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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती सूक्तम् - शान्ति सूक्त
    54

    उ॒क्षान्ना॑य व॒शान्ना॑य॒ सोम॑पृष्ठाय वे॒धसे॑। वै॑श्वान॒रज्ये॑ष्ठेभ्य॒स्तेभ्यो॑ अ॒ग्निभ्यो॑ हु॒तम॑स्त्वे॒तत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒क्षऽअ॑न्नाय । व॒शाऽअन्ना॑य । सोम॑ऽपृष्ठाय । वे॒धसे॑ । वै॒श्वा॒न॒रऽज्ये॑ष्ठेभ्य: । तेभ्य॑: । अ॒ग्निऽभ्य॑: । हु॒तम् । अ॒स्तु॒ । ए॒तत् ॥२१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्षान्नाय वशान्नाय सोमपृष्ठाय वेधसे। वैश्वानरज्येष्ठेभ्यस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उक्षऽअन्नाय । वशाऽअन्नाय । सोमऽपृष्ठाय । वेधसे । वैश्वानरऽज्येष्ठेभ्य: । तेभ्य: । अग्निऽभ्य: । हुतम् । अस्तु । एतत् ॥२१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (उक्षान्नाय) प्रबलों के अन्नदाता, (वशान्नाय) वशीभूत निर्बल प्रजाओं के अन्नदाता, (सोमपृष्ठाय) अमृत सींचनेवाले और (वेधसे) उत्पन्न करनेवाले (तेभ्यः) उन [चार प्रकार के] (वैश्वानरज्येष्ठेभ्यः) सब नरों के हितकारी [परमेश्वर] को प्रधान रखनेवाले (अग्निभ्यः) अग्नियों [ईश्वरतेजों] को (एतत्) यह (हुतम्) दान [आत्मसमर्पण] (अस्तु) होवे ॥६॥

    भावार्थ

    जिस (वैश्वानर) सब मनुष्य आदि के हितकारी परमेश्वर की शक्ति से सब प्राणी पुष्ट होते हैं, उसको हमारा नमस्कार है ॥६॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध ऋग्वेद ८।४३।११ में है ॥

    टिप्पणी

    ६−(उक्षान्नाय) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति उक्ष सेचने, वृद्धौ च-कनिन्। उक्षा महन्नाम-निघ० ३।३। उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः। निरु० १२।९। कॄवृजॄसिद्रुपन्यनि०। उ० ३।१०। इति अन प्राणने-न। इति अन्नम्। उक्षभ्यो महद्भ्यः प्रबलेभ्योऽन्नं यस्मात् तस्मै। प्रबलानां भोजनदात्रे। (वशान्नाय) वशिरण्योरुपसंख्यानम्। वा० पा० ३।३।५८। इति वश स्पृहायाम्-अप्, टाप्। वशाभ्यो वशीभूताभ्यः प्रजाभ्योऽन्नं यस्मात् तस्मै। निर्बलप्रजानां भोजनदात्रे। (सोमपृष्ठाय) तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। उ० २।१२। इति पृषु सेचने-थक्। अमृतसेचकाय। (वेधसे) अ० ११।१। विधात्रे। विधानकर्त्रे (वेश्वानरज्येष्ठेभ्यः) वैश्वानर इति व्याख्यातम्-अ० १।१०।४। विश्वनरहितः परमेश्वरो ज्येष्ठो वृद्धः प्रधानो येषां तेभ्यः। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    'उक्षान्न, वशान, सोमपृष्ठ' वेधस् के सम्पर्क में

    पदार्थ

    १. (उक्षान्नाय) = [उक्षा-one of the chief medicament] पौष्टिक ओषधियों को ही अपना अन्न बनानेवाला, (वशानाय) =  [वशा-पृथिवी-श०१.८.३.१५.] पृथिवी को ही अपना अन्न बनानेवाला, अर्थात् वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करनेवाला, (सोमपृष्ठाय) = सोमशक्ति को ही अपना आधार बनानेवाला-ऐसे (वेधसे) = ज्ञानी पुरुष के लिए हम अपना अर्पण करते हैं। इसके सम्पर्क में आकर हम भी 'वेधस्' बन पाते हैं। २. (वैश्वानरज्येष्ठेभ्य:) = सब मनुष्यों के हितकारी प्रभु को ही जो ज्येष्ठ मानते हैं, (तेभ्यः) = उन (अग्निभ्यः) = अग्नणी पुरुषों के लिए (एतत्) = यह (हुतम्, अस्तु) = अर्पण हो। प्रभु-परायण विद्वानों के प्रति अपना अर्पण करते हुए हम भी उन-जैसे ही बनते हैं।

    भावार्थ

    हम उन विद्वानों के सम्पर्क में रहें जो१. पौष्टिक ओषधियों का ही प्रयोग करते हैं, २. पृथिवी से उत्पन्न वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करते हैं, ३. सोमशक्ति को जीवन का आधार मानते हैं और ४. प्रभु को सर्वश्रेष्ठ जानते हैं।

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    भाषार्थ

    (उक्षान्नाय) वर्षा द्वारा सींचनेवाला आदित्य जिसका अन्न है, उसके लिए, (बशान्नाय) तथा वशा जिसका अन्न है उसके लिए, (सोमपृष्ठाय) उत्पन्न जगत् का जो पृष्ठ अर्थात् आधार है उसके लिए, (वेधसे) जगत् का, या विधियों का विधान करनेवाले के लिए, (वैश्वानर-ज्येष्ठेभ्यः) समग्र नर-नारियों का हित करनेवाला परमेश्वररूप जिनमें ज्येष्ठ है, (तेथ्य: अग्निभ्य:) उन अग्नियों के लिए (एतत्) यह प्राकृतिक तथा आत्महविः (हुतम्, अरस्तु) प्रदत्त हो, अर्पित हो।

    टिप्पणी

    [उक्षा= उक्ष सेचने (भ्वादिः), "आदित्याद् जायते वृष्टिः वृष्टेरन्नम्"। वशा="वशेदं सर्वमभवत, देवा मनुष्या असुराः पितर ऋषयः" (अथर्व० १०।१०।२६) अर्थात् यह दृश्यमान जगत् तथा देव, मनुष्य, असुर, पितर और ऋषि "वशा" हैं। अर्थात् उक्षा और दृश्यमान जगत्, तथा देव आदि जिसके अन्त हैं। प्रलयकाल में आदित्य तथा वशोक्त सब परमेश्वराग्नि के अन्नरूप हो जाते हैं। परमेश्वर अन्नाद है, मंत्राभिप्रेत अन्न का अदन करता है। यह सृष्टिकाल में भी हो रहा है, और महाप्रलय काल में भी। परमेश्वर अन्न भी है। उपासक इसके अन्नरस अर्थात् आनन्दरस का पान करते हैं, और यह अन्नाद भी है। यथा "अहमन्नम्, अहमन्नादः" (तैत्ति० उप० वल्ली ३।१०।६)। सोमपृष्ठाय सोम है उत्पन्न जगत् (षु प्रसवे, भ्वादिः, अदादि)। परमेश्वर उत्पन्न जगत् की पीठ है, आधार है। जैसे अश्व की पीठ अश्वारोही का आधार होती है। वैश्वानरज्येष्ठेभ्यः=परमेश्वर है वैश्वानर, सब नर नारियों का हितकारी। सबका हितकारी होने से यह सर्व ज्येष्ठ अग्नि है। अग्नि रूप होकर यह पाप-मल को भस्मीभूत कर देता है और प्रलय में जगत् को भी।]

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    विषय

    लोकोपकारक अग्नियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (उक्ष-अन्नाय) उक्षा = शरीर को एवं समष्टि रूप से समस्त ब्रह्माण्ड को वहन करने वाले आत्मा को अपना अन्न अर्थात् प्राप्य विषय बनाने वाले भक्त योगीजन,(वशा-अन्नाय) वशा=सब संसार को समष्टि-व्यष्टिरूप से वश करने वाली चेतना शक्ति को अपना अन्न = मानस भोजन बनाने हारे और(वेधसे) संसार के पदार्थों की रचना करने वाले,(सोम-पृष्ठाय) आनन्दस्वरूप आनन्द का आस्वादन करने वाले,(वैश्वानर-ज्येष्ठेभ्यः) और वैश्वानर अर्थात् समस्त लोकों में व्यापक ब्रह्म जिन में सब से श्रेष्ठ है (तेभ्यः अग्निभ्यः हुतम् अस्तु एतत्) उन जीवनमुक्त, ज्येष्ठ ज्ञानी आत्मानों के लिये मेरा यह समस्त त्याग- आहुति समर्पित हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता। १ पुरोनुष्टुप्। २, ३,८ भुरिजः। ५ जगती। ६ उपरिष्टाद्-विराड् बृहती। ७ विराड्गर्भा। ९ निचृदनुष्धुप्। १० अनुष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Energy, Kama Fire and Peace

    Meaning

    To the fire forms of the self-expressive energy of the burden - bearer of the universe as well as passionate forms of the food of life, to the fire forms of the graces of life, to the fires which bear and bring the peace, pleasure and ecstasy of life, to the fire forms of the omniscient lord creator, to the highest fire forms of the self-expression of the universal spirit of humanity, to all these fire forms of divine creative energy, this oblation in homage!

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    Translation

    To giver of food-grains to bulls, to giver of food-grains to barren cows (vašā), to the sage on whose back lies the devotional bliss (soma-prstha), to the creator of the world and to those, whose elder is vaišvānara, benefactor of all men, to all those fires let this oblation be offered.

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    Translation

    The fire in which is offered the oblation of the cerials mixed with milk, in which is offered the oblations of the preparations mixed with molten ghee, which is offered in the oblations of herbaceous Plants, and which is the source of creation to all those fires of which the Vaishvanara, the animal heat is most powerful let this oblation be offered.

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    Translation

    May my sacrifice be offered to God, who feeds the strong and the weak, is the Embodiment of joy, and the Creator of all material objects. May my sacrifice be offered to those wise souls, who consider the Omnipresent God as sublime.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(उक्षान्नाय) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति उक्ष सेचने, वृद्धौ च-कनिन्। उक्षा महन्नाम-निघ० ३।३। उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः। निरु० १२।९। कॄवृजॄसिद्रुपन्यनि०। उ० ३।१०। इति अन प्राणने-न। इति अन्नम्। उक्षभ्यो महद्भ्यः प्रबलेभ्योऽन्नं यस्मात् तस्मै। प्रबलानां भोजनदात्रे। (वशान्नाय) वशिरण्योरुपसंख्यानम्। वा० पा० ३।३।५८। इति वश स्पृहायाम्-अप्, टाप्। वशाभ्यो वशीभूताभ्यः प्रजाभ्योऽन्नं यस्मात् तस्मै। निर्बलप्रजानां भोजनदात्रे। (सोमपृष्ठाय) तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। उ० २।१२। इति पृषु सेचने-थक्। अमृतसेचकाय। (वेधसे) अ० ११।१। विधात्रे। विधानकर्त्रे (वेश्वानरज्येष्ठेभ्यः) वैश्वानर इति व्याख्यातम्-अ० १।१०।४। विश्वनरहितः परमेश्वरो ज्येष्ठो वृद्धः प्रधानो येषां तेभ्यः। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (উক্ষান্নায়) বর্ষা দ্বারা সিঞ্চনকারী আদিত্য যার অন্ন, তার জন্য, (বশান্নায়) এবং বশা যার অন্ন, তার জন্য, (সোমপৃষ্ঠায়) উৎপন্ন জগতের যে পৃষ্ঠ অর্থাৎ আধার আছে, তার জন্য, (বেধসে) জগতের, বা বিধি-সমূহের বিধানকারীর জন্য, (বৈশ্বানর-জ্যেষ্ঠেভ্যঃ) সমগ্র নর-নারীদের হিতকারী পরমেশ্বররূপ যাদের মধ্যে জ্যেষ্ঠ, (তেভ্যঃ অগ্নিভ্যঃ) সেই অগ্নিসমূহের জন্যে (এতৎ) এই প্রাকৃতিক এবং আত্মহবিঃ (হুতম্, অস্তু) প্রদত্ত হোক, অর্পিত হোক।

    टिप्पणी

    [উক্ষা= উক্ষ সেচনে (ভ্বাদিঃ), "আদিত্যাদ্ জায়তে বৃষ্টিঃ বৃষ্টেরন্নম্"। বশা="বশেদং সর্বমভবৎ, দেবা মনুষ্যা অসুরাঃ পিতর ঋষয়ঃ" (অথর্ব০ ১০।১০।২৬) অর্থাৎ এই দৃশ্যমান জগৎ এবং দেবতা, মনুষ্য, অসুর, পিতর ও ঋষি হলেন "বশা"। অর্থাৎ উক্ষা ও দৃশ্যমান জগৎ, এবং দেবতা আদি হলো যার অন্ত। প্রলয়কালে আদিত্য এবং বশোক্ত সবকিছু পরমেশ্বরাগ্নির অন্নরূপ হয়ে যায়। পরমেশ্বর হলেন অন্নাদ, মন্ত্রাভিপ্রেত অন্নের অদন করে। যা সৃষ্টি কালেও হচ্ছে, এবং মহাপ্রলয় কালেও। পরমেশ্বরও হলেন অন্ন। উপাসক পরমেশ্বরের অন্নরস অর্থাৎ আনন্দরসের পান করে, এবং তিনি অন্নাদও বটে। যথা “অহমন্নম্, অহমন্নাদঃ" (তৈত্তি০ উপ০ ৩।১০।৬)। সোমপৃষ্ঠায়= সোম হলো উৎপন্ন জগৎ (ষু প্রসবে, ভ্বাদিঃ, অদাদিঃ)। পরমেশ্বর হলেন উৎপন্ন জগতের পিঠ, আধার। যেমন অশ্বের পিঠ অশ্বারোহীর আধার হয়। বৈশ্বানরজ্যেষ্ঠেভ্যঃ= পরমেশ্বর হলেন বৈশ্বানর, সকল নর-নারীর হিতকারী। সবার হিতকারী হওয়ার জন্য ইনি সর্বজ্যেষ্ঠ অগ্নি। অগ্নিরূপ হয়ে ইনি পাপ-মলকে ভস্মীভূত করে দেন এবং প্রলয়ে জগতকেও।]

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    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরস্য গুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (উক্ষান্নায়) প্রবলদের অন্নদাতা, (বশান্নায়) বশীভূত নির্বল প্রজাদের অন্নদাতা, (সোমপৃষ্ঠায়) অমৃত সীঞ্চনকারী এবং (বেধসে) উৎপন্নকারী, (তেভ্যঃ) সেই [চার প্রকারের] (বৈশ্বানরজ্যেষ্ঠেভ্যঃ) সমস্ত নরের হিতকারীকে [পরমেশ্বরকে] প্রধান হিসেবে স্থাপিতকারী (অগ্নিভ্যঃ) অগ্নিসমূহকে [ঈশ্বর তেজকে] (এতৎ) এই (হুতম্) দান [আত্মসমর্পণ] (অস্তু) হোক॥৬॥

    भावार्थ

    যে (বৈশ্বানর) সকল মনুষ্যাদির হিতকারী পরমেশ্বরের শক্তির মাধ্যমে সমস্ত প্রাণী পুষ্ট হয়, উনাকে আমাদের নমস্কার ॥৬॥ এই মন্ত্রের পূর্বার্ধ ঋগ্বেদ ৮।৪৩।১১ এ রয়েছে ॥

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