अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 88/ मन्त्र 4
बृह॒स्पतिः॑ प्रथ॒मं जाय॑मानो म॒हो ज्योति॑षः पर॒मे व्योमन्। स॒प्तास्य॑स्तुविजा॒तो रवे॑ण॒ वि स॒प्तर॑श्मिरधम॒त्तमां॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॒स्पति॑: । प्र॒थ॒मम् । जाय॑मान: । म॒ह: । ज्योति॑ष: । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥ स॒प्तऽआ॑स्य: । तु॒वि॒ऽजा॒त: । रवे॑ण । वि । स॒प्तऽर॑श्मि: । अ॒ध॒म॒त् । तमां॑सि ॥८८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पतिः प्रथमं जायमानो महो ज्योतिषः परमे व्योमन्। सप्तास्यस्तुविजातो रवेण वि सप्तरश्मिरधमत्तमांसि ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पति: । प्रथमम् । जायमान: । मह: । ज्योतिष: । परमे । विऽओमन् ॥ सप्तऽआस्य: । तुविऽजात: । रवेण । वि । सप्तऽरश्मि: । अधमत् । तमांसि ॥८८.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं के रक्षक पुरुष] ने (महः) बड़े (ज्योतिषः) तेज के (परमे) उत्तम (व्योमन्) विविध प्रकार रक्षणीय स्थान में (प्रथमम्) पहिले पद पर (जायमानः) प्रकट होते हुए (तुविजातः) बहुत प्रसिद्ध होकर (रवेण) अपने उपदेश से (सप्तास्यः) सात मुखवाले अग्नि और (सप्तरश्मिः) सात किरणोंवाले सूर्य के समान (तमांसि) अन्धकारों को (वि अधमत्) बाहिर हटाया है ॥४॥
भावार्थ
जैसे अग्नि सात प्रकार की ज्वालाओं से और सूर्य सात प्रकार की किरणों से अन्धकार हटाकर पदार्थों को दिखाते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग पाँच ज्ञानेन्द्रिय मन और आत्मा से विद्याएँ ग्रहण करके अज्ञान हटाकर विद्या का प्रकाश करें ॥४॥
टिप्पणी
अग्नि के सात मुख वा जिह्वाएँ अर्थात् ज्वालाएँ हैं-मुण्डकोपनिषद्, मुण्डक १ खण्ड श्लोक ४ [काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। स्फुलिङ्गिनी विश्वरूपी च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः ॥] काले वर्णवाली, कराली, मन का सा वेग रखनेवाली, रक्त वर्णवाली, जो गहरे धुएँ के वर्णवाली हैं, चिनगारियोंवाली और चमकती हुई झिलमिलाती हुई सब रूपों अर्थात् रंगोंवाली, यह [अग्नि की] सात जिह्वाएँ हैं ॥ सूर्य को सात किरणें इस प्रकार हैं−शुक्ल, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश और चित्रवर्ण ॥ ४−(बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां रक्षक (प्रथमम्) प्रधाने पदे (जायमानः) प्रादुर्भवन् (महः) महतः (ज्योतिषः) प्रकाशस्य (परमे) उत्कृष्टे (व्योमन्) अ० ।१७।६। विविधरक्षणीये स्थाने (सप्तास्यः) सप्त ज्वाला आस्यानि यस्य सः काली कराल्यादिजिह्वायुक्तोऽग्निर्यथा-मुण्डकोपनिषदि-१।२।४। (तुविजातः) बहुप्रसिद्धः (रवेण) उपदेशेन (वि) बहिर्भावे (सप्तरश्मिः) शुक्लनीलपीतादिकिरणयुक्तः सूर्यो यथा (अधमत्) धमतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। अगमयत् (तमांसि) अन्धकारान् ॥
विषय
'सप्तास्य-सप्तरश्मि' प्रभु
पदार्थ
१. (बृहस्पति:) = ज्ञान का स्वामी प्रभु (परमे व्योमन्) = उत्कृष्ट हृदयाकाश में (महःज्योतिष:) = महान् ज्ञानज्योति से (प्रथमं जायमान:) = विस्तार के साथ प्रादुर्भूत होता हुआ (रवेण) = ज्ञान की वाणियों के उच्चारण से (तमांसि) = अज्ञानान्धकारों को (वि अधमत्) = विनष्ट करता है। हृदय में प्रभु का प्रकाश होते ही सब अन्धकार नष्ट हो जाता है। २. ये प्रभु (सप्तास्यः) = सात छन्दों से बनी हुई वेदवाणीरूप सात मुखोंवाले हैं। (तुविजात:) = महान् प्रादुर्भाववाले हैं-प्रभु-उपासक में महान् गुणों का विकास करते हैं। (सप्तरश्मि:) = सात रश्मियोंवाले सूर्य की भाँति ये प्रभु सात छन्दों से बनी वेदवाणीरूप सात रश्मियोंवाले हैं। इन सात रश्मियों से ही ये प्रभु'भूः-भुव: स्व:-मह: जन:-तपः-सत्यम्' नामक सातलोकों को प्रकाशित करते हैं।
भावार्थ
प्रभु ज्योतिर्मय हैं। सस छन्दोमयी वेदवाणियाँ ही प्रभु के सात मुख हैं। ये ही प्रभुरूप सूर्य की सात रश्मियाँ हैं। इनके द्वारा प्रभु हमारे अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हैं।
भाषार्थ
(महः ज्योतिषः) महा-ज्योति के (परमे) सर्वोत्कृष्ट (व्योमन्) हृदयाकाश में, (प्रथमम्) प्रथम-प्रथम (जायमानः) प्रकट हुआ (बृहस्पतिः) महाब्रह्माण्ड का पति, (सप्तरश्मिः) सात प्रकार की रश्मियोंवाले सूर्य के सदृश (तमांसि) तमोगुणजन्य अन्धकारमयी दुर्वासनाओं को (अधमत्) दूर कर देता है। और (तुविजातः) अधिक प्रकाश में प्रकट होकर ब्रह्माण्डपति (रवेण) केवलमात्र निज-आज्ञा द्वारा, (सप्तास्यः) सप्तजिह्व-अग्नि के सदृश तमोजन्य राग-द्वेष आदि को भस्मीभूत कर देता है।
टिप्पणी
[महो ज्योतिषः—“विशोका वा ज्योतिष्मती” (योग০ १.३६) के व्यासभाष्यानुसार—“हृदय में धारणा-ध्यान से, चित्तसत्त्व, सूर्य, चन्द्र, मणि, और प्रभारूप में विकल्पित होता है। अर्थात् सात्त्विक ज्योतिः स्वरूप आकाश-तुल्य भासता हुआ चित्त, कभी चन्द्र, कभी नक्षत्र, कभी मणिप्रभा आदि रूप की आकृतिवाला भान होता है”। इसे ही “महाज्योतिवाला सर्वोकृष्ट-हृदयाकाश” कहा है। सप्तजिह्व=अग्नि (fire, आप्टे); मुण्डक০ उप০ १.२.४।]
विषय
परमेश्वर सेनापति राजा।
भावार्थ
(बृहस्पतिः) वह बहती वेद वाणी का स्वामी परमेश्वर (प्रथमं जायमानः) सबसे प्रथम सृष्टि को प्रकट करता हुआ (महः ज्योतिषः) महान् तेज के (परमे) सर्वोत्कृष्ट (व्योमन्) विविध ज्ञानों के रक्षास्थान, परब्रह्म, वेदस्वरूप में ही (सप्तास्यः) सात छन्दों रूप सात मुख वाला (तुविजातः) बहुत प्रकार से प्रकट होकर अपने (रवेण) उपदेश से (सप्तरश्मिः) सात रश्मियों वाले सूर्य के समान (तमांसि) समस्त अन्धकारों और उनके समान आत्मा को पीड़ा देने वाले अज्ञानमय दुःखों का (वि अधमत्) विविध उपायों से उनका नाश करता है।
टिप्पणी
इदमन्धं तमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्। यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते। स्फुटम्॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः। बृहस्पतिदेवता। त्रिष्टुभः। षडृर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brhaspati Devata
Meaning
Brhaspati, the cosmic sun, first born of the supreme light of existence in the highest heaven, with seven mouths for consumption of materials and seven rays of light for creation of energy, born among many the mightiest, dispels the darknesses from the world with the thunder and lightning power of its majesty. (So should the ruler and the scholar be in knowledge and power.)
Translation
This fire emerging first in the vast space from the tremendous cosmic rays with the noise of thunder becoming more speedier and having seven tongues of flame and possessing seven rays (in form of sun) dispels the darkness.
Translation
This fire emerging first in the vast space from the tremendous cosmic rays with the noise of thunder becoming more speedier and having seven tongues of flame and possessing seven rays (in form of sun) dispels the darkness.
Translation
Just as a great commander of the army shatters with the thundering clatter of arms, the malignant besieging foe, equipped with all sorts of deadly weapons, by force of his intelligent hordes of armies, capable of smashing, the onslaught of the enemy, similarly does the highly learned person, well-f versed in Vedic learning, tears off the forces of evil and darkness, besetting the general people, by his swarms of wise and intelligent, learned persons, capable of checking the mischievous forces, through forceful preaching’s. He, preaching loudly, well explains the well-sung Vedic verses, showering knowledge, worth grasping, just as the lowing cows, shower milk and butter, worth having.
Footnote
‘Vala’ is not a special demon of that name but it refers to any wicked for or force of evil nature.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
अग्नि के सात मुख वा जिह्वाएँ अर्थात् ज्वालाएँ हैं-मुण्डकोपनिषद्, मुण्डक १ खण्ड श्लोक ४ [काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। स्फुलिङ्गिनी विश्वरूपी च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः ॥] काले वर्णवाली, कराली, मन का सा वेग रखनेवाली, रक्त वर्णवाली, जो गहरे धुएँ के वर्णवाली हैं, चिनगारियोंवाली और चमकती हुई झिलमिलाती हुई सब रूपों अर्थात् रंगोंवाली, यह [अग्नि की] सात जिह्वाएँ हैं ॥ सूर्य को सात किरणें इस प्रकार हैं−शुक्ल, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश और चित्रवर्ण ॥ ४−(बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां रक्षक (प्रथमम्) प्रधाने पदे (जायमानः) प्रादुर्भवन् (महः) महतः (ज्योतिषः) प्रकाशस्य (परमे) उत्कृष्टे (व्योमन्) अ० ।१७।६। विविधरक्षणीये स्थाने (सप्तास्यः) सप्त ज्वाला आस्यानि यस्य सः काली कराल्यादिजिह्वायुक्तोऽग्निर्यथा-मुण्डकोपनिषदि-१।२।४। (तुविजातः) बहुप्रसिद्धः (रवेण) उपदेशेन (वि) बहिर्भावे (सप्तरश्मिः) शुक्लनीलपीतादिकिरणयुक्तः सूर्यो यथा (अधमत्) धमतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। अगमयत् (तमांसि) अन्धकारान् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
বিদ্বৎকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [শ্রেষ্ঠ বিদ্যার রক্ষক পুরুষ] (মহঃ) মহৎ (জ্যোতিষঃ) প্রকাশের (পরমে) উত্তম (ব্যোমন্) বিবিধ প্রকার রক্ষণীয় স্থানে (প্রথমম্) প্রথম পদে/মূখ্য পদে (জায়মানঃ) প্রাদুর্ভূত হয়ে (তুবিজাতঃ) বহু প্রসিদ্ধ হয়ে (রবেণ) নিজ উপদেশ দ্বারা (সপ্তাস্যঃ) সপ্ত মুখযুক্ত অগ্নি এবং (সপ্তরশ্মিঃ) সপ্ত কিরণযুক্ত সূর্যের ন্যায় (তমাংসি) অন্ধকারকে (বি অধমৎ) দূরীভূত করেছেন ॥৪॥
भावार्थ
যেভাবে অগ্নি সপ্ত শিখা দ্বারা এবং সূর্য সাত প্রকারের কিরণসমূহ দ্বারা অন্ধকার দূরীভূত করে পদার্থ-সমূহকে সম্মুখে প্রকট করে, অনুরূপভাবে বিদ্বানগণ পঞ্চ জ্ঞানেন্দ্রিয়, মন এবং আত্মা দ্বারা বিদ্যা গ্রহণ পূর্বক অজ্ঞান দূর করে বিদ্যা প্রকাশ করে/করুক ॥৪॥ অগ্নির সপ্ত মুখ বা জিহ্বা অর্থাৎ শিখা আছে- মুণ্ডকোপনিষদ্, মুণ্ডক ১ খণ্ড শ্লোক ৪ [কালী করালী চ মনোজবা চ সুলোহিতা যা চ সুধূম্রবর্ণা। স্ফুলিঙ্গিনী বিশ্বরূপী চ দেবী লেলায়মানা ইতি সপ্ত জিহ্বাঃ ॥] কালো বর্ণযুক্ত করালী, মনের সদৃশ বেগযুক্ত, রক্ত বর্ণযুক্ত, তীব্র ধূম্র বর্ণযুক্ত, স্ফুলিঙ্গযুক্ত এবং উজ্জ্বল সমস্ত রূপ অর্থাৎ রঙবিশিষ্ট, ইহা [অগ্নির] সপ্ত জিহ্বা ॥ সূর্যের সাত কিরণ − শুক্ল, নীল, পীত, রক্ত, হরিত, কপিশ এবং চিত্রবর্ণ ॥
भाषार्थ
(মহঃ জ্যোতিষঃ) মহা-জ্যোতির (পরমে) সর্বোৎকৃষ্ট (ব্যোমন্) হৃদয়াকাশে, (প্রথমম্) প্রথম (জায়মানঃ) প্রকটিত (বৃহস্পতিঃ) মহাব্রহ্মাণ্ডের পতি, (সপ্তরশ্মিঃ) সাত প্রকারের রশ্মিযুক্ত সূর্যের সদৃশ (তমাংসি) তমোগুণজন্য অন্ধকারময়ী দুর্বাসনা (অধমৎ) দূর করেন। এবং (তুবিজাতঃ) অধিক প্রকাশে প্রকট হয়ে ব্রহ্মাণ্ডপতি (রবেণ) কেবলমাত্র নিজ-আজ্ঞা দ্বারা, (সপ্তাস্যঃ) সপ্তজিহ্ব-অগ্নির সদৃশ তমোজন্য রাগ-দ্বেষাদি ভস্মীভূত করেন।
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