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अथर्ववेद के काण्ड - 16 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वाक् देवता - आर्ची अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
    55

    सुश्रु॑तिश्च॒मोप॑श्रुतिश्च॒ मा हा॑सिष्टां॒ सौप॑र्णं॒ चक्षु॒रज॑स्रं॒ ज्योतिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽश्रु॑ति: । च॒ । मा॒ । उप॑ऽश्रुति: । च॒ । मा । हा॒सि॒ष्टा॒म् । सौप॑र्णम् । चक्षु॑: । अज॑स्रम् । ज्योति॑: ॥२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुश्रुतिश्चमोपश्रुतिश्च मा हासिष्टां सौपर्णं चक्षुरजस्रं ज्योतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽश्रुति: । च । मा । उपऽश्रुति: । च । मा । हासिष्टाम् । सौपर्णम् । चक्षु: । अजस्रम् । ज्योति: ॥२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इन्द्रियों की दृढ़ता का उपदेश।

    पदार्थ

    (सुश्रुतिः) शीघ्रसुनना (च च) और (उपश्रुतिः) अङ्गीकार करना (मा) मुझे (मा हासिष्टाम्) दोनों नछोड़ें, (सौपर्णम्) समस्त पूर्तिवाली (चक्षुः) दृष्टि और (अजस्रम्) अचूक (ज्योतिः) ज्योति [बनी रहे] ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्य ब्रह्मचर्य आदिके सेवन से अपने श्रवण इन्द्रियों को विकल न होने दें और ऐसा स्वस्थ रक्खें किवे अपने विषयों को पूर्ण रीति से शीघ्र अङ्गीकार कर लें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(सुश्रुतिः)शीघ्रश्रवणम् (च) (मा) माम् (उपश्रुतिः) विषयाणामङ्गीकारः (च) (मा हासिष्टाम्) ओहाक् त्यागे-लुङ्। न त्यजताम् (सौपर्णम्) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। सु+पॄपालनपूरणयोः-न, सुपर्णम्-अण्। बहुपूर्त्तियुक्तम् (चक्षुः) दृष्टिः (अजस्रम्)निरन्तरम् (ज्योतिः) तेजः ॥

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    विषय

    सुश्रुति+उपश्रुति

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! (सुश्रुतिः च) = उत्तम श्रवण-शक्ति तथा (उपश्रुतिः च) = आचार्यों के समीप रहकर श्रवण (मा) = मुझे (मा हासिष्टाम्) = मत छोड़ जाएँ । मैं सदा उत्तम श्रवणशक्तिवाला होऊँ और ज्ञानियों के चरणों में उपस्थित होकर ज्ञान की वाणियों का श्रवण करूँ। २. (सौपर्ण चक्षुः) = सुपर्ण [गरुड़] की दृष्टि हमें प्राप्त हो-हम दूर तक देख सकें । अथवा (सौपर्णम्) = उत्तमता से पालन व पूरण करनेवाली दृष्टि हमें प्राप्त हो और (अजस्त्रं ज्योति:) = हमारी ज्ञान की ज्योति निरन्तर दीस रहे हम स्वाध्याय से कभी पराङ्मुख न हों।

    भावार्थ

    हमारी कान की शक्ति ठीक रहे, हम सदा आचार्यचरणों में ज्ञानचर्चाओं को सुनें। दूरदृष्टि बनें, स्वाध्याय में कभी विच्छेद न होने दें।

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    भाषार्थ

    (सुश्रुतिः, च) अच्छी-वेदवाणी, (उपश्रुतिः, च) और समीप होकर श्रद्धापूर्वक उस का श्रवण (मा) मुझे (मा)(हासिष्टाम्) त्यागें। (सौपर्णम्१, चक्षुः) गरुड़ समान तीक्ष्ण दृष्टि तथा सूक्ष्मदृष्टि, और (अजस्रम्, ज्योतिः) अनश्वर ज्योति परमेश्वर (मा हासिष्टाम्) मेरा परित्याग न करें।

    टिप्पणी

    [उपश्रुतिः= अभवा नक्तं निर्गत्य यत्किंचिच्छुभाशुभकरं वचः। श्रूयते तद्विदुर्धीराः देवप्रश्रवमुपश्रुति ॥ "A supernatural voice heard at night and personified as a noctunal diety revealing the future (आप्टे)। सुश्रुति, श्रुतिः=श्रुतिस्तु वेदोविज्ञेयः (मनु०)] [१. सौपर्ण चक्षूः=Eagle-like sight; fiercing eye; discerning (आप्टे)। अथवा सुपर्ण = सूर्य की किरणें । सौपर्ण=किरणों के सदृश चमकीली चक्षुः।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vak Devata

    Meaning

    Let the divine voice of Shruti, Veda, and Upashruti, Smrti and recitation never forsake me. Let the eye, efficient and intense as that of the eagle, and the eternal light of Divinity never forsake me.

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    Translation

    May not the good hearing and attentive listening desert me. May the eagles's eye, the unfailing light (be for me).

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    Translation

    Let not sound-hearing and over-hearing ever leave me, let ever remain with us undecaying Eagles eye-sight.

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    Translation

    Let not my power of quick hearing and hearing from a distance. Let my vision be keen like that of an eagle. Let not its light ever fade.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(सुश्रुतिः)शीघ्रश्रवणम् (च) (मा) माम् (उपश्रुतिः) विषयाणामङ्गीकारः (च) (मा हासिष्टाम्) ओहाक् त्यागे-लुङ्। न त्यजताम् (सौपर्णम्) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। सु+पॄपालनपूरणयोः-न, सुपर्णम्-अण्। बहुपूर्त्तियुक्तम् (चक्षुः) दृष्टिः (अजस्रम्)निरन्तरम् (ज्योतिः) तेजः ॥

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