अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 9
त्वमे॒तां ज॑न॒राज्ञो॒ द्विर्दशा॑ब॒न्धुना॑ सु॒श्रव॑सोपज॒ग्मुषः॑। ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑ नव॒तिं नव॑ श्रु॒तो नि च॒क्रेण॒ रथ्या॑ दु॒ष्पदा॑वृणक् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ए॒तान् । ज॒न॒ऽराज्ञ॑: । द्वि: । दश॑ । अ॒ब॒न्धुना॑ । सु॒अव॑सा । उ॒प॒अज॒ग्मुष॑: ॥ ष॒ष्टिम् । स॒हस्रा॑ । न॒व॒तिम् । नव॑ । श्रु॒त: । नि । च॒क्रेण॑ । रथ्या॑ । दु॒:ऽपदा॑ । अ॒वृ॒ण॒क् ॥२१.९॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमेतां जनराज्ञो द्विर्दशाबन्धुना सुश्रवसोपजग्मुषः। षष्टिं सहस्रा नवतिं नव श्रुतो नि चक्रेण रथ्या दुष्पदावृणक् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । एतान् । जनऽराज्ञ: । द्वि: । दश । अबन्धुना । सुअवसा । उपअजग्मुष: ॥ षष्टिम् । सहस्रा । नवतिम् । नव । श्रुत: । नि । चक्रेण । रथ्या । दु:ऽपदा । अवृणक् ॥२१.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे राजन् !] (अबन्धुना) बन्धुहीन और (सुश्रवसा) बड़ी कीर्तिवाले पुरुष के साथ, (श्रुतः) विख्यात (त्वम्) तूने (एतान्) इन (द्विः दश) दो बार दश [बीस] (जनराज्ञः) नीच लोगों के राजाओं को और (षष्टिम् सहस्रा) साठ सहस्र (नव नवतिम्) नौ नब्बे [९+९०=९९ अथवा ९*९०=८१० अर्थात् ६००,९९ अथवा ६०,८१०] (उपजग्मुषः) [उनके] साथियों को (दुष्पदा) न पकड़ने योग्य [अति शीघ्रगामी] (रथ्या) रथ के पहिये के समान (चक्रेण) चक्र [हथियार विशेष] से (नि अवृणक्) उलट-पलट कर दिया है ॥९॥
भावार्थ
प्रतापी बलवान् राजा शरणागत अनाथों और धार्मिक प्रसिद्ध पुरुषों की रक्षा करके बीसियों प्रधान शत्रुओं और उनकी सहस्रों सेनाओं को अपने चक्र आदि हथियारों से उखाड़ दे, जैसे वेग चलनेवाले रथ के पहियों से भूमि उखड़ जाती है ॥९॥
टिप्पणी
९−(त्वम्) (एतान्) उपस्थितान् (जनराज्ञः) जनानां पामराणां शासकान् (द्विर्दश) द्विगुणितान् दश। विंशतिसंख्याकान् (सुश्रवसा) बहुकीर्तिमता (उपजग्मुषः) गमेर्लिटः क्वसुः। उपगतान्। सहचरान् (षष्टिम्) (सहस्रा) सहस्राणि (नवतिम् नव) नवोत्तरनवतिसंख्याकान्, यद्वा नवगुणितनवतिसंख्याकान् (श्रुतः) प्रख्यातः (नि) नीचैः (चक्रेण) आयुधविशेषेण (रथ्या) रथाद् यत्। पा० ४।३।१२। रथ-यत्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेराकारः। रथस्येदं चक्रं तेन। रथाङ्गविशेषेण (दुष्पदा) ईषद्दुःसुषु०। पा० ३।३।१२६। दुर्+पद गतौ-खल्। दुष्प्रापेण। अतिशीघ्रगामिना (अवृणक्) वृजी वर्जने-लङि मध्यमैकवचनम्। अवर्जयः। अनाशयः ॥
विषय
वासना-सरित्-संतरण
पदार्थ
१. हे प्रभो! (त्वम्) = आप (एतान्) = इन (द्विर्दश) = बीस (जनराज्ञः) = मनुष्यों पर शासन करनेवाली अशुभवृत्तियों को (वि अवृणक्) = निश्चित रूप से दूर करते हैं। ये अशुभवृत्तियाँ बीस हैं-'दस इन्द्रियों, पाँच प्राणों व मन, बुद्धि, चित्त अहंकार व हृदय' इन बीस से इनका सम्बन्ध है। ये अशुभ वृत्तियाँ बीस होती हुई भी सैकड़ों रूपों में अभिव्यक्त होती हैं, अत: यहाँ उन्हें (षष्टिं सहस्त्रा) = ६० हज़ार कहा है। (नवतिं नव) = निन्यानवें वर्षपर्यन्त इन्हें दूर करने का प्रयत्न करते रहना है। न जाने कब हम इनके शिकार हो जाएँ। २. ये अशुभवृत्तियाँ (अबन्धुना) = संसार में न बन्धने वाले (सुश्रवता) = ज्ञान-उपदेशों को सुननेवाले के भी (उपजग्मुषः) = समीप आ जाती हैं। इनका आक्रमण बड़े-बड़े ज्ञानियों पर भी हो जाता है। इनके आक्रमण को श्रुतः सम्पूर्ण ज्ञान के पुज प्रभु ही (दुष्पदा) = बड़ी कठिनता से आक्रमण के योग्य [दुरत्यम्] (रथ्या) = शरीररूप रथ में होनेवाले (चक्रेण) = क्रियाशीलतारूप पहिये से (निवृणक्) = छिन्न करते हैं। प्रभु ही इनके आक्रमण को विफल कर पाते हैं। प्रभु-स्मरणपूर्वक क्रिया में लगे रहना ही एकमात्र उपाय है, जो हमें इन वासनाओं के आक्रमण से बचाता है।
भावार्थ
प्रभु-कृपा से अनन्त प्रवाहों में बहनेवाली वासना-नदी को हम तैर जाएँ।
भाषार्थ
(अबन्धुना) सांसारिक तथा बन्धु-बान्धवों के बन्धन से रहित, (सुश्रवसा) वैदिक सदुपदेशों से सम्पन्न, (जनराज्ञः) उत्पन्न शरीर के राजा जीवात्मा को (उपजग्मुषः) प्राप्त हुए, (द्विः दश) ५ ज्ञानेन्द्रियों, ५ कर्मेन्द्रियों तथा ५ स्थूलभूतों, ५ सूक्ष्मभूतों को, तथा जन्म-जन्मान्तरों से (षष्ट सहस्रा) सोए पड़े हजारों संस्कारों को, और (नवति नव) एक वर्ष मातृगर्भ में तथा ९९ वर्ष तदुपरान्त, इस प्रकार वर्तमान जीवन के १०० वर्षों में संचित हुए (एतान्) इन संस्कारों को, (त्वम्) हे परमेश्वर! आपने (नि अवृणक्) नितरां कुचल दिया है, जैसे कि (दुष्पदा) दुर्गति प्राप्त करानेवाले (रथ्या चक्रेण) रथ के चक्र द्वारा वस्तु कुचल दी जाती है।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह है कि इन्हें कुचल कर जीवात्मा को मुक्त कर दिया है।]
विषय
परमेश्वर और राजा।
भावार्थ
हे सेनापते ! इन्द्र ! त्वम् (अबन्धुना) बन्धु और सहायक से रहित, (सुश्रवसा) उत्तम कीर्त्तिमान्, धर्मात्मा राजा के साथ (उपजग्मुषः) युद्ध में लड़ने वाले (द्विः दश) २० (जनराज्ञः) जनों या सैनिकों के राजाओं एवं (षष्टिं सहस्रा नवति नव) ६००९९ सैनिकों को भी (दुष्पदा) दुर्गम, असह्य (रथ्या चक्रेण) रथ योग्य चक्र से अथवा रथ के चक्र के समान बने चक्रव्यूह से (अवृणक्) वर्जन करने में समर्थ हो। २० सेना नायकों के अधीन ६००९९ सैनिक चक्र व्यूह बनाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आंगिरस ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-९ जगन्यः। १०, ११ त्रिष्टुभौ। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Self-integration
Meaning
Indra, mighty sovereign, far and wide is your fame. Twenty are these rulers of the republics in need of help and they too are of noble fame come here for protection. Sixty thousand ninety-nine are their people. Save them from violence and loss of freedom with the strong chariot wheel of your sovereignty.
Translation
O God Almighty, you very known with the out-stripping wheel of thunder-bolt turn away with these twice ten group holding clouds with sixty thousand nine and ninety clouds which follow the cloud that has good thundering sound without any co-operant.
Translation
O God Almighty, you very known with the out-stripping wheel of thunder-bolt turn away with these twice ten group holding clouds with sixty thousand nine and ninety clouds which follow the cloud that has good thundering sound without any co-operant.
Translation
O king or commander, by means of thy encircling formation of the army units, which is too strong to be broken through by the enemy, thou art capable of checking the onslaught of even twenty kings or commanders and sixty thousand and ninety-nine warriors through the help of a single commander of well-known fame or renown, with none else to help him. This is ordained: by the Vedas. Or, O electricity, thou canst, by thy circular motion like the wheel of a chariot, which is too powerful to be checked, well keep under control all these twenty basic elements, sixty thousand and ninety-nine organic and inorganic bodies, by a single transmitter of high quality, with no other force to help it.
Footnote
The verse refers to the military strategy of encircling the enemy forces to check their onward march by a single unit an expert military chief of an outstanding repute or A single transmitter of high voltage can control all around.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(त्वम्) (एतान्) उपस्थितान् (जनराज्ञः) जनानां पामराणां शासकान् (द्विर्दश) द्विगुणितान् दश। विंशतिसंख्याकान् (सुश्रवसा) बहुकीर्तिमता (उपजग्मुषः) गमेर्लिटः क्वसुः। उपगतान्। सहचरान् (षष्टिम्) (सहस्रा) सहस्राणि (नवतिम् नव) नवोत्तरनवतिसंख्याकान्, यद्वा नवगुणितनवतिसंख्याकान् (श्रुतः) प्रख्यातः (नि) नीचैः (चक्रेण) आयुधविशेषेण (रथ्या) रथाद् यत्। पा० ४।३।१२। रथ-यत्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेराकारः। रथस्येदं चक्रं तेन। रथाङ्गविशेषेण (दुष्पदा) ईषद्दुःसुषु०। पा० ३।३।१२६। दुर्+पद गतौ-खल्। दुष्प्रापेण। अतिशीघ्रगामिना (अवृणक्) वृजी वर्जने-लङि मध्यमैकवचनम्। अवर्जयः। अनाशयः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
[হে রাজন্] (অবন্ধুনা) বন্ধুহীন ও (সুশ্রবসা) বৃহৎ কীর্তিমান পুরুষের সহিত, (শ্রুতঃ) প্রখ্যাত (ত্বম্) তুমি (এতোন্) এই (দ্বিঃ দশ) দশের দ্বিগুণ [বিশ] (জনরাজ্ঞঃ) নিকৃষ্ট জনের রাজাদের এবং (ষষ্ঠিম্ সহস্রা) ষাট সহস্র (নব নবতিম্) নয় নব্বই [৯+৯০=৯৯ অথবা ৯*৯০=৮১০ অর্থাৎ ৬০০,৯৯ অথবা ৬০,৮১০] (উপজগ্মুষঃ) [তাঁদের] সঙ্গীদের (দুষ্পদা) থামানোর অযোগ্য/দুষ্প্রাপ্য [অতি শীঘ্রগামী] (রথ্যা) রথের চাকার সমান (চক্রেণ) চক্র [অস্ত্র বিশেষ] দ্বারা (নি অবৃণক্) বিক্ষিপ্ত করে দিয়েছো।।৯।।
भावार्थ
প্রতাপী বলবান রাজা শরণাপন্ন অনাথ ও ধার্মিক প্রসিদ্ধ পুরুষদের রক্ষা করে প্রধান শত্রুদের এবং তাঁদের সহস্রাধিক সেনাদের নিজের চক্র আদি অস্ত্র দ্বারা উচ্ছেদ করুক, যেমন বেগবান/অতিশীঘ্রগামী রথের চাকায় ভূমি উচ্ছেদিত হয়।।৯।।
भाषार्थ
(অবন্ধুনা) সাংসারিক তথা বন্ধু-বান্ধবের বন্ধন রহিত, (সুশ্রবসা) বৈদিক সদুপদেশ সম্পন্ন, (জনরাজ্ঞঃ) উৎপন্ন শরীরের রাজা জীবাত্মাকে (উপজগ্মুষঃ) প্রাপ্ত, (দ্বিঃ দশ) ৫ জ্ঞানেন্দ্রিয়, ৫ কর্মেন্দ্রিয় তথা ৫ স্থূলভূত, ৫ সূক্ষ্মভূতকে, তথা জন্ম-জন্মান্তর থেকে (ষষ্ট সহস্রা) সুপ্ত সহস্র সংস্কারকে, এবং (নবতি নব) এক বর্ষ মাতৃগর্ভে তথা ৯৯ বর্ষ তদুপরান্ত, এইভাবে বর্তমান জীবনের ১০০ বর্ষে সঞ্চিত (এতান্) এই সংস্কার-সমূহকে, (ত্বম্) হে পরমেশ্বর! আপনি (নি অবৃণক্) নিরন্তর চূর্ণ/পিষ্ট করেছেন, যেমন (দুষ্পদা) দুর্গতি প্রদানকারী (রথ্যা চক্রেণ) রথের চক্র দ্বারা বস্তু পিষ্ট করা হয়।
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