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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सव्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-२१
    82

    शची॑व इन्द्र पुरुकृद्द्युमत्तम॒ तवेदि॒दम॒भित॑श्चेकिते॒ वसु॑। अतः॑ सं॒गृभ्या॑भिभूत॒ आ भ॑र॒ मा त्वा॑य॒तो ज॑रि॒तुः काम॑मूनयीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शची॑ऽव: । इ॒न्द्र॒: । पु॒रु॒ऽकृ॒त् । द्यु॒म॒त्ऽत॒म॒ । तव॑ । इत् । इ॒दम् । अ॒भित॑: । चे॒कि॒ते॒ । वसु॑ ॥ स॒म्ऽगृभ्य॑ । अ॒भि॒ऽभू॒ते॒ । आ । भ॒र॒ । मा । त्वा॒ऽय॒त: । ज॒रि॒तु: । काम॑म् । ऊ॒न॒यी॒: ॥२१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शचीव इन्द्र पुरुकृद्द्युमत्तम तवेदिदमभितश्चेकिते वसु। अतः संगृभ्याभिभूत आ भर मा त्वायतो जरितुः काममूनयीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शचीऽव: । इन्द्र: । पुरुऽकृत् । द्युमत्ऽतम । तव । इत् । इदम् । अभित: । चेकिते । वसु ॥ सम्ऽगृभ्य । अभिऽभूते । आ । भर । मा । त्वाऽयत: । जरितु: । कामम् । ऊनयी: ॥२१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्यों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (शचीवः) हे उत्तम बुद्धिवाले (पुरुकृत्) बहुत कर्मोंवाले (द्युमत्तम) अत्यन्त प्रकाशवाले (इन्द्र) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (तव इत्) तेरा ही (इदम्) यह (वसु) धन (अभितः) सब ओर से (चेकिते) जाना गया है। (अतः) इस कारण से, (अभिभूते) हे विजयी ! (संगृभ्य) संग्रह करके (आ भर) तू लाकर भर, (त्वायतः) तेरी चाह करते हुए (जरितुः) स्तुति करनेवाले की (कामम्) आशा को (मा ऊनयीः) मत घटा ॥३॥

    भावार्थ

    जो राजा राज्य के सब पदार्थों पर दृष्टि रखकर और उनका सुप्रयोग करके प्रजा की इष्टसिद्धि करता है, वही प्रशंसनीय होता है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(शचीवः) शची-मतुप्। छन्दसीरः। पा० ८।२।१। मतुपो मस्य वः। मतुवसो रु सम्बुद्धौ छन्दसि। पा० ८।३।१। इति रुत्वम्। शची कर्मनाम-निघ० २।१। प्रज्ञानाम-निघ० ३।२। हे प्रशस्तप्रज्ञावन् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (पुरुकृत्) पुरूणां बहूनां कर्मणां कर्तः (द्युमत्तम) अतिशयेन प्रकाशयुक्त (तव) (इदम्) उपस्थितम् (अभि) सर्वतः (चेकिते) कित ज्ञाने-लिट्। ज्ञातं वर्तत (वसु) धनम्) (अतः) अस्मात् कारणात् (संगृभ्य) संगृह्य (अभिभूते) हे अभिभवितः विजयिन् (आ) आनीय (भर) धर (मा) निषेधे (त्वायतः) त्वां कामयमानस्य (जरितुः) स्तोतुः (कामम्) अभिलाषम् (ऊनयीः) ऊन परिहाणे-लुङ्। ऊनयेः ॥

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    विषय

    'शचीव इन्द्र पुरुकृद् द्युमत्तम'

    पदार्थ

    १. हे (शचीव:) = प्रज्ञावन् [शची-प्रज्ञा], (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन्, (पुरुकृत्) = सबका पालन व पूरण करनेवाले, (धुमत्तम) = अतिशयेन दीप्तिमन् प्रभो! (इदम्) = यह (अभितः) = सर्वत्र वर्तमान (वसुः) = धन (तव इत्) = आपका ही है, यह बात (चेकिते) = हमसे जानी जाती है। सब धनों के स्वामी आप ही तो हैं। २. हे (अभिभूते) = शत्रुओं का अभिभव करनेवाले प्रभो! अत:-क्योंकि आप ही सब धनों के स्वामी हैं, इसलिए (संगृभ्य) = इनका संग्रह करके (आभर) = हमारे लिए दीजिए। (त्वायत:) = आपको अपनाने की कामनावाले (जरितुः) = स्तोता के (कामम्) = मनोरथ को (मा ऊनयी:) = अपूर्ण मत कीजिए। स्तोता के लिए आप मनोवाञ्छित फल को देनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु स्तोता को 'प्रज्ञा-शक्ति-पोषण व दीप्ति' प्राप्त कराते हैं। सम्पूर्ण धन प्रभु का है। प्रभु स्तोता की कामना को पूर्ण करते हैं।

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    भाषार्थ

    (शचीव) हे प्रज्ञा-वाणी-सत्कर्मों के स्वामी! (पुरुकृत्) हे सुखों से भरपूर जगत् के कर्त्ता! तथा (द्युमत्तम इन्द्र) हे सर्वातिशायी द्युति से सम्पन्न परमेश्वर! (अभितः) सब ओर समक्षरूप में (इदम्) ये (वसु) विभूतियाँ जो (चेकिते) दृष्टिगोचर हो रही हैं, वे (तव) आपकी हैं। (अभिभूते) हे सर्वत्र सत्तावाले! (अतः) इन विभूतियों में से कतिपय विभूतियों का (संगृभ्य) संग्रह करके (आभर) मुझे प्रदान कीजिए। (त्वायतः) आपको चाहनेवाले (जरितुः) आपके स्तोता की (कामम्) कामना को (मा ऊनयीः) न्यून न कीजिए, असफल न कीजिए।

    टिप्पणी

    [अभि+भूति (=भू सत्तायाम्+क्तिन्)।]

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    विषय

    परमेश्वर और राजा।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यचन् ! हे (शचीवः) प्रज्ञावन् या हे शक्तिमन् ! हे (पुरुकृत्) बहुतसे धनों जनों और लोकों के कर्त्ता ! हे (द्युमतम) सबसे अधिक धनशालिन् ! हमें तो (इदम्) यह सब (अभितः) सब ओर पसरा हुआ (वसु) ऐश्वर्य या बसा हुआ जगन् (तव इद्) तेरा ही (चिकेते) प्रतीत होता है। हे (अभिभूते) चारों ओर की भूति के स्वामिन् ! (अतः) इसलिये तू हमें (संगृभ्य) ऐश्वर्य संग्रह करके (आ भर) प्रदान कर। (त्वायतः) तुझको ही चाहने वाले (जरितुः) अपने स्तुति करने वाले विद्वान् पुरुष की (कामम्) आशा को (मा ऊनयीः) कम न होने दे। उसे निराश मत कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आंगिरस ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-९ जगन्यः। १०, ११ त्रिष्टुभौ। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    Indra, lord of power and glory, wisdom, Word, and action, versatile giver of success and victory, most brilliant and omniscient, the wealth all round is yours, you know. Therefore, O lord of victory, take that up and bear it along to bless us. Neglect not the desire and ambition of your celebrant, discount him not.

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    Translation

    O God Almighty, you are all-knowledge, most refulgent, and the creator of the abundant things and this wealth Spreading around us of all powers, please gathering from this bestow us. You disappoint not the hope of devotee who desires you and pray you.

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    Translation

    O God Almighty, you are all-knowledge, most refulgent, and the creator of the abundant things and this wealth spreading around us of all powers, please gathering from this bestow us. You disappoint not the hope of devotee who desires you and pray you.

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    Translation

    O God, the Most-Powerful, the Creator of numerous worlds and the people, the most splendid, this vast wealth spread all around, is known to be Thine alone O Lord of fortunes of all quarters,-gathering therefrom, invest us with it in full. Let not the desire of his who likes Thee and sings Thy praises, remain unfulfilled.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(शचीवः) शची-मतुप्। छन्दसीरः। पा० ८।२।१। मतुपो मस्य वः। मतुवसो रु सम्बुद्धौ छन्दसि। पा० ८।३।१। इति रुत्वम्। शची कर्मनाम-निघ० २।१। प्रज्ञानाम-निघ० ३।२। हे प्रशस्तप्रज्ञावन् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (पुरुकृत्) पुरूणां बहूनां कर्मणां कर्तः (द्युमत्तम) अतिशयेन प्रकाशयुक्त (तव) (इदम्) उपस्थितम् (अभि) सर्वतः (चेकिते) कित ज्ञाने-लिट्। ज्ञातं वर्तत (वसु) धनम्) (अतः) अस्मात् कारणात् (संगृभ्य) संगृह्य (अभिभूते) हे अभिभवितः विजयिन् (आ) आनीय (भर) धर (मा) निषेधे (त्वायतः) त्वां कामयमानस्य (जरितुः) स्तोतुः (कामम्) अभिलाषम् (ऊनयीः) ऊन परिहाणे-लुङ्। ऊनयेः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (শচীবঃ) হে উত্তম বুদ্ধিমান্ (পুরুকৃৎ) বহু কর্মযুক্ত (দ্যুমত্তম) অত্যন্ত প্রকাশমান/প্রকাশযুক্ত (ইন্দ্র) ইন্দ্র [ঐশ্বর্যবান্ রাজন্] (তব ইৎ) তোমারই (ইদম্) এই (বসু) সম্পদ (অভিতঃ) সর্বদিক থেকে (চেকিতে) জ্ঞাত হয়েছে। (অতঃ) এই কারণে (অভিভূতে) হে বিজয়ী! (সঙ্গৃভ্য) তা সংগ্রহ করে (আ ভর) এনে পূর্ণ করো, (ত্বায়তঃ) তোমার কামনাকারী (জরিতুঃ) স্তোতা/প্রশংসাকারীদের (কামম্) আশা (মা ঊনয়ীঃ) ক্ষুণ্ণ করো না।।৩।।

    भावार्थ

    যে রাজা রাজ্যের সকল পদার্থে দৃষ্টি রেখে এবং সেগুলোর সুপ্রয়োগ দ্বারা প্রজাদের ইষ্টসিদ্ধি করে, সেই প্রশংসনীয় হয়।।৩।।

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    भाषार्थ

    (শচীব) হে প্রজ্ঞা-বাণী-সৎকর্মের স্বামী! (পুরুকৃৎ) হে সুখ দ্বারা পরিপূর্ণ জগতের কর্ত্তা! তথা (দ্যুমত্তম ইন্দ্র) হে সর্বাতিশায়ী দ্যুতি সম্পন্ন পরমেশ্বর! (অভিতঃ) সবদিকে সম্যকরূপে (ইদম্) এই (বসু) বিভূতি-সমূহ যা (চেকিতে) দৃষ্টিগোচর হচ্ছে, তা (তব) আপনার। (অভিভূতে) হে সর্বত্র বিরাজমান! (অতঃ) এই বিভূতি-সমূহ থেকে কতিপয় বিভূতির (সংগৃভ্য) সংগ্রহ করে (আভর) আমাকে প্রদান করুন। (ত্বায়তঃ) আপনার অভিলাষী (জরিতুঃ) আপনার স্তোতার (কামম্) কামনাকে (মা ঊনয়ীঃ) ন্যূন করবেন না, অসফল করবেন না।

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