अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 142/ मन्त्र 4
यदापी॑तासो अं॒शवो॒ गावो॒ न दु॒ह्र ऊध॑भिः। यद्वा॒ वाणी॒रनु॑षत॒ प्र दे॑व॒यन्तो॑ अ॒श्विना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । आऽपी॑तास: । अं॒शव॑: । गाव॑: । न । दु॒ह्रे । ऊध॑ऽभि: ॥ यत् । वा॒ । वाणी॑: । अनू॑षत । प्र । दे॒व॒ऽयन्त॑: । अ॒श्विना॑ ॥१४२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यदापीतासो अंशवो गावो न दुह्र ऊधभिः। यद्वा वाणीरनुषत प्र देवयन्तो अश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । आऽपीतास: । अंशव: । गाव: । न । दुह्रे । ऊधऽभि: ॥ यत् । वा । वाणी: । अनूषत । प्र । देवऽयन्त: । अश्विना ॥१४२.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
दिन और राति के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जब (आपीतासः) अच्छे प्रकार पीये हुए (अंशवः) बटे हुए सोम रस [तत्त्व रस] (दुह्रे) दुहे जाते हैं, (गावः न) जैसे गौएँ (ऊधभिः) लेवाओं [अयनों, थनों के स्थानों] से [दूध दुहती हैं]। (वा) और (यत्) जब (देवयन्तः) दिव्य गुण चाहनेवाले लोग (वाणीः) वाणियों से (अश्विना) दोनों अश्वी [व्यापक दिन-राति] को (प्र) अच्छे प्रकार (अनूषत) सराहते हैं ॥४॥
भावार्थ
मनुष्य दिन-राति तत्त्व का ग्रहण करके यशस्वी, बलवान् और कार्यकुशल होवें ॥४-६॥
टिप्पणी
४−(यत्) यदा (आपीतासः) समन्तात् कृतपानाः (अंशवः) अंश विभाजने-कु। विभक्ताः सोमाः। तत्त्वरसाः (गावः) धेनवः (न) यथा (दुह्रे) अथ० १०।१०।३२। प्रपूर्यन्ते (ऊधभिः) आपीनैः। क्षीराधारैः (यत्) यदा (वा) समुच्चये (वाणीः) वाणीभिः (अनूषत) णू स्तवने, लङर्थे लुङ्। नुवन्ति। स्तुवन्ति (प्र) प्रकर्षेण (देवयन्तः) देवान् दिव्यगुणान् कामयमानाः पुरुषाः (अश्विना) व्यापकौ। अहोरात्रौ ॥
विषय
सोम-रक्षण व ज्ञानवाणियों का उच्चारण
पदार्थ
१. (यत्) = जब (आपीतास:) = शरीर में समन्तात् पीये गये (अंशव:) = सोमकण (ऊधभिः गाव: न) = अपने ऊधसों से गौओं की भाँति (दुह्रे) = ज्ञानदुग्ध का हममें दोहन करते हैं। सोम-रक्षण से ही बुद्धि की तीव्रता होकर ज्ञान की वृद्धि होती है। २. (यद् वा) = और जब (अश्विना) = प्राणापानो के द्वारा [आ-भ्याम्] (देवयन्तः) = दिव्य गुणों की कामनावाले लोग (वाणी) = इन स्तुतिवाणियों का (प्र अनूषत) = प्रकर्षेण उच्चारण करते हैं तभी गतमन्त्र के अनुसार यह प्राणापान का रथ उस मार्ग पर चलता है जोकि मनुष्यों का रक्षण करनेवाला होता है।
भावार्थ
प्राणसाधना से सोम-रक्षण द्वारा बुद्धि की तीव्रता प्राप्त होती है। उसी समय ज्ञान की वाणियों का उच्चारण होता है।
भाषार्थ
(अश्विना) हे नागरिक प्रजाधिपति, तथा हे सेनाधिपति! तुम दोनों—(यद्) जबकि (अंशवः) उषा के प्रकाशों का (आ पीतासः) सम्यक्-पान प्रजाजन कर लें, जो उषा-प्रकाश कि (न) दूध समान स्वास्थ्यकारी है, जिसे कि (गावः दुह्रे) गौएँ देती हैं (ऊधभिः) अपने थनों द्वारा; (यद् वा) तथा जब (देवयन्तः) परमेश्वर देव के अभिलाषी प्रजाजन (वाणीः) वेदवाणियों का (प्र अनूषत) स्तवन कर लें तदनन्तर (अगला मन्त्र)
विषय
वेदवाणी।
भावार्थ
(यद्) जब (आपीतासः) कुछ कुछ पीले पीले रंग के (अंशवः) किरण, प्रकाश (ऊधभिः) थनों से (गावः न) दूधों के समान (दुद्दे) उत्पन्न होते हैं और (यत्) जब (देवयन्तः) देवोपासना करनेहारे उपासकजन (वाणीः) वाणियों द्वारा (अनूषत) स्तुति करते हैं तब (अश्विना) विद्या में पारंगत गुरु और ज्ञानी पुरुष हमें (प्र बोधयतम्) उत्तम रीति से प्रबुद्ध करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शशकर्ण ऋषिः। अश्विनौ देवते -१-४ अनुष्टुभः। ५, ६, गायत्र्यौ। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
When the stout stalks of lotus receive their drink of green vitality from the sun as cows draw and receive their milk with the udders from nature, and just when the stalks yield pranic energy as cows yield milk, and when the voices of humanity rise in adoration of the Ashvins in prayer:
Translation
When the yellow juices of Soma are pressed like the cows pouring milk from their udders and when men desiring God pray him in night and day.
Translation
When the yellow juices of Soma are pressed like the cows pouring milk from their udders and when men desiring God pray him in night and day.
Translation
When the slightly yellowish rays are generated like streams of milk from the udders of the cows, and when the worshipping devotees pray through their praise-songs, let the Asvins, the two powerful forces of nature, awaken us to health and happiness.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(यत्) यदा (आपीतासः) समन्तात् कृतपानाः (अंशवः) अंश विभाजने-कु। विभक्ताः सोमाः। तत्त्वरसाः (गावः) धेनवः (न) यथा (दुह्रे) अथ० १०।१०।३२। प्रपूर्यन्ते (ऊधभिः) आपीनैः। क्षीराधारैः (यत्) यदा (वा) समुच्चये (वाणीः) वाणीभिः (अनूषत) णू स्तवने, लङर्थे लुङ्। नुवन्ति। स्तुवन्ति (प्र) प्रकर्षेण (देवयन्तः) देवान् दिव्यगुणान् कामयमानाः पुरुषाः (अश्विना) व्यापकौ। अहोरात्रौ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
অহোরাত্রসুপ্রয়োগোপদেশঃ
भाषार्थ
(যৎ) যখন (আপীতাসঃ) উত্তমরূপে পান কৃত (অংশবঃ) বন্টিত সোম রস [তত্ত্ব রস] (দুহ্রে) দোহন করা হয়, (গাবঃ ন) যেমন গাভীর (ঊধভিঃ) স্তন থেকে [দুধ দোহন করা হয়]। (বা) এবং (যৎ) যখন (দেবয়ন্তঃ) দিব্য গুণ ইচ্ছুক ব্যক্তি (বাণীঃ) বাণিসমূহ দ্বারা (অশ্বিনা) উভয় অশ্বীকে [ব্যাপক দিন-রাতকে] (প্র) উত্তমরূপে (অনূষত) স্তুতি করে ॥৪॥
भावार्थ
মনুষ্য দিবা-রাত্রি তত্ত্ব গ্রহণ করে যশস্বী, বলবান এবং কার্যকুশলী হোক ॥৪-৬॥
भाषार्थ
(অশ্বিনা) হে নাগরিক প্রজাধিপতি, তথা হে সেনাধিপতি! তোমরা —(যদ্) যখন (অংশবঃ) ঊষার প্রকাশের (আ পীতাসঃ) সম্যক্-পান প্রজাগণ করে নেবে, যে ঊষা-প্রকাশ (ন) দুগ্ধের সমান স্বাস্থ্যকারী, যা (গাবঃ দুহ্রে) গাভী প্রদান করে (ঊধভিঃ) নিজের বাঁট/স্তন দ্বারা; (যদ্ বা) তথা যখন (দেবয়ন্তঃ) পরমেশ্বর দেবের অভিলাষী প্রজাগণ (বাণীঃ) বেদবাণীর (প্র অনূষত) স্তবন করে নেবে তদনন্তর (আগামী মন্ত্র)
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