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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 58/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - यज्ञः, मन्त्रोक्ताः छन्दः - जगती सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
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    ये दे॒वाना॑मृ॒त्विजो॒ ये च॑ य॒ज्ञिया॒ येभ्यो॑ ह॒व्यं क्रि॒यते॑ भाग॒धेय॑म्। इ॒मं य॒ज्ञं स॒ह पत्नी॑भि॒रेत्य॒ याव॑न्तो दे॒वास्त॑वि॒षा मा॑दयन्ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। दे॒वाना॑म्। ऋ॒त्विजः॑। ये। च॒। य॒ज्ञियाः॑। येभ्यः॑। ह॒व्यम्। क्रि॒यते॑। भा॒ग॒ऽधेय॑म्। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। स॒ह। पत्नी॑भिः। आ॒ऽइत्य॑। याव॑न्तः। दे॒वाः। त॒वि॒षाः। मा॒द॒य॒न्ता॒म् ॥५८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये देवानामृत्विजो ये च यज्ञिया येभ्यो हव्यं क्रियते भागधेयम्। इमं यज्ञं सह पत्नीभिरेत्य यावन्तो देवास्तविषा मादयन्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। देवानाम्। ऋत्विजः। ये। च। यज्ञियाः। येभ्यः। हव्यम्। क्रियते। भागऽधेयम्। इमम्। यज्ञम्। सह। पत्नीभिः। आऽइत्य। यावन्तः। देवाः। तविषाः। मादयन्ताम् ॥५८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 58; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (देवानाम्) विद्वानों में (ऋत्विजः) सब ऋतुओं में यज्ञ करनेवाले, (च) और (ये) जो (यज्ञियाः) पूजायोग्य हैं, और (येभ्यः) जिनके लिये (हव्यम्) देने योग्य (भागधेयम्) भाग (क्रियते) किया जाता है। (इमम्) इस (यज्ञम्) यज्ञ में (पत्नीभिः सह) [अपनी] पत्नियों सहित (एत्य) आकर, (यावन्तः) जितने (तविषाः) बड़े (देवाः) विद्वान् हैं, [हमें] (मादयन्ताम्) वे प्रसन्न करें ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि विद्वान् ऋषि महात्माओं और विदुषी स्त्रियों का यथावत् सत्कार करके उन्नति करें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(ये) (देवानाम्) विदुषां मध्ये (ऋत्विजः) सर्वकालेषु यष्टारः (ये) (च) (यज्ञियाः) पूजार्हाः (येभ्यः) (हव्यम्) दातव्यम् (क्रियते) अनुष्ठीयते (भागधेयम्) भागम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (सह) (पत्नीभिः) विदुषीभिः स्त्रीभिः (एत्य) आगत्य (यावन्तः) यत्परिमाणाः (देवाः) विद्वांसः (तविषाः) तवेर्णिद्वा। उ० १।४८। तव वृद्धौ, सौ० धा०-टिषच्। तविषो महन्नाम-निघ० ३।३। महान्तः (मादयन्ताम्) तर्पयन्तु अस्मान् ॥

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    भाषार्थ

    (देवानाम्) देवकोटि के (ये) जो देव (ऋत्विजः) ऋतु-ऋतु के अनुसार ऋतु-यज्ञ करते हैं, (च) और (ये) जो देव (यज्ञियाः) ऋतुयज्ञ न कर अध्यात्म-यज्ञ करते हैं, (येभ्यः) जिन इन दोनों प्रकार के देवों के लिए (हव्यं भागधेयम्) धारण-पोषणयोग्य हविष्यान्न का निश्चित भाग (क्रियते) दिया जाता है, (यावन्तः देवाः) ये जितने देव हैं, वे (पत्नीभिः सह) अपनी-अपनी पत्नियों के (सह) सहित (इमं यज्ञम्) इस ऋतुयज्ञ और अध्यात्म-यज्ञ में (एत्य) संमिलित होकर (तविषाः) वृद्धि को प्राप्त हों, और (मादयन्ताम्) हम प्रजाजनों को प्रसन्न करें।

    टिप्पणी

    [तविषाः= तविषीति तवतेर्वा स्याद् वृद्धिकर्मणः (निरु० ९.३.२५)। ऋतु-याजी जल वायु अन्न आदि की शुद्धि तथा रोगनिवारण द्वारा; तथा अध्यात्मयाजी नैतिक-जीवन तथा निःश्रेयस के सदुपदेशों द्वारा समाजसेवा करते हैं। अतः उन के धारण-पोषण का भार भी प्रजाजनों को उठाना होता है। हविष्यान्न है— सात्त्विक अन्न।]

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    विषय

    यज्ञशीलता व आनन्द

    पदार्थ

    १.(ये) = जो (देवानाम्) = देववृत्ति के पुरुषों में (ऋत्विजः) = समय-समय पर यज्ञ करनेवाले हैं, (ये च) = और जो (यज्ञियाः) = यज्ञशीलों में उत्तम हैं, (येभ्य:) = जिनके लिए (हव्यम्) = हव्य ही (भागधेयम् क्रियते) = भाग नियत किया जाता है, अर्थात् जो यज्ञों को ही अपने जीवन में प्रमुख स्थान देते हैं, वे (मादयन्ताम्) = आनन्द का अनुभव करें। २. अत: (यावन्तः देवा:) = जितने भी तुम देव हो वे सब (इमं यज्ञम्) = इस यज्ञ को (पत्नीभिः सह एत्य) = अपने जीवन की संगिनियों के साथ प्राप्त होकर (तविषा:) = शक्तिशाली होते हुए [मादयन्ताम्] आनन्दित होओ।

    भावार्थ

    हम देववृत्ति के बनकर यज्ञशील हों, यज्ञशीलों में उत्तम बनें, यज्ञ ही हमारा भाग हो-सेव्य वस्तु हो। गृहों में हम सपत्नीक यज्ञों को करते हुए शक्ति को बढ़ाएँ और आनन्दित हों|

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    विषय

    दीर्घ और सुखी जीवन का उपाय।

    भावार्थ

    (देवानाम्) देव, विद्वानों में से (ये) जो विद्वान् (ऋत्विजः) ऋत्विग्, यज्ञसम्पादक पुरुष हैं और (ये च यज्ञियाः) जो यज्ञ में पूजा के योग्य हैं और (येभ्यः) जिनके लिये (भागधेयम्) विशेष अंश (हव्यम्) हव्य, हवि रूप से (क्रियते) तैयार किया जाता है वे (यावन्तः) जितने भी (तविषाः) महान् (देवाः) देवगण या विद्वान् पुरुष हैं वे अपनी (पत्नीभिः सह) गृहपालिका पत्नियों सहित (इमम् यज्ञम् एत्य) इस यज्ञ में पआकर (मादयन्ताम्) तृप्त हों, प्रसन्न हों।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘कृणते’। ‘कृणुते’ इति क्वचित्। (च०) ‘हविषा’,‘समिष्ठा’ इति ह्विटनिकामितः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। मन्त्रोक्ता बहवो देवताः। उत यज्ञो देवता। १, ४, ६ त्रिष्टुभः। २ पुरोऽनुष्टुप्। ३ चतुष्पदा अतिशक्वरी। ५ भुरिक्। षडृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna

    Meaning

    Those among the divinities, the learned, the brilliant, who are dedicated to yajna all the year round with the seasons, who are adorable, and for whom the yajna is enacted and the share of holy offerings is fixed and reserved, may all those divinities with their supportive powers come to yajna, wax with strength and satisfaction and celebrate yajna with joy and ecstasy, and give us happiness.

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    Translation

    Those who are the priests of the enlightened ones, and who deserve honour, and for whom a share of sacrifical oblations is allotted, may all those enlighted ones, along with their wives, comes to this sacrifice and revel in the food offered.

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    Translation

    Our eye is for the sake of Yajna, our mouth and protective power is for the sake of Yajna and I, the performer of Yajna offer oblation of Yajna with speech, ear and mind. This Yajna has been expanded by Vishvakarman. The Divine Power whose work is the cosmic order. Let the learned men possessed of good intention attend this Yajna.

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    Translation

    Whoever there are the performers of the sacrifice among the learned persons, whoever there are worthy of respect and to whomsoever this oblation is offered as a special share, let all those great learned people come, along with wives, to this sacrifice and enjoy themselves.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(ये) (देवानाम्) विदुषां मध्ये (ऋत्विजः) सर्वकालेषु यष्टारः (ये) (च) (यज्ञियाः) पूजार्हाः (येभ्यः) (हव्यम्) दातव्यम् (क्रियते) अनुष्ठीयते (भागधेयम्) भागम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (सह) (पत्नीभिः) विदुषीभिः स्त्रीभिः (एत्य) आगत्य (यावन्तः) यत्परिमाणाः (देवाः) विद्वांसः (तविषाः) तवेर्णिद्वा। उ० १।४८। तव वृद्धौ, सौ० धा०-टिषच्। तविषो महन्नाम-निघ० ३।३। महान्तः (मादयन्ताम्) तर्पयन्तु अस्मान् ॥

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