अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
भि॒न्द्धि द॑र्भ स॒पत्ना॑नां॒ हृद॑यं द्विष॒तां म॑णे। उ॒द्यन्त्वच॑मिव॒ भूम्याः॒ शिर॑ ए॒षां वि पा॑तय ॥
स्वर सहित पद पाठभि॒न्द्धि। द॒र्भ॒। स॒ऽपत्ना॑नाम्। हृद॑यम्। द्वि॒ष॒ताम्। म॒णे॒। उ॒त्ऽयन्। त्वच॑म्ऽइव। भूम्याः॑। शिरः॑। ए॒षाम्। वि। पा॒त॒य॒ ॥२८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
भिन्द्धि दर्भ सपत्नानां हृदयं द्विषतां मणे। उद्यन्त्वचमिव भूम्याः शिर एषां वि पातय ॥
स्वर रहित पद पाठभिन्द्धि। दर्भ। सऽपत्नानाम्। हृदयम्। द्विषताम्। मणे। उत्ऽयन्। त्वचम्ऽइव। भूम्याः। शिरः। एषाम्। वि। पातय ॥२८.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सेनापति के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
(मणे) हे प्रशंसनीय (दर्भ) दर्भ ! [शत्रुविदारक सेनापति] (सपत्नानाम्) वैरियों और (द्विषताम्) विरोधियों के (हृदयम्) हृदय को (भिन्द्धि) तोड़ दे। (उद्यन्) उठता हुआ तू, (भूम्याः) भूमि की (त्वचम् इव) त्वचा [तृण आदि] के समान (एषाम्) इन शत्रुओं का (शिरः) शिर (वि पातय) गिरा दे ॥४॥
भावार्थ
पराक्रमी सेनापति शत्रुओं में फूट डालकर घास-फूँस के समान नाश करे ॥४॥
टिप्पणी
४−(भिन्द्धि) विदारय (दर्भ) हे शत्रुविदारक (सपत्नानाम्) शत्रूणाम् (हृदयम्) (द्विषताम्) वैरिणाम् (मणे) हे प्रशस्त (उद्यन्) ऊर्ध्वं गच्छन्। उन्नतः सन् (त्वचम्) उपरिदेशं तृणादिकम् (इव) यथा (भूम्याः) पृथिव्याः (शिरः) मस्तकम् (एषाम्) शत्रूणाम् (विपातय) विविधं पातय विनाशय ॥
विषय
शत्रु-शिरो-विपातन
पदार्थ
१. हे (दर्भ) = दर्भमणे-रोगरूप शत्रुओं की हिंसक बीर्यमणे! तू (सपत्नानाम्) = रोगरूप शत्रुओं के (हृदयम्) = हृदय को (भिन्धि) = विदीर्ण कर दे। रोगों के प्राबल्य को समाप्त कर दे। २. (उद्यन्) = शरीर में ऊर्ध्व गतिवाली होती हुई तू (भूम्या: त्वचम् इव) = जैसे कोई कुदाल आदि से भूमि की उपरली त्वचा को खोद डालता है, उसी प्रकार तू (एषां द्विषताम्) = इन, हमारे साथ प्रीति न करनेवाले रोगरूष शत्रुओं के (शिरः विपातय) = सिर को काटकर गिरा दे।
भावार्थ
शरीर में वीर्य की ऊर्ध्वगति होने पर रोगरूप शत्रुओं का सिर कट जाता है, अर्थात् रोग विनष्ट हो जाते हैं।
भाषार्थ
(दर्भ) हे शत्रुविदारक (मणे) शिरोमणि सेनापति! (सपत्नानाम्) आन्तरिक-विद्रोहियों, और (द्विषताम्) द्वेषी-शत्रुओं के (हृदयम्) हृदयों में (भिन्धि) तू विभेद डाल दे, इनमें भेदनीति को वर्त। तथा (एषाम्) इनके (शिरः) शिरोभूत सेनापति या राजा को (वि पातय) इनसे विगत कर दे, अलग कर दे, या मार गिरा। (इव) जैसे कि (उद्यन्) उदित होता हुआ सूर्य (त्वचमिव) शारीरिक त्वचा के सदृश (भूम्याः) भूमि को आवृत किये हुए भूमि के रात्र्यन्धकार को विगत कर देता है, अलग कर देता है।
टिप्पणी
[वि पातय=वि+पत्लृ गतौ; पत् गतौ।]
विषय
शत्रुनाशक सेनापति दर्भ मणि का वर्णन।
भावार्थ
हे (दर्भ) शत्रुहिंसक दर्भ ! सेनापते ! हे (मणे) मननशील शिरोमणे ! सेनापते ! तू (सपत्नानां) हमारे राष्ट्र पर अपना अधिकार करने वाले और (द्विषताम्) द्वेष करने वाले पुरुषों के (हृदयं भिन्धि) हृदय को तोड़ दे। और (उद्यन्) ऊपर उठता हुआ सूर्य जिस प्रकार (भूम्या) पृथिवी के (त्वचम् इव) घेरने वाले मेघ को नीचे बरसा देता है उसी प्रकार तु (उद्यन्) ऊपर उठता हुआ (एषाम् शिरः) इन शत्रुओं के शिर को (वि पातय) नाना प्रकार से नीचे गिरा दे। हे सेनापते ! तू (उद्यन् एषां शिरः भूम्याः त्वचम् इव निपातय) उदित होता हुआ इन शत्रुओं के शिर को भूमि की त्वचा या धूल या तृण के समान विविध दिशाओं में गिरा गिरा कर बिछादे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सपत्नक्षय कामो ब्रह्माऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भमणिर्देवता। अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Darbha Mani
Meaning
O Darbha, O Jewel, break asunder the heart core of the rival and jealous negative forces and, rising like the sun removing the dark veil of the earth, throw off the umbrella cover of these enemy forces.
Translation
May you, O darbha, split the hearts of (my) malicious rivals: (thereafter) going upwards, may you make their heads fall down like the skin of the earth.
Translation
Let this nice Darbha tend the heart of the enemies who bear enmity with me and strike down the head of these enemies as it rising above {sprouting above) cleaves the hard crust of the earth.
Translation
O darbha mani, pierce the heart of the hating enemies. Just as the rising sun fells the cloud, that covers the earth like the skin, completely fallest thou off the heads of these enemies.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(भिन्द्धि) विदारय (दर्भ) हे शत्रुविदारक (सपत्नानाम्) शत्रूणाम् (हृदयम्) (द्विषताम्) वैरिणाम् (मणे) हे प्रशस्त (उद्यन्) ऊर्ध्वं गच्छन्। उन्नतः सन् (त्वचम्) उपरिदेशं तृणादिकम् (इव) यथा (भूम्याः) पृथिव्याः (शिरः) मस्तकम् (एषाम्) शत्रूणाम् (विपातय) विविधं पातय विनाशय ॥
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