अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
ऋषिः - रुद्र
देवता - स्वराट् प्राजापत्या पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
46
तस्मै॒दक्षि॑णाया दि॒शो अ॑न्तर्दे॒शाच्छ॒र्वमि॑ष्वा॒सम॑नुष्ठा॒तार॑मकुर्वन् ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मै॑ । दक्षि॑णाया: । दि॒श: । अ॒न्त॒:ऽदे॒शात् । श॒र्वम् । इ॒षु॒ऽआ॒सम् । अ॒नु॒ऽस्था॒तार॑म् । अ॒कु॒र्व॒न् ॥५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मैदक्षिणाया दिशो अन्तर्देशाच्छर्वमिष्वासमनुष्ठातारमकुर्वन् ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मै । दक्षिणाया: । दिश: । अन्त:ऽदेशात् । शर्वम् । इषुऽआसम् । अनुऽस्थातारम् । अकुर्वन् ॥५.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्माके अन्तर्यामी होने का उपदेश।
पदार्थ
मन्त्र १-३ के समान है॥४-५॥(तस्मै) उस [विद्वान्]के लिये (दक्षिणायाः दिशः) दक्षिण दिशा के (अन्तर्देशात्) मध्य देश से (शर्वम्)दुःखनाशक परमात्मा को (इष्वासम्) हिंसानिवारक, (अनुष्ठातारम्) साथ रहनेवाला (अकुर्वन्) उन [विद्वानों] ने बनाया ॥४॥
टिप्पणी
४, ५−स्पष्टंपूर्ववच्च ॥
विषय
सब अन्तर्देशों से
पदार्थ
१. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (दक्षिणायाः दिशः अन्तर्देशात्) = दक्षिणदिशा के अन्तर्देश से (शर्वम्) = सर्वसंहारक प्रभु को सब देवों ने (इष्वासम्) = धुनर्धर रक्षक को तथा (अनुष्ठातारम्) = सब क्रियाओं का सामर्थ्य देनेवाला (अकुर्वन्) = किया। यह (इष्वासः शर्व:) = धनुर्धर-सर्वसंहारक प्रभु (एनम्) = इस नात्य को (दक्षिणायाः दिश: अन्तर्देशात्) = दक्षिणदिक् से मध्यदेश से अनुष्ठाता (अनुतिष्ठति) = सब कार्यों का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। २. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (प्रतीच्याः दिश: अन्तर्देशात्) = पश्चिमदिशा के अन्तर्देश से पशुपति (इष्वासम्) = सब प्राणियों के रक्षक धनुर्धर प्रभु को सब देवों ने (अनुष्ठातारं अकुर्वन्) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देनेवाला किया। यह (इष्वासः पशुपति:) = धनुर्धर सब प्राणियों का रक्षक प्रभु (एनम्) = इस व्रात्य को (प्रतीच्यां दिश: अन्तर्देशात्) = पश्चिमदिशा के मध्यदेश से अनुष्ठातानुतिष्ठति-सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। ३. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (उदीच्याः दिशः अन्तर्देशात्) = उत्तरदिशा के अन्तर्देश से (उग्रं देवम्) = प्रचण्ड सामर्थ्यवाले [so powerful], शत्रुभयंकर [fierce], उदात्त [highly noble] दिव्य प्रभु को सब देवों ने (इष्वासम्) = धनुर्धर को (अनुष्ठातारं अकुर्वन्) = सब कार्यों को करने की सामर्थ्य देनेवाला किया। यह (उग्र देवः) = उदात्त, दिव्य प्रभु (इष्वासः) = धनुर्धर होकर (एनम्) = इस व्रात्य को (उदीच्या: दिश: अन्तर्देशात्) = ऊपर दिशा के मध्यदेश से (अनुष्ठाता अनुतिष्ठति) = सब कार्यों का सामर्थ्य देनेवाला होता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। ४. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (भुवाया: दिश: अन्तर्देशात्) = ध्रुवा दिशा के अन्तर्देश से रुद्रम्-शत्रुओं को रुलानेवाले प्रभु को सब देवों ने (इष्वासम्) = धनुर्धर को (अनुष्ठातारं अकुर्वन्) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देनेवाला बनाया। यह रुद्रः इष्वासः-रुद्र धनुर्धर (एनम्) = इस व्रात्य को ध्रुवायाः दिशः अन्तर्देशात्-ध्रुवादिशा के मध्यदेश से (अनुष्ठाता अनुतिष्ठाति) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। ५. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (ऊर्ध्वायाः दिश: अन्तर्देशात) = ऊर्ध्वा दिक के अन्तर्देश से (महादेवम्) = सर्वमहान्, सर्वपूज्य देव को सब देवों ने (इष्वासम्) = धनुर्धर की अनुष्ठातार अकुर्वन्-सब क्रियाओं का सामर्थ्य देनेवाला किया। (देवः) = यह महादेव (इष्वासः) = यह महान् धनुर्धर देव (एनम्) = इस व्रात्य को (ऊर्ध्वायाः दिश: अन्तर्देशात्) = ऊर्वादिक् के अन्तर्देश से अनुष्ठाता (अनुतिष्ठति) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। ६. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (सर्वेभ्यः अन्तर्देशेभ्य:) = सब मध्य देशों से सब देवों ने (ईशानम्) = सबके शासक प्रभु (इष्यासम्) = धनुर्धर को (अनुष्ठातारं अकुर्वन्) = कार्यों को करने का सामर्थ्य देनेवाला किया। यह (ईशानः इष्वासः) = सबका ईशान प्रभु धनुर्धर होकर (एनम्) = इस ब्रात्य को (सर्वेभ्यः अन्तर्देशेभ्यः) = सब अन्तर्देशों से अनुष्ठाता (अनुतिष्ठति) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है।
भावार्थ
एक व्रात्य विद्वान् दक्षिण दिशा के अन्तर्देश में सर्वसंहारक प्रभु को अपने रक्षक व सामर्थ्यदाता के रूप में देखता है। पश्चिम दिशा के अन्तर्देश से सब प्राणियों का रक्षक प्रभु इसे अपने रक्षक के रूप में दिखता है। उत्तर दिशा के अन्तर्देश से प्रचण्ड सामर्थ्यवाले प्रभु उसका रकष ण कर रहे हैं तो धूवा दिशा के अन्तर्देश से रुद्र प्रभु उसके शत्रुओं को रुला रहे हैं। ऊध्यां दिशा के अन्तर्देश से महादेव उसका रक्षण कर रहे हैं तो सब अन्तर्देशों से ईशान उसके रक्षक बने हैं। इन्हें ही वह अपने लिए सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देनेवाला जानता है।
भाषार्थ
(तस्मै) उस व्रात्य संन्यासी के लिए [वैदिक विधियों ने] (दक्षिणायाः दिशः) दक्षिण दिशा सम्बन्धी (अन्तर्देशात्) अवान्तर अर्थात् दक्षिण और पश्चिम के मध्यवर्ती नैर्ऋत्य प्रदेश से (शर्वम्) दुःख विनाशक परमेश्वर को मानो (इष्वासम्) इषुप्रहारी या धनुर्धारी रूप में (अनुष्ठातारम्) व्रात्य के साथ निरन्तर स्थित रहने वाला (अकुर्वन्) निर्दिष्ट किया है। [अन्तर्दश= नैर्ऋत्य प्रदेश। व्याख्या (मन्त्र १)]
विषय
व्रात्य प्रजापति का राज्यतन्त्र।
भावार्थ
(दक्षिणायाः दिश अन्तः देशात्) दक्षिण दिशा के भीतरी भाग से देव विद्वानगण (तस्मै) उसके लिये (शर्वम् इष्वासम् अनुष्ठातारम् अकुर्वन्) शर्व धनुर्धर को उसका भृत्य कल्पित करते हैं। (यः एवं वेद शर्वः एनम् इष्वासः दक्षिणाया दिशः अन्तः देशात् अनुष्ठाता अनुतिष्टति न एनं०। नास्य पशून् ० इत्यादि पूर्ववत्) जो व्रात्य के इस प्रकार के स्वरूप को जानता है शर्व धनुर्धर होकर दक्षिण दिशा के भीतरी देश से उसका भृत्य होकर उसके आज्ञानुसार कर्म करता है। और भव, शर्व और ईशान भी न उसको नाश करते हैं और न उसके मित्रों का नाश करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रुद्रगणसूक्तम्। मन्त्रोक्तो रुद्रो देवता। १ प्र० त्रिपदा समविषमा गायत्री, १ द्वि० त्रिपदा भुरिक् आर्ची त्रिष्टुप्, १-७ तृ० द्विपदा प्राजापत्यानुष्टुप्, २ प्र० त्रिपदा स्वराट् प्राजापत्या पंक्तिः, २-४ द्वि०, ६ त्रिपदा ब्राह्मी गायत्री, ३, ४, ६ प्र० त्रिपदा ककुभः, ५ ७ प्र० भुरिग् विषमागायत्र्यौ, ५ द्वि० निचृद् ब्राह्मी गायत्री, ७ द्वि० विराट्। षोडशर्चं पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
For that Vratya, from the intermediate direction of the southern quarter, the Devas made Sharva, force of nature’s catalysis, wielder of the bow and arrow of nature’s causation, the agent of his will and command.
Translation
For him, from the intermediate region of the southern quarter, they have made the archer Sarva (the Lord of destruction) the attendant.
Translation
They from the intermediate space of southern region make for him archer Sharva (a fire) a deliverer.
Translation
God, the Averter of suffering, the foe of violence, a Guardian, guards him from the intermediate space of the southern region: Him, neither God, the Averter of suffering, nor God, the foe of violence, nor the Almighty God, slays, who possesses this knowledge of God, or his cattle or his kinsmen.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४, ५−स्पष्टंपूर्ववच्च ॥
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