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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 58/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - यज्ञः, मन्त्रोक्ताः छन्दः - पुरोऽनुष्टुप्त्रिष्टुप् सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
    44

    उपा॒स्मान्प्रा॒णो ह्व॑यता॒मुप॑ प्रा॒णं ह॑वामहे। वर्चो॑ जग्राह पृथि॒व्यन्तरि॑क्षं॒ वर्चः॒ सोमो॒ बृह॒स्पति॑र्विध॒त्ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑। अ॒स्मान्। प्रा॒णः। ह्व॒य॒ता॒म्। उप॑। व॒यम्। प्रा॒णम्। ह॒वा॒म॒हे॒। वर्चः॑। ज॒ग्रा॒ह॒। पृ॒थि॒वी। अ॒न्तरि॑क्षम्। वर्चः॑। सोमः॑। बृह॒स्पतिः॑। वि॒ऽध॒त्ता ॥५८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपास्मान्प्राणो ह्वयतामुप प्राणं हवामहे। वर्चो जग्राह पृथिव्यन्तरिक्षं वर्चः सोमो बृहस्पतिर्विधत्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप। अस्मान्। प्राणः। ह्वयताम्। उप। वयम्। प्राणम्। हवामहे। वर्चः। जग्राह। पृथिवी। अन्तरिक्षम्। वर्चः। सोमः। बृहस्पतिः। विऽधत्ता ॥५८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 58; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्राणः) प्राण (अस्मान्) हमको (उप ह्वयताम्) समीप बुलावे, (वयम्) हम (प्राणम्) प्राण को (उप हवामहे) समीप बुलाते हैं। (पृथिवी) पृथिवी और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष ने (वर्चः) तेज (जग्राह) ग्रहण किया है, (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं के स्वामी], (विधत्ता) पोषण करनेवाले (सोमः) ऐश्वर्यवान् पुरुष ने (वर्चः) तेज [ग्रहण किया] है ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य अपनी आत्मा और शरीर की सदा रक्षा करके उनके द्वारा उपकारी होवे, जैसे पृथिवी और आकाश बलवान् होकर पदार्थों और लोकों को धारण करते हैं और जैसे विद्वान् तेजस्वी पुरुष विविध कार्य सिद्ध करता है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(उप) समीपे (अस्मान्) (प्राणः) म० १। शरीरधारको वायुः (ह्वयताम्) (उप) (वयम्) (प्राणम्) शरीरधारकं वायुम् (हवामहे) आह्वयामः (वर्चः) तेजः (जग्राह) स्वीचकार (पृथिवी) (अन्तरिक्षम्) (वर्चः) (सोमः) ऐश्वर्यवान् पुरुषः (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालकः (विधत्ता) आकारस्य ह्रस्वे कृते तकारस्य द्वित्वम्। विधाता। विविधपोषकः ॥

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    भाषार्थ

    (प्राणः) प्राणों का प्राण परमेश्वर [यज्ञों द्वारा प्रसन्न होकर] (अस्मान्) हम यज्ञकर्त्ताओं को (उप ह्वयताम्) अपने समीप बुला ले [यह हमारी प्रार्थना है]। और (वयम्) हम भी (प्राणम्) प्राणों के प्राण परमेश्वर को (उप) उपासना विधि द्वारा (हवामहे) सहायतार्थ पुकारते हैं। यज्ञों द्वारा (पृथिवी) पृथिवीस्थ पदार्थों तथा पृथिवीस्थ प्रजाजन ने (वर्चः) तेज (जग्राह) ग्रहण किया है। (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्षस्थ वायु आदि ने, (सोमः) चन्द्रमा की किरणों ने, (विधर्ता) तथा सब का धारण करनेवाले (बृहस्पतिः) सूर्य ने, उसकी किरणों ने (वर्चः जग्राह) तेज ग्रहण किया है।

    टिप्पणी

    [यज्ञों द्वारा परमेश्वर प्रसन्न होता है, क्योंकि यज्ञों द्वारा परोपकार होता है। यज्ञों द्वारा सांसारिक अर्थात् सौरमण्डल के तत्त्व तेजः-सम्पन्न हो जाते हैं।]

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    विषय

    प्राण+वर्चस्

    पदार्थ

    १. (अस्मान्) = मानसयज्ञ [प्रभु-ध्यान] के प्रवर्तक हम लोगों को (प्राण: उपह्वयताम्) = शरीरधारक पञ्चवृत्तिक वायु चिरकाल के जीवन के लिए अनुज्ञा दे। (वयम्) = हम (प्राणम्) = प्राण को (उपहवामहे) = चिरकाल तक हमारे शरीरों में रहने के लिए प्रार्थित करते हैं। २. (पृथिवी) = यह हमारा शरीररूप पृथिवीलोक तथा (अन्तरिक्षम्) = हृदयान्तरिक्ष (वर्च:जग्राह) = तेजस्विता को स्वीकार करता है। (सोमः) = सौम्यता, (बृहस्पति:) = ज्ञान, (विधा) = विशेषरूप से धारण करनेवाला (अग्नितत्व) = ये सब (वर्च:) = तेज को धारण करते हैं।

    भावार्थ

    हम प्राणशक्ति-सम्पन्न बनें। हमारा शरीर व हृदय वर्चस्वाला हो। 'सौम्यता, ज्ञान व अग्नितत्त्व' हमें वर्चस्वी बनाएँ।

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    विषय

    दीर्घ और सुखी जीवन का उपाय।

    भावार्थ

    (प्राणः) प्राण (अस्मान्) हमें (उपह्वयताम्) धारण करे। और (वयम्) हम (प्राणम्) उस प्राण को (हवामहे) धारण करें।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘पृथिव्यान्तरिक्षं’ इति क्वचित्। (च०) स्पतिर्धर्ता, स्पतिधत्ता। ‘स्पतिर्धत्तात्’। ‘स्पतिधन्ता’, ‘स्पतिर्विधत्तां’ इत्यादि पाठाः। (द्वि०) ‘उपह्वयं’ इति क्वचित्। (च०) ‘विधत्ता’ इति शं० पा०। ‘विधत्ता विशेषेणधर्त्ता’ इति सायणाभिमतः। ‘विभ’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। मन्त्रोक्ता बहवो देवताः। उत यज्ञो देवता। १, ४, ६ त्रिष्टुभः। २ पुरोऽनुष्टुप्। ३ चतुष्पदा अतिशक्वरी। ५ भुरिक्। षडृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna

    Meaning

    Let prana call us up and energise us. Let us invoke and awake the pranic energy by yajna. The earth has worn the lustre of energy and divinity. The firmament wears lustre. Soma, the moon, wears lustre. Brhaspati, the sun, wielder and sustainer, wears the lustre and light of cosmic yajna.

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    Translation

    Máy the Vital breath invoke us: We invoke thé vital breath. The earth has gathered spléndour so the midspace: the blissful Lord, the Lord supreme and the sustainer Lord (is) full- of splendoür;

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    Translation

    May the flow of butter with the intention and with all the physical and non-physical powers or with the mantras making the year the source of prosperity or expanding the Yajna with oblation go through. Our ear, eye and vital breath be unharmed and we may be uninjured in the matter of life's length and vigor.

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    Translation

    Let the vital breath sustain us, let us keep intact our vital breath. Vigor has gripped the earth and mid-regions. The moon and the sun are the bearers of energy and force.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(उप) समीपे (अस्मान्) (प्राणः) म० १। शरीरधारको वायुः (ह्वयताम्) (उप) (वयम्) (प्राणम्) शरीरधारकं वायुम् (हवामहे) आह्वयामः (वर्चः) तेजः (जग्राह) स्वीचकार (पृथिवी) (अन्तरिक्षम्) (वर्चः) (सोमः) ऐश्वर्यवान् पुरुषः (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालकः (विधत्ता) आकारस्य ह्रस्वे कृते तकारस्य द्वित्वम्। विधाता। विविधपोषकः ॥

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