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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रसूक्त
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    परी॒दं वासो॑ अधिथाः स्व॒स्तयेऽभू॑र्वापी॒नाम॑भिशस्ति॒पा उ॑। श॒तं च॒ जीव॑ श॒रदः॑ पुरू॒चीर्वसू॑नि॒ चारु॒र्वि भ॑जासि॒ जीव॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑। इ॒दम् । वासः॑। अ॒धि॒थाः॒। स्व॒स्तये॑। अभूः॑। वा॒पी॒नाम्। अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपाः। ऊं॒ इति॑। श॒तम्। च॒। जीव॑। श॒रदः॑। पु॒रू॒चीः। वसू॑नि। चारुः॑। वि। भ॒जा॒सि॒। जीव॑न् ॥२४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परीदं वासो अधिथाः स्वस्तयेऽभूर्वापीनामभिशस्तिपा उ। शतं च जीव शरदः पुरूचीर्वसूनि चारुर्वि भजासि जीवन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि। इदम् । वासः। अधिथाः। स्वस्तये। अभूः। वापीनाम्। अभिशस्तिऽपाः। ऊं इति। शतम्। च। जीव। शरदः। पुरूचीः। वसूनि। चारुः। वि। भजासि। जीवन् ॥२४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 24; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे राजन् !] (इदम्) इस (वासः) वस्त्र को (स्वस्तये) आनन्द बढ़ाने के लिये (परि अधिथाः) तूने धारण किया है, (उ) और (वापीनाम्) बोने की भूमियों [खेती आदि अथवा बावड़ी, कूप आदि] का (अभिशस्तिपाः) खण्डन से बचानेवाला (अभूः) तू हुआ है। (च) और (पुरूचीः) बहुत पदार्थों से व्याप्त (शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतुओं तक (जीव) तू जीवित रह और (चारुः) शोभायमान होकर (जीवन्) जीता हुआ तू (वसूनि) धनों को (वि भजासि) बाँटता रह ॥६॥

    भावार्थ

    राजा शासनपद ग्रहण करके सबकी भलाई का प्रयत्न करता हुआ प्रजा को धनी बनाकर कीर्तिमान् होवे ॥६॥ यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है-अ०२।१३।३॥

    टिप्पणी

    ६−(इदम्) उपस्थितम् (वासः) वस्त्रम् (परि अधिथाः) आच्छादितवानसि (स्वस्तये) आनन्दवर्धनाय (अभूः) (वापीनाम्) वसिवपियजि०।उ०४।१२५। डुवप बीजतन्तुसन्ताने-इञ् प्रत्ययः। वपन्ति बीजं विस्तारयन्ति यत्र तासां भूमीनाम्। कूपादिजलाशयभेदानाम् (अभिशस्तिपाः) खण्डनाद् रक्षकः (वसूनि) धनानि (चारुः) शोभनः (वि भजासि) भजतेर्लेटि आडागमः। विभक्तान् कुरु (जीवन्) प्राणान् धारयन्। अन्यत् पूर्ववत्-म०५॥

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    विषय

    वापी-रक्षण

    पदार्थ

    १. हे मनुष्य! तू (इदं वास:) = इस ज्ञानवस्त्र को (परि अधिथा:) = सम्यक् धारण करनेवाला बन-इससे तू चारों ओर से अपने को ढक ले। इसके धारण से तू (स्वस्तये अभूः) = कल्याण के लिए हो (उ) = और निश्चय से (वापीनाम्) = उत्तम गुणों के बीजों का वपन करनेवाली इन ज्ञानवाणियों का (अभिशस्तिपा:) = हिंसन से रक्षण करनेवाला हो। तू स्वाध्याय में कभी विच्छेद करनेवाला न बन २. (च) = और (पुरूची:) = खूब ही गतिवाली (शतं शरदः) = सौ शरद् ऋतुओं तक तू (जीव) = जी और (जीवन) = जीवन को धारण करता हुआ तू (चारु:) = चरणशील होता है-भक्षण की क्रियावाला होता है। तू जीने के लिए ही खाता है। विलास में धन का व्यय कभी नहीं करता। तू इन (वसूनि) = धनों को विभजासि सबके प्रति विभक्त करनेवाला होता है-यज्ञों के द्वारा तू इसे सभी के प्रति विभक्त करता है। स्वयं यज्ञशेष का ही सेवन करता है।

    भावार्थ

    ज्ञानवस्त्र को धारण करके हम अपना रक्षण करते हुए कल्याण प्राप्त करें। ज्ञान वाणियों का सदा रक्षण करते हुए उत्तम गुणों के बीजों को अपने में बोएँ । दीर्घकाल तक जीएँ। केवल शरीर-रक्षण के लिए भोजन करता हुआ तू धन को विभक्त कर।

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    भाषार्थ

    हे सम्राट्! (स्वस्तये) प्रजा के कल्याण के लिए (इदम्) इस (वासः) राज्याभिषेक के वस्त्र को (परि अधिथाः) आपने धारण किया है, पहना है। आप (उ) निश्चय से (वापीनाम्) बीजबोई खेतियों, और बावड़ी आदि जलाशयों की (अभिशस्तिपाः) विनाश से रक्षा करनेवाले (अभूः) हुए हैं। (शतं....पुरूचीः) आप नाना कार्यों से व्याप्त सौ वर्ष जीवित रहिए, और (जीवन्) जीवित रहते हुए (वसूनि) सम्पत्तियों का (विभजासि) यथोचित विभाग प्रजाजनों में करते रहिए, (चारुः) इस प्रकार आप प्रजाजनों के लिए रुचिकर बनिए।

    टिप्पणी

    [वापीनाम्= वपन्ति बीजानि यत्रेति वापिः, जलाशयभेदो वा (उणा० ४.१२६)। वि भजासि=राष्ट्र की सम्पत्तियों का यथोचित विभाग प्रजाजनों में करना, यह राजा का काम है। चारुः= रुचेविपरीतस्य (निरु० ११.१.६)।]

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    विषय

    राजा के सहायक रक्षक और विशेष वस्त्र।

    भावार्थ

    हे राजन् ! (इदम् वासः) तू इस वस्त्र को (परि अधिथाः) धारण कर और (वापीनाम्) अपने बीज वपन द्वारा खेतियों को बोने वाले कृशक प्रजाओं या (वापीनाम्) अपने बीजवपन द्वारा सन्तानों को उत्पन्न करने वाली प्रजाओं के (अभि-शस्तिपाः उ) ऊपर चारों ओर से होने वाले हिंसामय चोर डाकुओं के आघातों से रक्षा करने वाला होकर ही तू उनके (स्वस्तये) सुख कल्याण के लिये (अभूः) हो। और (पुरूचीः) पुरु-नाना अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले अनेक भोग्य पदार्थों से परिपूर्ण (शरदः शतम्) सौ बरसों तक (जीव) प्राण धारण कर। और (जीवन्) अपने जीते हुए ही तू (चारुः) पृथ्वी के उत्तम जीवन सुखों को यथावत् भोगता हुआ भी (वसूनि) प्रजा के जीवन और आवास के उपयोगी नाना धन सम्पत्तियों को (वि भजासि) विविध रूपों में बांटा कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः देवता। १-३ अनुष्टुप, ४-६, ८ त्रिष्टुप, ७ त्रिपदाआर्षीगायत्री।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rashtra

    Meaning

    O Ruler, put on this robe of office for the honour and well being of your dominion and her people. Be protector and promoter of the water reservoirs and fields against pollution and depletion. Live a full hundred years of life full of abundant wealth and joy and be the people’s favourite sharer and dispenser of the wealth, dignity and excellences of life.

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    Translation

    You have put on this garment for weal. Also you have become protector of your allies from misfortune. May you live through a hundred long autumns. Living handsomely, may you share out riches.

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    Translation

    O King, you wrap you in this garment and becoming the guard from troubles be for the well-being of the Peasants, live you for hundred full and plenteous autumns and enrich you with wealth and Prosperity and living fairly distribute wealth to subjects.

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    Translation

    O king, put on this royal robe and work as a guard against all the potent attacks on the farmers and the subjects of yours by the wicked people, for their welfare and happiness. Live for hundred years, while living, and enjoying all worldly pleasures, distribute profuse riches amongst your people.

    Footnote

    (1-6) Harmony among the king and his subjects is the key-note of a prosperous and peaceful life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(इदम्) उपस्थितम् (वासः) वस्त्रम् (परि अधिथाः) आच्छादितवानसि (स्वस्तये) आनन्दवर्धनाय (अभूः) (वापीनाम्) वसिवपियजि०।उ०४।१२५। डुवप बीजतन्तुसन्ताने-इञ् प्रत्ययः। वपन्ति बीजं विस्तारयन्ति यत्र तासां भूमीनाम्। कूपादिजलाशयभेदानाम् (अभिशस्तिपाः) खण्डनाद् रक्षकः (वसूनि) धनानि (चारुः) शोभनः (वि भजासि) भजतेर्लेटि आडागमः। विभक्तान् कुरु (जीवन्) प्राणान् धारयन्। अन्यत् पूर्ववत्-म०५॥

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