अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 20
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - साम्नी अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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तं दिति॒श्चादि॑ति॒श्चेडा॑ चेन्द्रा॒णी चा॑नु॒व्यचलन् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । दिति॑: । च॒ । अदि॑ति: । च॒ । इडा॑ । च॒ । इ॒न्द्रा॒णी । च॒ । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलनम् ॥६.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
तं दितिश्चादितिश्चेडा चेन्द्राणी चानुव्यचलन् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । दिति: । च । अदिति: । च । इडा । च । इन्द्राणी । च । अनुऽव्यचलनम् ॥६.२०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर के सर्वस्वामी होने का उपदेश।
पदार्थ
(दितिः) दिति [खण्डितविकृति अर्थात् कार्यरूप नाशवान् सृष्टि] (च च) और (अदितिः) अदिति [अखण्डितप्रकृति अर्थात् जगत् की अविनाशी परमाणुरूप सामग्री] (च) और (इडा) इड़ा [प्राप्तियोग्य वेदवाणी] (च) और (इन्द्राणी) इन्द्राणी [इन्द्र अर्थात् जीव कीशक्ति] (तम्) उस [व्रात्य परमात्मा] के (अनुव्यचलन्) पीछे विचरे ॥२०॥
भावार्थ
परमात्मा की अपार, अनादि और अनन्त शक्ति है, मनुष्य जितना-जितना खोजता है, उतना-उतना ही जगदीश्वरकी सृष्टि और परमाणुरूप सामग्री को अनादि अनन्त ही पाता जाता है और वेद द्वाराअपनी शक्ति बढ़ाता हुआ आनन्द मनाता चला चलता है ॥१९, २०, २१॥
टिप्पणी
२०, २१−(तम्)व्रात्यम् (दितिः) दो अवखण्डने-क्तिच्। खण्डिता विकृतिः। कार्यरूपा नाशशीलासृष्टिः (अदितिः) दो अवखण्डने-क्तिन्। अखण्डिता प्रकृतिः। अविनाशिनी परमाणुरूपासामग्री (इडा) वेदवाणी निघ० १।११ (इन्द्राणी) इन्द्रस्य जीवस्य पत्नी विभूतिःशक्तिः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
विषय
अनावृत्ता दिशा में 'दिति, अदिति, इडा, इन्द्राणी'
पदार्थ
१. (सः) = वह व्रात्य (अनावृत्तां दिशं अनुव्यचलत्) = अनावृत्ता दिशा में अनुकूलता से गतिवाला हुआ (ततः) = तब (न आवर्त्स्यन् अमन्यत) = 'लौटूंगा नहीं', ऐसा उसने विचार किया। 'आगे और आगे चलते चलना, लौटना नहीं, वही वस्तुत: एक संन्यस्त का आदर्श है। (तम्) = उस व्रात्य को इस अनावृत्ता दिशा में चलने पर (दितिः च अदितिः च) = वासनाओं का खण्डन और स्वास्थ्य का अखण्डन [पवित्रता व स्वास्थ्य] (च) = तथा (इडा इन्द्राणी च) = वेदवाणी और इन्द्रशक्ति (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुई। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार न लौटने की दिशा के महत्व को समझ लेता है (सः) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (दितेः च अदिते: च) = वासना-विनाश और स्वास्थ्य के अविनाश का (च) = तथा (इडायाः इन्द्राण्या: च) = वेदवाणी व इन्द्रशक्ति का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय आधार बनता है।
भावार्थ
हम 'आगे बढ़ना और न लौटने का व्रत लेकर 'पवित्र, स्वस्थ, ज्ञानी व आत्मशक्ति-सम्पन्न' बनें।
भाषार्थ
(तम् अनु) उस व्रात्य संन्यासी के अनुकूल या साथ साथ (दितिः, च) दिति अर्थात् विनाश शक्ति (आदितिः, च) और निर्माणशक्ति, (इडा, च) वाक्शक्ति (इन्द्राणी, च) और जीवात्मा की आत्मिक शक्ति (व्यचलन्) विशेषतया चलीं।
टिप्पणी
[दितिः१= दो (अवखण्डने, दीङ्क्षये) + क्तिन्। अर्थात् विनाश करने की शक्ति। अदिति= विनाश शक्ति की विरोधिनी निर्माणशक्ति। जीवन्मुक्त को ये दोनों शक्तियां प्राप्त रहती हैं। वह पापों के विनाश तथा सद्गुणों के आवाप या निर्माण में समर्थ होता है। सर्वभावाधिष्ठातृत्व शक्ति के कारण वह प्राकृतिक वस्तु के विनाश तथा निर्माण का भी सामर्थ्य रखता है। इडा = वाणी; speech (आप्टे)। जीवन्मुक्त ऋषियों की वाणी सत्यसिद्ध होती है। भवभूति कवि ने कहा है कि "ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुवर्त्तते" (उत्तर रामचरित) अर्थात् आदि के ऋषियों की वाक्शक्ति के अनुसार वस्तुसिद्धि हो जाया करती थी। इन्द्राणी= इन्द्र (जीवात्मा), उस की निजशक्ति, आत्मिक शक्ति। इसलिये इन्द्र अर्थात् जीवात्मा के ज्ञान-तथा-कर्म के साधनों को इन्द्रिय कहते हैं। व्यचलन् = ये शक्तियां जीवन्मुक्त के साथ साथ चलती है, अर्थात् उस की सहचारिणी बन जाती हैं][१. अथवा दिति अर्थात् नश्वर प्राकृतिक शक्ति, और अदिति अर्थात् अनश्वर पारमेश्वरी शक्ति उच्चतम कोटि के जीवन्मुक्त की सदा सहायता करती है।]
विषय
व्रात्य प्रजापति का प्रस्थान।
भावार्थ
(सः) वह (अनावृत्तां दिशम् अनुव्यचलत्) ‘अनावृत्ता’ जिधर से लौटकर फिर न आया जाय उस दिशा को चला। (ततः) तब वह व्रात्य प्रजापति अपने को (न आवर्त्स्यन्) कभी न लौटने वाला ही (अमन्यत) मानने लगा। (तं) उसके पीछे (दितिः च अदितिः च) दिति और अदिति (इडा च इन्द्राणी च) इडा और इन्द्राणी भी (अनु व्यचलन्) चले। (य एवं वेद) जो प्रजापति के इस स्वरूप को साक्षात् करता है (स) वह (दितेः च, अदितेः च, इडायाः च, इन्द्राण्याः च) दिति, अदिति, इडा और इन्द्राणी का (प्रियं धाम भवति) प्रिय आश्रय हो जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ प्र०, २ प्र० आसुरी पंक्तिः, ३-६, ९ प्र० आसुरी बृहती, ८ प्र० परोष्णिक्, १ द्वि०, ६ द्वि० आर्ची पंक्तिः, ७ प्र० आर्ची उष्णिक्, २ द्वि०, ४ द्वि० साम्नी त्रिष्टुप्, ३ द्वि० साम्नी पंक्तिः, ५ द्वि०, ८ द्वि० आर्षी त्रिष्टुप्, ७ द्वि० साम्नी अनुष्टुप्, ६ द्वि० आर्ची अनुष्टुप्, १ तृ० आर्षी पंक्तिः, २ तृ०, ४ तृ० निचृद् बृहती, ३ तृ० प्राजापत्या त्रिष्टुप्, ५ तृ०, ६ तृ० विराड् जगती, ७ तृ० आर्ची बृहती, ९ तृ० विराड् बृहती। षड्विंशत्यृचं षष्ठं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Him followed Did, the mutability and evolution of Prakrti, Aditi, the constancy of Prakrti, Ida, eternal Speech, Indrani, divine Energy.
Translation
Diti (bondage) and Aditi (freedom), Ida and Indrani started following him.
Translation
Ditih (the effect forms of things), Aditi, the material causd of the universe (Matter), Ida, the cereal and voice, and Indrani, the power of the things invested with powers follow him. He who possesses the knowledge of this becomes the favourable abode of Diti, Aditi, Ida and Indrani.
Translation
The destructible world, and the indestructible Matter, and Vedic speech, and soul-force, remain under His control.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२०, २१−(तम्)व्रात्यम् (दितिः) दो अवखण्डने-क्तिच्। खण्डिता विकृतिः। कार्यरूपा नाशशीलासृष्टिः (अदितिः) दो अवखण्डने-क्तिन्। अखण्डिता प्रकृतिः। अविनाशिनी परमाणुरूपासामग्री (इडा) वेदवाणी निघ० १।११ (इन्द्राणी) इन्द्रस्य जीवस्य पत्नी विभूतिःशक्तिः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
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