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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 25
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    42

    तं प्र॒जाप॑तिश्चपरमे॒ष्ठी च॑ पि॒ता च॑ पिताम॒हश्चा॑नु॒व्यचलन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । प्र॒जाऽप॑ति: । च॒ । प॒र॒मे॒ऽस्थी । च॒ । पि॒ता । च॒ । पि॒ता॒म॒ह: । च॒ । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलन् ॥६.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं प्रजापतिश्चपरमेष्ठी च पिता च पितामहश्चानुव्यचलन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । प्रजाऽपति: । च । परमेऽस्थी । च । पिता । च । पितामह: । च । अनुऽव्यचलन् ॥६.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के सर्वस्वामी होने का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रजापतिः) प्रजापालक [राजा] (च च) और (परमेष्ठी) परमेष्ठी [बड़े पदवाला आचार्य वा सन्यासी] (च) और (पिता) बाप (च) और (पितामहः) दादा (तम्) उस [व्रात्य परमात्मा] के (अनुव्यचलन्)पीछे विचरे ॥२५॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् पुरुषगहरे विचार से यह देखते हैं कि संसार में सब लोग परब्रह्म परमात्मा की आज्ञामानने से बड़े हुए हैं, वे ही ईश्वर की आज्ञा में रहकर उन्नति करते और आनन्दभोगते हैं ॥२४-२६॥

    टिप्पणी

    २४-२६−(सः) व्रात्यःपरमात्मा (अन्तर्देशान्) मध्यदेशान् (तम्) व्रात्यम् (प्रजापतिः) प्रजापालकोराजा (परमेष्ठी) उच्चपदस्थ आचार्यः संन्यासी वा (पिता) जनकः (पितामहः) पितुःपिता। अन्यत् पूर्ववद् यथोचितं योजनीयं च ॥

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    विषय

    प्रजापति परमेष्ठी तथा पिता, पितामह

    पदार्थ

    १. (सः) = वह व्रात्य (सर्वान् अन्तर्देशान् अनुव्यचलत्) = सब अन्तर्देशों में-दिशाओं के मध्यमार्गों में अनुकूलता से गतिवाला हुआ। अविरोध से यह अपने मार्ग पर बढ़नेवाला बना (च) = और (तम्) = उस व्रात्य को (प्रजापतिः च) = प्रजारक्षक प्रभु (परमेष्ठी च) = सर्वोपरि स्थान में स्थित प्रभु पिता च पितामहः च-पिता और पितामह (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्रास हुए, अर्थात् इस ब्रात्य को प्रभु व पिता उत्तम प्रेरणा देनेवाले बने। २. (यः) = जो (एवं वेद) = इसप्रकार अविरोध से सब अन्तर्देशों में चलने के महत्व को समझ लेता है, (स:) = वह व्रात्य वै-निश्चय से (प्रजापते:) = प्रजारक्षक प्रभु का (परमेष्ठिन: च) = और परम स्थान में स्थित प्रभु का (च) = और (पितुः पितामहस्य च) = पिता व पितामह का प्(रियं धाम भवति) = प्रिय धाम बनता है।

    भावार्थ

    एक व्रात्य विद्वान् सब अन्तर्देशों में [दिङ्मयों में] अविरोध से चलता हुआ सर्वरक्षक व सर्वश्रेष्ठ प्रभु का तथा पिता व पितामह का प्रिय बनता है।

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    भाषार्थ

    (तम्, अनु) उस व्रात्य-संन्यासी के अनुकूल होकर, (प्रजापतिः च) प्रजाजनों का रक्षक राजा, (परमेष्ठी च) और सर्वोच्च स्थान में स्थित सम्राट्, (पिता, च, पितामहः च) तथा प्रजावर्ग के बुज़ुर्ग (व्यचलन्) विशेषतया चले।

    टिप्पणी

    [प्रजापतिः= "सभा च मा समिति श्चावतां प्रजापतेर्दुहितरौ संविदाने" (अथर्व० ८।१२।१) में प्रजापति द्वारा राजा का वर्णन हुआ हैं। इस मन्त्र का अभिप्राय यह है कि "सभा (लोकसभा) और समिति (राजसभा) या युद्धसमिति, एकमत होकर, मेरी रक्षा करें और मेरी कामना को पूर्ण करें, या मेरी दो पुत्रियों के सदृश मेरी रक्षा करें। दुहितर= दुह प्रपूर्णे। परमेष्ठी१= महाराज, सर्वोपरि राजा, (अथर्व० १३।१।१७,१८,१९), सम्राट्। [१. काण्ड १३, सूक्त १ राष्ट्र परक है। यथा "राष्ट्रं प्रविश सूनृतावत्" (१३।१।१)। काण्ड १२, सूक्त १ के मन्त्र १७, १८, १९ में "परमेष्ठिन्" पद सम्राट परक प्रतीत होता है। वस्तुतः सूक्त १ में सूर्य, परमेश्वर और सम्राट् का मिश्रित वर्णन है।]

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    विषय

    व्रात्य प्रजापति का प्रस्थान।

    भावार्थ

    (सः) वह (सर्वान् अन्तर्देशान् अनु व्यचलत्) समस्त भीतरी दिशों में चला। (तम् प्रजापतिः च, परमेष्ठी च, पिता च, पितामहः च अनुव्यचलन्) उसके पीछे प्रजापति, परमेष्ठी, पिता और पितामह भी चले। (यः एवं वेद) जो मनुष्य प्रजापति के इस प्रकार स्वरूप को साक्षात् करता है (सः वै) वह निश्चय से (प्रजापतेः च परमेष्ठिनः च, पितामहस्य च, प्रियं धाम भवति) प्रजापति, परमेष्ठी, पिता और पितामह का प्रिय आश्रय हो जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र०, २ प्र० आसुरी पंक्तिः, ३-६, ९ प्र० आसुरी बृहती, ८ प्र० परोष्णिक्, १ द्वि०, ६ द्वि० आर्ची पंक्तिः, ७ प्र० आर्ची उष्णिक्, २ द्वि०, ४ द्वि० साम्नी त्रिष्टुप्, ३ द्वि० साम्नी पंक्तिः, ५ द्वि०, ८ द्वि० आर्षी त्रिष्टुप्, ७ द्वि० साम्नी अनुष्टुप्, ६ द्वि० आर्ची अनुष्टुप्, १ तृ० आर्षी पंक्तिः, २ तृ०, ४ तृ० निचृद् बृहती, ३ तृ० प्राजापत्या त्रिष्टुप्, ५ तृ०, ६ तृ० विराड् जगती, ७ तृ० आर्ची बृहती, ९ तृ० विराड् बृहती। षड्विंशत्यृचं षष्ठं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Him followed Prajapati, sustainer of the people, Parameshthi, supreme power of universal sustenance, Pita and Pitamahas, generators and grand generators of life.

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    Translation

    Prajapati (Lord of creatures) and Paramesthi (the Lord dwelling in the highest abode), the father and the grandfather started following him.

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    Translation

    Prajaptih, Parmesthin, father and grand-father follow him.

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    Translation

    The King, the Acharya, the father and grandfather remain under His control.

    Footnote

    Parmeshthin may also mean Sanyasi,

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४-२६−(सः) व्रात्यःपरमात्मा (अन्तर्देशान्) मध्यदेशान् (तम्) व्रात्यम् (प्रजापतिः) प्रजापालकोराजा (परमेष्ठी) उच्चपदस्थ आचार्यः संन्यासी वा (पिता) जनकः (पितामहः) पितुःपिता। अन्यत् पूर्ववद् यथोचितं योजनीयं च ॥

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