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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 58/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - यज्ञः, मन्त्रोक्ताः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
    43

    य॒ज्ञस्य॒ चक्षुः॒ प्रभृ॑ति॒र्मुखं॑ च वा॒चा श्रोत्रे॑ण॒ मन॑सा जुहोमि। इ॒मं य॒ज्ञं वित॑तं वि॒श्वक॑र्म॒णा दे॒वा य॑न्तु सुमन॒स्यमा॑नाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञस्य॑। चक्षुः॑। प्रऽभृ॑तिः। मुख॑म्। च॒। वा॒चा। श्रोत्रे॑ण। मन॑सा। जु॒हो॒मि॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। विऽत॑तम्। वि॒श्वऽक॑र्मणा। आ। दे॒वाः। य॒न्तु॒। सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑नाः ॥५८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञस्य चक्षुः प्रभृतिर्मुखं च वाचा श्रोत्रेण मनसा जुहोमि। इमं यज्ञं विततं विश्वकर्मणा देवा यन्तु सुमनस्यमानाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञस्य। चक्षुः। प्रऽभृतिः। मुखम्। च। वाचा। श्रोत्रेण। मनसा। जुहोमि। इमम्। यज्ञम्। विऽततम्। विश्वऽकर्मणा। आ। देवाः। यन्तु। सुऽमनस्यमानाः ॥५८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 58; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    [जो पुरुष] (यज्ञस्य) पूजनीय कर्म का (चक्षुः) नेत्र [नेत्रसमान] प्रदर्शक, (प्रभृतिः) पुष्टि (च) और (मुखम्) मुख [समान मुख्य] है, [उसको] (वाचा) वाणी से, (श्रोत्रेण) कान से और (मनसा) मन से (जुहोमि) मैं स्वीकार करता हूँ। (सुमनस्यमानाः) शुभचिन्तकों के समान आचरणवाले, (देवाः) व्यवहारकुशल महात्मा (विश्वकर्मणा) संसार के रचनेवाले परमेश्वर करके (विततम्) फैलाये हुए (इमम्) इस (यज्ञम्) पूजनीय धर्म को (आ यन्तु) प्राप्त करें ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित है कि सत्यसङ्कल्पी, सत्यसन्ध, ऋषि महात्माओं के वैदिक उपदेश को वाणी से पठन-पाठन, श्रोत्र से श्रवण-श्रावण, और मन से निदिध्यासन अर्थात् बारम्बार विचार करके ग्रहण करें। सब अनुग्रहशील महात्मा परमेश्वर के दिये हुए विज्ञान और धर्म का प्रचार करते रहें ॥५॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र ऊपर आ चुका है-अ० २।३५।५ ॥५−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० २।३५।५ ॥

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    भाषार्थ

    विश्वकर्मा (यज्ञस्य) संसार-यज्ञ का (चक्षुः) चक्षु है, (प्रभृतिः) आरम्भक है, (च) और (मुखम्) मुख है। उसके प्रति (वाचा) वाणी द्वारा, (श्रोत्रेण) श्रोत्र द्वारा, तथा (मनसा) मन द्वारा (जुहोमि) मैं आहुतियां देता हूं। (विश्वकर्मणा) विश्व के कर्त्ता द्वारा (विततम्) फैले हुए (इमम् यज्ञम्) इस संसार-यज्ञ को (देवाः) विद्वान् तथा दिव्यगुणी जन (सुमनस्यमानाः) प्रसन्नचित्त होकर (यन्तु) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    [संसार को यज्ञ कहा है। संसार में यज्ञभावना करनी चाहिये। इसलिए संसार को पवित्र जानकर पवित्र भावना से संसार में कर्म करने चाहिये। संसार-यज्ञ का रचानेवाला विश्वकर्मा परमेश्वर है। संसार-यज्ञ के रचाने में परमेश्वर प्रथम चक्षुःरूप में संसार-यज्ञ के निर्मीयमाण स्वरूप का आलोचन अर्थात् ईक्षण करता है। तदनन्तर संसार-यज्ञ की रचना प्रारम्भ करता है। वही विश्वकर्मा संसारयज्ञ का आरम्भक है। मनुष्य-सृष्टि पैदा हो जाने पर वही विश्वकर्मा मानो मुखवाला होकर वेदों के द्वारा संसार-यज्ञ के रहस्यों का उपदेश करता है। यथा—“प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः” (यजुः० ३२।४)। ऐसे विश्वकर्मा के प्रति प्रत्येक मनुष्य को वाणी द्वारा स्तवन, श्रोत्र द्वारा उसका श्रवण, और मन द्वारा उसका मनन भेंट करने चाहिएँ। देव लोग प्रसन्नतापूर्वक इस संसार-यज्ञ में आवें, और इसे अभ्युदय निःश्रेयस का साधन समझ कर इसमें विचरें। प्रभृतिः= अथवा भरण-पोषण करने वाला१।] [१. अथवा विश्वकर्मा संसार-यज्ञ का द्रष्टा अर्थात् निरीक्षक, आरंम्भक या धारण-पोषण करनेवाला, तथा मुखिया है।]

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    विषय

    वाचा श्रोत्रेण मनसा

    पदार्थ

    १. वे प्रभु (यज्ञस्य चक्षु:) = यज्ञ के चक्षु हैं-प्रदर्शक है। (प्रभूति:) = वे ही इसके धारण करनेवाले हैं (च) = और (मुखम्) = प्रतिपादक है। वेदों के द्वारा प्रभु ने इन यज्ञों का उपदेश किया है। कर्म ब्रह्मोद्धर्व विद्धि। मैं इस यज्ञ को (वाचा) = वाणी से श्रोत्रेण कानों से व (मनसा:) = मन से (जुहोमि) = आहुत करता हूँ। २. (विश्वकर्मणा) = सब कर्मों को करनेवाले प्रभु से (विततम्) = विस्तृत किये गये (इमं यज्ञम्) = इस यज्ञ को (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (यन्तु) = प्राप्त हों और (सुमनस्यमाना:) सौमनस्य = को प्राप्त करनेवाले हों।

    भावार्थ

    प्रभु ही यज्ञों के प्रदर्शक, धारक व प्रतिपादक हैं। इन यज्ञों को हम वाणी से मन्त्र बोलते हुए, कानों से प्रभु-महिमा को सुनते हुए, हृदय में प्रभु-स्मरण करते हुए करते हैं। वस्तुत: प्रभु द्वारा ही इन यज्ञों का विस्तार हुआ है। हम देव व सौमनस्यवाले बनकर इन यज्ञों में प्रवृत्त हो।

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    विषय

    दीर्घ और सुखी जीवन का उपाय।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो [ अथर्व० २। ३५। ५॥ ] (यज्ञस्य चक्षुः मुखं च प्रभृतिः) यज्ञस्वरूप आत्मा का मुख और चक्षु दोनों भरण पोषण करते हैं। (वाचा श्रोत्रेण मनसा च जुहोमि) वाणी कान और मन से भी मैं इस यज्ञ में आहुति करता हूं। (विश्वकर्मणा वित्ततं इमं यज्ञम्) जगत् स्रष्टा द्वारा सम्पादित इस यज्ञ में (सुमनस्यमानाः) शुभ संकल्पों से युक्त (देवाः) देवगण, इन्द्रियें, दिव्य सामर्थ्य विद्वानों के समान ही (आयन्तु) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। मन्त्रोक्ता बहवो देवताः। उत यज्ञो देवता। १, ४, ६ त्रिष्टुभः। २ पुरोऽनुष्टुप्। ३ चतुष्पदा अतिशक्वरी। ५ भुरिक्। षडृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna

    Meaning

    With sincerity of word, ear and mind I invoke, adore and offer oblations of homage to Vishvakarma, the vision and visionary of the cosmic yajna, its initiator, augmentor, and the spokes person of its divine knowledge. Let all divinities of nature and brilliancies of humanity, happy at heart, come, join and benefit from this cosmic yajna enacted and extended by Vishvakarma.

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    Translation

    The sacrifice's eye, commencement, and face; with voice, hearing, mind I make oblation, To this sacrifice, extended by Visvakarman, let the gods come, well-willing.

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    Translation

    O people, make the stall for cows that be the place of protection for your men, make your armor wide and many, built iron forts defying all ass ailants and make your maintenance source so steady and firm that it may not lack and fail.

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    Translation

    The eyes and the mouth of this sacrificing soul are nourishing well. And I offer my oblations with my voice, hearing and mind. The Creator of the universe has spread this sacrifice. Let the learned persons attain it with good mind.

    Footnote

    This verse must be an eye-opener to those, who think the Vedas To be mere songs of the cowherds and shepherds.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र ऊपर आ चुका है-अ० २।३५।५ ॥५−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० २।३५।५ ॥

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