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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मेध्यातिथि देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-९
    50

    तत्त्वा॑ यामि सु॒वीर्यं॒ तद्ब्रह्म॑ पू॒र्वचि॑त्तये। येना॒ यति॑भ्यो॒ भृग॑वे॒ धने॑ हि॒ते येन॒ प्रस्क॑ण्व॒मावि॑थ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । त्वा॒ । या॒मि॒ । सु॒ऽवीर्य॑म् । तत् । ब्रह्म॑ । पू॒र्वऽचि॑त्तये । येन॑ । यति॑ऽभ्य: । भृग॑वे । धने॑ । हि॒ते । येन॑ । प्रस्क॑ण्वम् । आवि॑थ ॥९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्त्वा यामि सुवीर्यं तद्ब्रह्म पूर्वचित्तये। येना यतिभ्यो भृगवे धने हिते येन प्रस्कण्वमाविथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । त्वा । यामि । सुऽवीर्यम् । तत् । ब्रह्म । पूर्वऽचित्तये । येन । यतिऽभ्य: । भृगवे । धने । हिते । येन । प्रस्कण्वम् । आविथ ॥९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमात्मन् !] (त्वा) तुझसे (तत्) वह (सुवीर्यम्) बड़ा वीरत्व और (तत्) वह (ब्रह्म) बढ़ता हुआ अन्न (पूर्वचित्तये) पहिले ज्ञान के लिये (यामि) मैं माँगता हूँ। (येन) जिस [वीरत्व और अन्न] से (धने हिते) धन के स्थापित होने पर (यतिभ्यः) यतियों [यत्नशीलों] के लिये (भृगवे=भृगुम्) परिपक्व ज्ञानी को और (येन) जिससे (प्रस्कण्वम्) बड़े बुद्धिमान् पुरुष को (आविथ) तूने बचाया है ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को परमात्मा की उपासना करके पुरुषार्थ के साथ प्रथम श्रेणी के पराक्रमी, अन्नवान् और धनी होना चाहिये, जिसके अनुकरण से प्रयत्नशील पुरुष सुरक्षित रहें ॥३॥

    टिप्पणी

    मन्त्र ३, ४ ऋग्वेद में है-८।३।९, १० ॥ ३−(तत्) तादृक् (त्वा) त्वाम् (यामि) अथापि वर्णलोपो भवति तत्त्वा यामिति-निरु० २।१। याचामि। याचे (सुवीर्यम्) महद्वीरत्वम् (तत्) (ब्रह्म) प्रवृद्धम् अन्नम्-निघ० २।७ (पूर्वचित्तये) चिती संज्ञाने-क्तिन् प्रथमज्ञानाय (येन) सुवीर्येण ब्रह्मणा च (यतिभ्यः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। यती प्रयत्ने-इन्। प्रयत्नशीलेभ्यः (भृगवे) प्रथिम्रदिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च। उ० १।२८। भ्रस्ज पाके-कु। द्वितीयार्थें चतुर्थी। भृगुम्। परिपक्वज्ञानिनम् (धने) (हिते) स्थापिते (येन) (प्रस्कण्वम्) प्रकृष्टश्चासौ कण्वो मेधावी च तं यथा दयानन्दभाष्ये, ऋ० १।४४।६ (आविथ) अव रक्षणे-लिट्। त्वं ररक्षिथ ॥

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    विषय

    सुवीर्यं ब्रह्म

    पदार्थ

    १.हे प्रभो ! मैं (त्वा) = आपसे (तत्) = उस (सुवीर्यम्) = उत्कृष्ट पराक्रम को (यामि) = माँगता हूँ तथा (तत् ब्रह्म) = उस ज्ञान को माँगता हूँ, जो (पूर्वचित्तये) = पालन व पूरण की साधनाभूत स्मृति के लिए होता है। इस बल व ज्ञान को प्राप्त करके मैं अपने स्वरूप व मानव-जीवन के लक्ष्य को भूल न जाऊँ। २. (येन) = जिस बल व ज्ञान के द्वारा (यतिभ्यः) = संयमी पुरुषों के लिए और (भृगवे) = तपः परिपक्व पुरुषों के लिए [भ्रस्ज् पाके] (हिते धने) = हितकर धन के होने पर आप (येन) = जिस धन से (प्रस्कण्वमाविथ) = मेधावी पुरुष का रक्षण करते हैं। इस बल व ज्ञान से आप संयमी व तपस्वी लोगों को हितकर धन में स्थापित करते हैं और मेधावी पुरुष का रक्षण करते हैं।

    भावार्थ

    हम प्रभु से बल व ज्ञान प्राप्त करके अपने स्वरूप व लक्ष्य का स्मरण करें। संयमी व तपस्वी बनकर हितकर धन को प्राप्त हों। मेधावी बनकर प्रभु से रक्षणीय हो। धन हमारे विनाश का कारण न बन जाए।

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    भाषार्थ

    (यतिभ्यः) योगमार्ग पर यत्न करनेवाले यतियों के लिए, तथा (भृगवे) तप द्वारा कायिक और ऐन्द्रियिक मलों का भर्जन करनेवाले तपस्वी-जन के लिए, (हिते धने) उनके हितकर मोक्षधन की प्राप्ति के निमित्त, हे परमेश्वर! आप (येन) जिन सात्विकवीर्य, और (येन) जिस ब्रह्मविद्या से सम्पन्न (प्रस्कण्वम्) महामेधावी सद्गुरु को, समय-समय पर (आविथ) भूमण्डल पर भेजते रहते हैं, (तत्) उस (सुवीर्यम्) सात्विक वीर्य की, तथा (तत्) उस (ब्रह्म) ब्रह्मविद्या की (त्वा यामि) प्रार्थना मैं आपसे करता हूँ। (पूर्वचित्तये) ताकि मुझे पूर्व चेतना प्राप्त हो सके१।

    टिप्पणी

    [यतिभ्यः=यती प्रयत्ने। भृगवे=भ्रस्ज पाके। भृगवे पद में जात्येकवचन है। प्रस्कण्वम्, कण्व=मेधावी (निघ০ ३.१५), प्रस्कण्व=महा मेधावी। यामि=याच्ञाकर्मा (निघं০ ३.१९)। आविथ=अव् (=अवाप्ति प्रवेश)। पूर्वचित्ति=पूर्वचेतना=भविष्य में होनेवाली घटनाओं का पूर्वज्ञान, ताकि अभ्यासी उन दुर्घटनाओं से अपनी रक्षा कर सके। यथा—परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम् (योग০ ३.१६)। अतीत का अर्थ है—भूत, और अनागत का अर्थ है—भविष्य। योगी संयम द्वारा अतीत और अनागत घटनाओं का परिज्ञान कर सकता है। इस पूर्वचित्ति के लिए “सुवीर्य और ब्रह्मविद्या” की आवश्यकता है।][१. " प्रस्कण्वमाविथ' के भाव का आंशिकरूप निम्न श्लोक में देखिये- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ ( गीता ४।७)]

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    विषय

    परमेश्वर और राजा।

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! (पूर्वचित्तये) अपने पूर्व या पूर्ण प्रज्ञान प्राप्त करने के लिये (त्वा) तुझ से (तत् सुवीर्यम् ब्रह्म) उस उत्तम वीर्य, बलशाली (ब्रह्म) महान् स्वरूप को (यामि) उपासना करूं। (येन) जिससे (यतिभ्यः) यम नियम के पालक, तपस्वी पुरुषों और (भृगवे) पापों के भूनने हारे, तेजस्वी ज्ञानी पुरुष को तू (हिते) हितकर (धन) परम ऐश्वर्य में स्थापित करता है और (येन) जिससे (प्रस्कण्वम्) परम मेधावी पुरुष को (आविथ) रक्षा करता है। राजा के पक्ष में—(पूर्वचित्तये) पूर्व निर्धारित ‘चिति’ अर्थात् परस्पर के समझौते के अनुसार हे राजन् ! मैं तुझसे उत्तम वीर्यजनक (ब्रह्म) बड़े भारी ऐश्वर्य की प्रार्थना करता हूं जिससे तू नियमों में बद्ध प्रजाओं और (भृगव) ज्ञानवान् विद्वान् के निमित्त (हिते धने) वेतन रूप से बंधे धन में उनको सन्तुष्ट करता है और जिससे (प्रस्कण्वम्) उत्तम उत्तम ज्ञानी पुरुषों को भी (आविथ) अपने राष्ट्र में पालन करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १, २ नोधाः, ३, ४ मेधातिथिऋषिः। १, २ त्रिष्टुभौ, ३, ४ प्रगाथे। चतुर्ऋचं सूक्तम।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    O Lord resplendent, I come to you and ask for that vigour and wisdom, that knowledge of reality and divinity, that prime acquisition and awareness of values by which, when the battle rages and money and materials are called for, you provide for the retired holy men, scientists, technologists and the inventors and by which you protect the man of advanced special knowledge.

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    Translation

    O Almighty God, I for the rememberance of previous bright’s activity ask you for that power and the knowledge through which you establish the men of austerity and him who has observed strict discipline of Yoga in the internally conceded spiritual wealth and through which protect the man who possesses inexhaustible knowledge.

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    Translation

    O Almighty God, I for the remembrance of previous bright’s activity ask you for that power and the knowledge through which you establish the men of austerity and him who has observed strict discipline of Yoga in the internally conceded spiritual wealth and through which protect the man who possesses inexhaustible knowledge.

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    Translation

    O God, I (Thy devotee) approach Thee, for acquiring complete knowledge to give me -that noble energy:and that Vedic lore, by which Thou protected t the self-controlled, the learned people, capable of shunning off all the evil-propensities and the highly intellectual person, with appropriate money for their well-being and livelihood.

    Footnote

    cf. Rig, 8.3.9.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र ३, ४ ऋग्वेद में है-८।३।९, १० ॥ ३−(तत्) तादृक् (त्वा) त्वाम् (यामि) अथापि वर्णलोपो भवति तत्त्वा यामिति-निरु० २।१। याचामि। याचे (सुवीर्यम्) महद्वीरत्वम् (तत्) (ब्रह्म) प्रवृद्धम् अन्नम्-निघ० २।७ (पूर्वचित्तये) चिती संज्ञाने-क्तिन् प्रथमज्ञानाय (येन) सुवीर्येण ब्रह्मणा च (यतिभ्यः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। यती प्रयत्ने-इन्। प्रयत्नशीलेभ्यः (भृगवे) प्रथिम्रदिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च। उ० १।२८। भ्रस्ज पाके-कु। द्वितीयार्थें चतुर्थी। भृगुम्। परिपक्वज्ञानिनम् (धने) (हिते) स्थापिते (येन) (प्रस्कण्वम्) प्रकृष्टश्चासौ कण्वो मेधावी च तं यथा दयानन्दभाष्ये, ऋ० १।४४।६ (आविथ) अव रक्षणे-लिट्। त्वं ररक्षिथ ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ঈশ্বরোপাসনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে পরমাত্মন্ !] (ত্বা) তোমার কাছ থেকে (তৎ) সেই (সুবীর্যম্) বড়ো বীরত্ব এবং (তৎ) সেই (ব্রহ্ম) বৃদ্ধিপ্রাপ্ত অন্ন (পূর্বচিত্তয়ে) প্রথম জ্ঞানের জন্য (যামি) আমি প্রার্থনা করছি। (যেন) যে [বীরত্ব এবং অন্ন] দ্বারা (ধনে হিতে) ধন স্থাপিত হলে (যতিভ্যঃ) জিতেন্দ্রিয় [যত্নশীলদের] জন্য (ভৃগবে=ভৃগুম্) পরিপক্ব জ্ঞানীকে এবং (যেন) যার মাধ্যমে (প্রস্কণ্বম্) অন্যন্ত বুদ্ধিমান্ পুরুষকে (আবিথ) তুমি রক্ষা করেছো ॥৩॥

    भावार्थ

    মনুষ্যকে পরাত্মার উপাসনা করে পুরুষার্থপূর্বক প্রথম শ্রেণীর পরাক্রমশালী, অন্নবান এবং ধনী হওয়া উচিত, যার অনুকরণ করে পরিশ্রমী পুরুষ সুরক্ষিত থাকে ॥৩॥ মন্ত্র ৩, ৪ ঋগবেদ আছে-৮।৩।৯, ১০ ॥

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    भाषार्थ

    (যতিভ্যঃ) যোগমার্গে প্রচেষ্টারত যোগাভ্যাসীর জন্য, তথা (ভৃগবে) তপ দ্বারা কায়িক এবং ঐন্দ্রিয়িক মল দূরীভূতকারী তপস্বীদের জন্য, (হিতে ধনে) তাঁদের হিতকর মোক্ষধনের প্রাপ্তির নিমিত্ত, হে পরমেশ্বর! আপনি (যেন) যে সাত্ত্বিকবীর্য, এবং (যেন) যে ব্রহ্মবিদ্যা সম্পন্ন (প্রস্কণ্বম্) মহামেধাবী সদ্গুরুকে, বিভিন্ন সময়ে (আবিথ) ভূমণ্ডলে প্রেরণ করেন, (তৎ) সেই (সুবীর্যম্) সাত্ত্বিক বীর্যের, তথা (তৎ) সেই (ব্রহ্ম) ব্রহ্মবিদ্যার (ত্বা যামি) প্রার্থনা আমি আপনার কাছে/নিকট করি। (পূর্বচিত্তয়ে) যাতে আমি পূর্ব চেতনা প্রাপ্ত হই১।

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