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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रयिसंवर्धन सूक्त
    128

    त्वं नो॑ अग्ने अ॒ग्निभि॒र्ब्रह्म॑ य॒ज्ञं व॑र्धय। त्वं नो॑ देव॒ दात॑वे र॒यिं दाना॑य चोदय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । न॒: । अ॒ग्ने॒ । अ॒ग्निऽभि॑: । ब्रह्म॑ । य॒ज्ञम् । च॒ । व॒र्ध॒य॒ । त्वम् । न॒: । दे॒व॒ । दात॑वे । र॒यिम् । दाना॑य । चो॒द॒य॒ ॥२०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं नो अग्ने अग्निभिर्ब्रह्म यज्ञं वर्धय। त्वं नो देव दातवे रयिं दानाय चोदय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । न: । अग्ने । अग्निऽभि: । ब्रह्म । यज्ञम् । च । वर्धय । त्वम् । न: । देव । दातवे । रयिम् । दानाय । चोदय ॥२०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे विद्वान् ! [परमेश्वर वा पुरुष] (अग्निभिः) विद्वानों के द्वारा (त्वम्) तू (नः) हमारे (ब्रह्म) वेद ज्ञान वा ब्रह्मचर्य (च) और (यज्ञम्) यज्ञ [१-विद्वानों के पूजन, २-पदार्थों के संगतिकरण, और ३-विद्यादि के दान] को (वर्धय) बढ़ा, (देव) हे दानशील, ! (त्वम्) तू (नः) हममें से (दातवे) दानशील पुरुष को (दानाय) दान के लिए (रयिम्) धन (चोदय) भेज ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर के ज्ञान से अपना ज्ञान और कर्मकौशल्य बढ़ावें और उपकारी कामों में आप सहायक बनें और दूसरों को सहायक बनावें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(नः) अस्माकम्। अस्माकं मध्ये। (अग्ने) हे विद्वन् परमेश्वर राजन् वा (अग्निभिः) म० १। विद्वद्भिः सह। (ब्रह्म) वेदज्ञानम्। ब्रह्मचर्यम्। (यज्ञम्) देवपूजनम्। पदार्थसंगतिकरणम्। विद्यादिदानम् (वर्धय) उन्नय। (देव) देवो दानाद्वा दीपनाद्वा-निरु० ७।१५। हे दानशील (दातवे) सितनिगमिमसि०। उ० १।६९। इति डुदाञ्-दाने-तुन्। दात्रे पुरुषाय। (रयिम्) धनम्। (दानाय) त्यागाय। (चोदय) प्रेरय ॥

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    विषय

    बा+यज्ञ

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (त्वम्) = आप (नः) = हमारे लिए (अग्निभिः) = माता-पिता व आचार्यरूप अग्गियों के द्वारा [पिता वै गार्हपत्योऽनिर्मातानिर्दक्षिणः स्मृतः । गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी ।] (ब्रह्म यज्ञं च) = ज्ञान और यज्ञ का (वर्धय) = वर्धन कीजिए। माता से उत्तम चरित्र को, पिता से उत्तम आचार [व्यवहार] को तथा आचार्य से उत्तम ज्ञान को प्राप्त करके हम ज्ञानेन्द्रियों से सदा ज्ञान का वर्धन करनेवाले बनें तथा कर्मेन्द्रियों से यज्ञात्मक उत्तम कर्मों को करनेवाले हों। २. हे देव-सब ऐश्वयों को देनेवाले प्रभो! (त्वम्) = आप (न:) = हमारे (दातवे) = दानशील पुरुष के लिए (दानाय) = दान के लिए (रसिं चोदय) = धन को प्रेरित कीजिए। हम दानशीला बनें और दान के लिए आपसे धनों को प्राप्त करें।

    भावार्थ

    उत्तम माता-पिता व आचार्य के सम्पर्क में आकर हम ज्ञान व यज्ञ का वर्धन  करें। खूब दानशील हों, दान के लिए प्रभु धन देंगे ही।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि नामवाले, या अग्नि के सदृश प्रकाशवाले परमेश्वर! (त्वम्) तू (अग्निभिः) गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि आदि अग्नियों के द्वारा (नः ब्रह्म) हमारे अन्न को (च) और (यज्ञम्) यज्ञ को (वर्धय) बढ़ा। (देव) हे परमेश्वरदेव! (त्वम्) तू (न:) हमारे (दातवे) दाता के लिए (रयिम् चोदय) धन को प्रेरित कर, (दानाय) ताकि वह दान करे।

    टिप्पणी

    [ब्रह्म=अन्ननाम (निघं० २।७)। अग्नियों में आहुतियों द्वारा वर्षा और तद् द्वारा अन्न पैदा होता है। दातवे="दातु" पद का चतुर्थ्येकवचन दातु= दाता कर्तरि१ तु प्रत्यय।" तु" प्रत्यय औणादिक (१।७२।७५)। सायण पाठ है, दातवे; दत्तवते।] [१. दातवे में तुमुन्नर्थ मानने पर दातवे और दानाय में पुनरुक्ति दोष होता है।]

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    विषय

    ईश्वर से उत्तम ऐश्वर्य और सद्गुणों की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे अग्ने ! परमात्मन् (त्वं) आप (नः) हमें और हमारे (ब्रह्म) वेद के जानने हारे विद्वान् ब्राह्मणों और (यज्ञं च) वैदिक उत्तम यज्ञ कर्म को (अग्निभिः) विद्वान् पुरुषों द्वारा (वर्धय) बढ़ाओ। हे (देव) परमात्मन् ! (नः) हमारे में सें (दातवे) दानशील पुरुषों के प्रति (दानाय) और अधिक दान करने के लिये (रयिं) धनादि ऐश्वर्य का (चोदय) प्रदान करो।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘देवतातये रायो’ इति ऋ०। पैप्प० सं०। ‘देवदानवे’ इति सायणाभिमतः पाठः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः । अग्निर्वा मन्त्रोक्ता नाना देवताः। १-५, ७, ९, १० अनुष्टुभः। ६ पथ्या पंक्तिः। ८ विराड्जगती। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Man’s Self-development

    Meaning

    Hey Agni, lord self-refulgent, O enlightened and radiant spirit of knowledge, with flames of yajna fire, reflections of light and through kind and brilliant teachers inspire, energise and increase our knowledge of the spirit, our yajnic social order and our spirit of piety, unity and charity. O lord refulgent, kind and generous, bless us with wealth and inspire us with the spirit of charity and magnanimity.

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    Translation

    O adorable Lord, may you increase our knowledge and sacrifice with fires divine. O Lord, may you urge the donor to give riches to us. (Cf.Rv.X.141.6)

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    Translation

    O’ man accomplished with effulgence of knowledge; you increase our Yajna performance and strengthen our knowledge. O unique one; inspire into the man of munificence, the sense of philanthropy and bestow upon us the boon of wealth.

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    Translation

    O God, with the aid of vedic scholars, strengthen our knowledge and sacrifice (Yajna). Incite Thou us, O God, to give and send us riches to bestow!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(नः) अस्माकम्। अस्माकं मध्ये। (अग्ने) हे विद्वन् परमेश्वर राजन् वा (अग्निभिः) म० १। विद्वद्भिः सह। (ब्रह्म) वेदज्ञानम्। ब्रह्मचर्यम्। (यज्ञम्) देवपूजनम्। पदार्थसंगतिकरणम्। विद्यादिदानम् (वर्धय) उन्नय। (देव) देवो दानाद्वा दीपनाद्वा-निरु० ७।१५। हे दानशील (दातवे) सितनिगमिमसि०। उ० १।६९। इति डुदाञ्-दाने-तुन्। दात्रे पुरुषाय। (रयिम्) धनम्। (दानाय) त्यागाय। (चोदय) प्रेरय ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (অগ্নি) হে অগ্নি নামযুক্ত, বা অগ্নির সদৃশ দীপ্যমান পরমেশ্বর! (ত্বম্) তুমি (অগ্নিভিঃ) গার্হপত্য, আহবনীয়, দক্ষিণাগ্নি আদি অগ্নির দ্বারা (নঃ ব্রহ্ম) আমাদের অন্নকে (চ) এবং (যজ্ঞম্) যজ্ঞকে (বর্ধয়) বর্ধিত/সমৃদ্ধ করো। (দেব) হে পরমেশ্বরদেব ! (ত্বম্) তুমি (নঃ) আমাদের (দাতবে) দাতার জন্য (রয়িম্ চোদয়) ধন প্রেরিত করো, (দানায়) যাতে সে দান করে।

    टिप्पणी

    [ব্রহ্ম= ব্রহ্ম অন্ননাম (নিঘং০ ২।৭)। অগ্নিতে আহুতির দ্বারা বর্ষা এবং তা-দ্বারা অন্ন উৎপাদন হয়। দাতবে= "দাতু" পদের চতুর্থ্যেক-বচন দাতা= দাতা কর্তরি১ তু-প্রত্যয়। "তু" প্রত্যয় ঔণাদিক (১।৭২-৭৫)। সায়ণ পাঠ হল, দানবে; দত্তবতে।] [১. দাতবে তুমুন্নর্থ মানলে দাতবে এবং দানায়-তে পুনরুক্তি দোষ হয়।]

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    मन्त्र विषय

    ব্রহ্মজ্ঞানোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে বিদ্বান্ ! [পরমেশ্বর বা পুরুষ] (অগ্নিভিঃ) বিদ্বানদের দ্বারা (ত্বম্) তুমি (নঃ) আমাদের (ব্রহ্ম) বেদ জ্ঞান বা ব্রহ্মচর্য (চ) এবং (যজ্ঞম্) যজ্ঞ [১-বিদ্বানদের পূজন, ২-পদার্থের সংগতিকরণ, এবং ৩-বিদ্যাদির দান] কে (বর্ধয়) বৃদ্ধি/সমৃদ্ধ করো, (দেব) হে দানশীল, ! (ত্বম্) তুমি (নঃ) আমাদের মধ্য থেকে (দাতবে) দানশীল পুরুষের (দানায়) দানের জন্য (রয়িম্) ধন (চোদয়) প্রেরিত করো॥৫॥

    भावार्थ

    মনুষ্য পরমেশ্বরের জ্ঞান দ্বারা নিজের জ্ঞান ও কর্মকৌশল্য বৃদ্ধি করুক এবং উপকারী কর্মে নিজেই সহায়ক হোক এবং অপরকেও সহায়ক করুক ॥৫॥

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