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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
    ऋषिः - रुद्र देवता - त्रिपदा ककुप् उष्णिक् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    56

    तस्मै॑प्र॒तीच्या॑ दि॒शो अ॑न्तर्दे॒शात्प॑शु॒पति॑मिष्वा॒सम॑नुष्ठा॒तार॑मकुर्वन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्मै॑ । प्र॒तीच्या॑: । दि॒श:। अ॒न्त॒:ऽदे॒शात् । प॒शु॒ऽपति॑म् । इ॒षु॒ऽआ॒सम् । अ॒नु॒ऽस्था॒तार॑म् । अ॒कु॒र्व॒न् ॥५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्मैप्रतीच्या दिशो अन्तर्देशात्पशुपतिमिष्वासमनुष्ठातारमकुर्वन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्मै । प्रतीच्या: । दिश:। अन्त:ऽदेशात् । पशुऽपतिम् । इषुऽआसम् । अनुऽस्थातारम् । अकुर्वन् ॥५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्माके अन्तर्यामी होने का उपदेश।

    पदार्थ

    (तस्मै) उस [विद्वान्]के लिये (प्रतीच्याः दिशः) पश्चिम दिशा के (अन्तर्देशात्) मध्य देश से (पशुपतिम्) प्राणियों के रक्षक परमात्मा को (इष्वासम्) हिंसा हटानेवाला (अनुष्ठातारम्) साथ रहनेवाला (अकुर्वन्) उन [विद्वानों] ने बनाया ॥६॥

    भावार्थ

    मन्त्र १-३ के समान है॥६, ७॥

    टिप्पणी

    ६, ७−(प्रतीच्याः)पश्चिमायाः (पशुपतिम्) प्राणिनां रक्षकम् (पशुपतिः) प्राणिनां रक्षकः। अन्यत्पूर्ववत् ॥

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    विषय

    सब अन्तर्देशों से

    पदार्थ

    १. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (दक्षिणायाः दिशः अन्तर्देशात्) = दक्षिणदिशा के अन्तर्देश से (शर्वम्) = सर्वसंहारक प्रभु को सब देवों ने (इष्वासम्) = धुनर्धर रक्षक को तथा (अनुष्ठातारम्) = सब क्रियाओं का सामर्थ्य देनेवाला (अकुर्वन्) = किया। यह (इष्वासः शर्व:) = धनुर्धर-सर्वसंहारक प्रभु (एनम्) = इस नात्य को (दक्षिणायाः दिश: अन्तर्देशात्) = दक्षिणदिक् से मध्यदेश से अनुष्ठाता (अनुतिष्ठति) = सब कार्यों का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। २. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (प्रतीच्याः दिश: अन्तर्देशात्) = पश्चिमदिशा के अन्तर्देश से पशुपति (इष्वासम्) = सब प्राणियों के रक्षक धनुर्धर प्रभु को सब देवों ने (अनुष्ठातारं अकुर्वन्) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देनेवाला किया। यह (इष्वासः पशुपति:) = धनुर्धर सब प्राणियों का रक्षक प्रभु (एनम्) = इस व्रात्य को (प्रतीच्यां दिश: अन्तर्देशात्) = पश्चिमदिशा के मध्यदेश से अनुष्ठातानुतिष्ठति-सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। ३. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (उदीच्याः दिशः अन्तर्देशात्) = उत्तरदिशा के अन्तर्देश से (उग्रं देवम्) = प्रचण्ड सामर्थ्यवाले [so powerful], शत्रुभयंकर [fierce], उदात्त [highly noble] दिव्य प्रभु को सब देवों ने (इष्वासम्) = धनुर्धर को (अनुष्ठातारं अकुर्वन्) = सब कार्यों को करने की सामर्थ्य देनेवाला किया। यह (उग्र देवः) = उदात्त, दिव्य प्रभु (इष्वासः) = धनुर्धर होकर (एनम्) = इस व्रात्य को (उदीच्या: दिश: अन्तर्देशात्) = ऊपर दिशा के मध्यदेश से (अनुष्ठाता अनुतिष्ठति) = सब कार्यों का सामर्थ्य देनेवाला होता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। ४. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (भुवाया: दिश: अन्तर्देशात्) = ध्रुवा दिशा के अन्तर्देश से रुद्रम्-शत्रुओं को रुलानेवाले प्रभु को सब देवों ने (इष्वासम्) = धनुर्धर को (अनुष्ठातारं अकुर्वन्) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देनेवाला बनाया। यह रुद्रः इष्वासः-रुद्र धनुर्धर (एनम्) = इस व्रात्य को ध्रुवायाः दिशः अन्तर्देशात्-ध्रुवादिशा के मध्यदेश से (अनुष्ठाता अनुतिष्ठाति) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। ५. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (ऊर्ध्वायाः दिश: अन्तर्देशात) = ऊर्ध्वा दिक के अन्तर्देश से (महादेवम्) = सर्वमहान्, सर्वपूज्य देव को सब देवों ने (इष्वासम्) = धनुर्धर की अनुष्ठातार अकुर्वन्-सब क्रियाओं का सामर्थ्य देनेवाला किया। (देवः) = यह महादेव (इष्वासः) = यह महान् धनुर्धर देव (एनम्) = इस व्रात्य को (ऊर्ध्वायाः दिश: अन्तर्देशात्) ऊर्वादिक् के अन्तर्देश से अनुष्ठाता (अनुतिष्ठति) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है। ६. (तस्मै) = उस व्रात्य के लिए (सर्वेभ्यः अन्तर्देशेभ्य:) = सब मध्य देशों से सब देवों ने (ईशानम्) = सबके शासक प्रभु (इष्यासम्) = धनुर्धर को (अनुष्ठातारं अकुर्वन्) = कार्यों को करने का सामर्थ्य देनेवाला किया। यह (ईशानः इष्वासः) = सबका ईशान प्रभु धनुर्धर होकर (एनम्) = इस ब्रात्य को (सर्वेभ्यः अन्तर्देशेभ्यः) = सब अन्तर्देशों से अनुष्ठाता (अनुतिष्ठति) = सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देता हुआ अनुकूलता से स्थित होता है।

    भावार्थ

    एक व्रात्य विद्वान् दक्षिण दिशा के अन्तर्देश में सर्वसंहारक प्रभु को अपने रक्षक व सामर्थ्यदाता के रूप में देखता है। पश्चिम दिशा के अन्तर्देश से सब प्राणियों का रक्षक प्रभु इसे अपने रक्षक के रूप में दिखता है। उत्तर दिशा के अन्तर्देश से प्रचण्ड सामर्थ्यवाले प्रभु उसका रकष ण कर रहे हैं तो धूवा दिशा के अन्तर्देश से रुद्र प्रभु उसके शत्रुओं को रुला रहे हैं। ऊध्यां दिशा के अन्तर्देश से महादेव उसका रक्षण कर रहे हैं तो सब अन्तर्देशों से ईशान उसके रक्षक बने हैं। इन्हें ही वह अपने लिए सब कार्यों को करने का सामर्थ्य देनेवाला जानता है।

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    भाषार्थ

    (तस्मै) उस व्रात्य संन्यासी के लिये [वैदिक विधियों ने] (उदीच्याः दिशः) पश्चिम दिशा सम्बन्धी (अन्तर्देशात्) अवान्तर अर्थात् पश्चिम-और-उत्तर के मध्यवर्ती वायव्य प्रदेश से (पशुपतिम्) पशुओं के पति अर्थात् रक्षक को (इष्वासम् मानो इषुप्रहारी या धनुर्धारीरूप में (अनुष्ठातारम्) व्रात्य के साथ निरन्तर स्थित रहने वाला (अकुर्वन्) निर्दिष्ट किया है।

    टिप्पणी

    [पशुपतिम् = पशु ५ प्रकार के हैं । यथा "तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावयः" (अथर्व० ५।२।९), अर्थात हे परमेश्वर ! तेरे पशुओं के ५ विभाग है, गौएं, अश्व, पुरुष, बकरियां तथा भेड़ें। इन सब का रक्षक परमेश्वर है। अथवा पश्यतीति पशुः अर्थात् इन्द्रियसम्पन्न समस्त प्राणिवर्ग का पति परमेश्वर]

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    विषय

    व्रात्य प्रजापति का राज्यतन्त्र।

    भावार्थ

    (प्रतीच्या दिशः अन्तः देशात्) पश्चिम दिशा के भीतरी देश से (तस्मै) उस व्रात्य प्रजापति के लिये (इष्वासम् पशुपतिम्) बाण फेंकने वाले धनुर्धर पशुपति को (अनुष्ठातारम् अकुर्वन्) चाकर कल्पित करते हैं। (यः एवं वेद) जो इस प्रकार के प्रजापति व्रात्य के स्वरूप को जानता है (पशुपतिः इष्वासः) पशुपति धनुर्धर (एनम्) उसको (प्रतीच्याः दिशः अन्तर्देशात्) पश्चिम दिशा के भीतरी प्रदेश से (अनुष्ठाता अनुतिष्ठति) भृत्य उसकी सेवा करता है (नैनं०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रुद्रगणसूक्तम्। मन्त्रोक्तो रुद्रो देवता। १ प्र० त्रिपदा समविषमा गायत्री, १ द्वि० त्रिपदा भुरिक् आर्ची त्रिष्टुप्, १-७ तृ० द्विपदा प्राजापत्यानुष्टुप्, २ प्र० त्रिपदा स्वराट् प्राजापत्या पंक्तिः, २-४ द्वि०, ६ त्रिपदा ब्राह्मी गायत्री, ३, ४, ६ प्र० त्रिपदा ककुभः, ५ ७ प्र० भुरिग् विषमागायत्र्यौ, ५ द्वि० निचृद् ब्राह्मी गायत्री, ७ द्वि० विराट्। षोडशर्चं पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    For that Vratya, from the intermediate direction of the western quarter, the Devas made Pashupati, protector of the living, wielder of the bow and arrow, the agent of his will and command.

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    Translation

    For him, from the intermediate region of the western quarter, they have made the archer Pasupati (the Lord of animals) the attendant.

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    Translation

    They from the intermediate space of the western region make for him archer Pashupati a deliverer.

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    Translation

    God, the Ruler of mankind, the foe of violence, a Guardian, guards him from the intermediate space of the western region. His, neither God, the Averter of suffering, nor God, the foe of voilence, nor the Almighty God, slays, who possesses this knowledge of God, or his cattle or his kinsmen.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६, ७−(प्रतीच्याः)पश्चिमायाः (पशुपतिम्) प्राणिनां रक्षकम् (पशुपतिः) प्राणिनां रक्षकः। अन्यत्पूर्ववत् ॥

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