष्ट करते हैं।

    भावार्थ

    यह व्रात्य विद्वान् पूर्वदिशा के अन्तर्देश में उस सर्वोत्पादक प्रभु को ही अपना, अपने पशुओं का, अपने समान बन्धु-बान्धवों का रक्षक जानता है, उन्हें ही कार्य करने की शक्ति देनेवाला समझता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (अनुष्ठाता) निरन्तर साथ स्थित रहने वाला (भवः) सुखोत्पादक परमेश्वर (इष्वासः) मानो इषुप्रहारी या धनुर्धारी१ हो कर, (प्राच्या दिशः अन्तर्देशात्) पूर्वदिशा सम्बन्धी अवान्तर अर्थात् पूर्व और दक्षिण के मध्यवर्ती आग्नेय प्रदेश से, (एनम्) इस व्रात्य के साथ (अनु तिष्ठति) निरन्तर स्थित रहता है। (एनम्) इसे (न)(शर्वः) दुःखनाशक परमेश्वर, (न भवः) न सुखोत्पादक परमेश्वर, (न ईशानः) न सर्वाधीश्वर परमेश्वर (हिनस्ति)२ हिंसित करता या हिंसित होने देता है ॥ २ ॥

    टिप्पणी

    [१. अभिप्राय यह कि परमेश्वर मानो धनुर्धारी होता हुआ, व्रत के विक्षेपकों या अन्तरायों (योग १।३०) से, तथा काम क्रोधादि दुर्वासनाओं से, व्रात्य की रक्षा करता है। देवासुर संग्राम रूप में आध्यात्मिक तत्त्वों का प्रायः वर्णन वैदिक साहित्य में हुआ है। प्रणव अर्थात् ओ३म् को 'धनुष' तथा आत्मा को 'शर' अर्थात वाण कह कर मुण्डकोपनिषद् (मुण्डक २, खण्ड २) में भी आध्यात्मिक तत्त्वों का वर्णन संग्रामरूप में हुआ है। इसी भावना में सूक्त ५ के मन्त्रों में परमेश्वर को इष्वास कहा है। २. मन्त्र २ के अर्थ की पूर्णता मन्त्र ३ के "हिनस्ति" पद द्वारा होती है। इस प्रकार की पद्धति मन्त्रों में अन्यत्र भी देखी गई है। निरुक्त अध्याय १२, पाद ३, खण्ड २२ में "येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ अनु । त्वं वरुण पश्यसि ॥" (ऋ० १।५०।६) की व्याख्या करते हुए निरुक्तकार "अपि वोत्तरस्याम्" "अपि वा पूर्वस्याम्" “अपि वैतस्यामेव" द्वारा इस पद्धति की परिपुष्टि करते हैं।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    व्रात्य प्रजापति का राज्यतन्त्र।

    भावार्थ

    (यः एवम्) जो इसके इस रहस्य को (वेद) जानता है (एनम्) उसको (इष्वासः) धनुर्धर, (भवः) भव (प्राच्या दिशः अन्तः देशात्) प्राची दिशा के अन्तः देश से (अनुष्टाता) उसका कर्मकर होकर (अनुतिष्ठति) उसकी आज्ञानुसार कार्य करता है। (न शवः) न शर्व, (न भवः) न भव और (न ईशानः) न इशान ही (एनं) उसको विनाश करता है और वे भव, शर्व, और ईशान (न अस्य पशून्)(यः एवम्) जो इसके इस रहस्य को (वेद) जानता है (एनम्) उसको (इष्वासः) धनुर्धर, (भवः) भव (प्राच्या दिशः अन्तः देशात्) प्राची दिशा के अन्तः देश से (अनुष्ठाता) उसका कर्मकर होकर (अनुतिष्ठति) उसकी आज्ञानुसार कार्य करता है। (न शर्वः) न शर्व, (न भवः) न भव और (न ईशानः) न इशान ही (एनं) उसको विनाश करता है और वे भव, शर्व, और ईशान (न अस्य पशून्) न इसके पशुओं को (न समानान्) और न इसके समान, बन्धुओं को ही (हिनस्ति) विनाश करता है। इसके पशुओं को (न समानान्) और न इसके समान, बन्धुओं को ही (हिनस्ति) विनाश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रुद्रगणसूक्तम्। मन्त्रोक्तो रुद्रो देवता। १ प्र० त्रिपदा समविषमा गायत्री, १ द्वि० त्रिपदा भुरिक् आर्ची त्रिष्टुप्, १-७ तृ० द्विपदा प्राजापत्यानुष्टुप्, २ प्र० त्रिपदा स्वराट् प्राजापत्या पंक्तिः, २-४ द्वि०, ६ त्रिपदा ब्राह्मी गायत्री, ३, ४, ६ प्र० त्रिपदा ककुभः, ५ ७ प्र० भुरिग् विषमागायत्र्यौ, ५ द्वि० निचृद् ब्राह्मी गायत्री, ७ द्वि० विराट्। षोडशर्चं पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Bhava, the archer, from the intermediate direction of the eastern quarter, abides as the agent of this Vratya. Neither Bhava, nor Sharva, the force of nature’s catalysis, nor Ishana, nature’s spirit of supreme law, negates this Vratya.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The archer. Bhava stands as an attendant to attend him from the intermediate region of the eásterñ quarter. Neither Sarva, nor Bhava, nor isana.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Bhava, the fire, the archerer becomes the deliverer of him from the intermediate space of the eastern region and neither Sharva, neither fire, nor Bhave, nor, Ishana, the other fire harm or kill him.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Slays him who possesses this knowledge of God, or his cattle or his kinsmen.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(भवः) सर्वत्रवर्तमानः (एनम्) विद्वांसम् (इष्वासः) हिंसानाशकः (प्राच्याः) (दिशः) (अन्तर्देशात्) (अनुष्ठाता) सहवर्तमानः (अनु) अनुलक्ष्य (तिष्ठति) वर्तते (न)निषेधे (शर्वः) दुःखनाशकः परमेश्वरः (न) (भवः) (न) (ईशानः) सर्वेश्वरः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top