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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राजासंवरण सूक्त
    148

    त्वां विशो॑ वृणतां रा॒ज्या॑य॒ त्वामि॒माः प्र॒दिशः॒ पञ्च॑ दे॒वीः। वर्ष्म॑न्रा॒ष्ट्रस्य॑ क॒कुदि॑ श्रयस्व॒ ततो॑ न उ॒ग्रो वि भ॑जा॒ वसू॑नि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । विश॑: । वृ॒ण॒ता॒म् । रा॒ज्या᳡य । त्वाम् । इ॒मा: । प्र॒ऽदिश॑: । पञ्च॑ । दे॒वी: । वर्ष्म॑न् । रा॒ष्ट्रस्य॑ । क॒कुदि॑ । श्र॒य॒स्व॒ । तत॑: । न॒: । उ॒ग्र: । वि । भ॒ज॒ । वसू॑नि ॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वां विशो वृणतां राज्याय त्वामिमाः प्रदिशः पञ्च देवीः। वर्ष्मन्राष्ट्रस्य ककुदि श्रयस्व ततो न उग्रो वि भजा वसूनि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । विश: । वृणताम् । राज्याय । त्वाम् । इमा: । प्रऽदिश: । पञ्च । देवी: । वर्ष्मन् । राष्ट्रस्य । ककुदि । श्रयस्व । तत: । न: । उग्र: । वि । भज । वसूनि ॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजतिलक का उत्सव।

    पदार्थ

    [हे राजन् !] (त्वाम्) तुझको (राज्याय) राज्य के लिये (विशः) प्रजायें और (त्वाम्) तुझको ही (इमाः) यह सब (पञ्च) विस्तीर्ण वा पाँच (देवीः=०−व्यः) दिव्य गुणवाली (प्रदिशः) महा दिशायें (वृणताम्) स्वीकार करें। (राष्ट्रस्य) राज्य के (वर्ष्मन्=०−णि) ऐश्वर्ययुक्त वा ऊँचे (ककुदि) शिखर पर (श्रयस्व) आश्रय ले। (ततः) फिर (उग्रः) तेजस्वी तू (नः) हमारेलिये (वसूनि) धनों का (वि, भज) विभाग कर ॥२॥

    भावार्थ

    राजा को सब प्रजागण चुनें। और सब मनुष्यादि प्रजा और चारों पूर्वादि दिशाएँ और पाँचवी ऊपर नीचे की दिशा के पदार्थ [जैसे आकाश मार्ग और भूगर्भादि के पदार्थ] सब राजा के आधीन रहें और यह बड़ा ऐश्वर्यवान् होकर राजभक्त सुपात्रों को विद्या और सुवर्णादि धनों का दान करता रहे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(त्वाम्)। राजानम्। (विशः)। प्रजाः। (वृणताम्)। वृङ् सम्भक्तौ-लोट्। संभजताम्। सेवन्ताम्। (राज्याय)। पत्यन्तपुरोहितादिभ्यो यक्। पा० ५।१।१२८। इति राजन्-यक्। राजकर्मणे। राष्ट्राय। (इमाः)। परिदृश्यमानाः। (प्रदिशः)। प्रधानदिशाः। (पञ्च)। अ० १।३०।४। षचि विस्तारे-कनिन्। विस्तीर्णाः। प्राच्याद्या मध्यदिशा सह पञ्चसंख्याकाः। (देवीः)। देव्यः। प्रकाशमानाः। दिव्याः। (वर्ष्मन्)। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति वृष प्रजननैश्ययोः-मनिन्। सप्तम्या लुक्। वर्ष्मन् शब्द उन्नतवचनः। स्थिरवचनो वा, इति सायणः, ऋग्वेदभाष्ये म० १०।२८।२। ऐश्वर्ययुक्ते। उन्नते। स्थिरे)। (राष्ट्रस्य)। राज्यस्य। (ककुदि)। क+कु शब्दे-क्विप्, तुक् च, तस्य दः, अतर्भावितण्यर्थः। कं सुखं कावयति गृहस्थस्य औन्नत्यं प्रापयतीति ककुद्। वृषस्कन्धपृष्ठस्थमांसपिण्डे। नृपचिह्ने। पर्वतशिखरे। (श्रयस्व)। श्रिञ् सेवने आश्रितो भव। आस्स्व। (ततः)। तदनन्तरम्। (नः)। अस्मभ्यम्। (वि, भज)। सांहितिको दीर्घः। यथाभागं देहि। (वसूनि)। धनानि ॥

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    विषय

    विस-विभजन

    पदार्थ

    १. हे राजन् ! (त्वाम्) = तुझे (विश:) = प्रजाएँ (राज्याय) = राज्य के लिए (वृणताम्) = वरें। (त्वाम्) = तुझे (इमा:) = ये (पञ्च) = विस्तृत [पचि विस्तारे] (देवी:) = दिव्य गुणयुक्त (प्रदिश:) = प्रकृष्ट दिशाएँ-इन दिशाओं में निवास करनेवाले व्यक्ति राज्य के लिए चुनें। इनसे चुने गये आप इस देश के शासन को संभालनेवाले हों। यहाँ 'पञ्च' का भाव चार दिशाएँ और एक मध्य भाग मिलकर 'पाँचों प्रदेश' यह भी लिया जा सकता है। भाव इतना ही है कि राजा का चुनाव सब मिलकर करें। २. इसप्रकार चुनाव हो जाने पर तू (राष्ट्रस्य) = राष्ट्र के (वर्ष्मन् ककुदि) = [वर्मन्-Handsome or lovely] सुन्दर शिखर पर-ऊँचे सिंहासन पर-सर्वोच्च पद पर (श्रयस्व) = आश्रय कर । (तत:) = उस उच्चावस्था से (उग्र:) = तेजस्वी होता हुआ तू (न:) = हमारे लिए (वसूनि विभज) = धनों का उचित विभाग कर । राजा का यह भी एक मौलिक कर्तव्य है कि वह धन को कुछ पुरुषों में केन्द्रित न होने दे। धन का उचित विभाग राष्ट्र-शरीर के रक्षण के लिए उतना ही आवश्यक है, जितना कि इस शरीर के रक्षण के लिए रुधिर का किसी एक स्थान में केन्द्रित न होने देना।

    भावार्थ

    सब मिलकर राजा का चुनाव करें। चुने जाने पर राजा इस बात का ध्यान रक्खे कि सम्पत्ति कुछ पुरुषों में ही केन्द्रित न हो जाए।

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    भाषार्थ

    [हे सम्राट् !] (त्वाम) तेरा (विशः) प्रजाएं (वृणताम्) वरण करें (राज्याय) राज्य के लिए (इमाः) ये (प्रदिशः) विस्तृत दिशाएँ, जोकि (पञ्च) पाँच हैं, और (देवीः) दिव्य प्रजाओं बाली हैं (त्वाम्) तेरा वरण करें। (वर्ष्मन्) श्रेष्ठ (राष्ट्रस्य ककुदि) राष्ट्र के उन्नत स्थान में या सिंहासन में (श्रयस्व) तूं आश्रय पा, (तत:) उस उन्नत स्थान या सिंहासन से (उग्र) उग्र हुआ तु (न:) हम प्रजाओं में (वसूनि, वि भज) सम्पत्तियों का विभाग कर। पञ्च=पचि विस्तारे (चुरादिः) यथा पंचास्यः= सिंह:। या ऊर्ध्वादिशा तथा शेष चार दिशाएँ।

    टिप्पणी

    [राष्ट्र में सम्पत्तियों का यथोचित विभाग करना चाहिए, जिससे सबका पालन-पोषण हो सके। ककूद=बैल के कन्धों में उच्च अङ्ग, तथा पर्वतशिखर।]

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    विषय

    राजा का राज्याभिषेक ।

    भावार्थ

    राजा को समस्त प्रजाएं स्वयं चुनें और चुना हुआ राजा समस्त राष्ट्र की सम्पत्तियों को प्रजा में बांटे, इसका उपदेश करते हैं—हे राजन् ! (विशः) समस्त देश में बसने हारी प्रजाएं (राज्याय) राज्य अर्थात् अपने ऊपर शासन करने के लिये (त्वां) तुझको (वृणतां) स्वयं चुनें। (इमाः) ये (देवीः) विद्वानों की बनी हुई (पंच) पांच (प्रदिशः) उत्तम मार्ग दर्शाने वाली विद्वत्सभितियां भी वरण करें । (राष्ट्रस्य) समस्त राष्ट्र के (वर्ष्मन्) शरीर में, समस्त अहाते में (ककुदि) सबसे उत्तम स्थान सिंहासन एवं श्रेष्ठ सम-प्रदेश राजधानी में (श्रयस्व) तू आश्रय ले, अपना राजमहल बनाकर निवास कर या राजसिंहासन पर विराजमान हो । (ततः) उसके बाद (उग्रः) सदा राजदण्ड का बल उठाये रखकर (नः) हम प्रजाओं में यथोचित रीति से (वसूनि) राष्ट्र के बसने योग्य जीवनोपयोगी धनों को (वि भज) न्यायपूर्वक विभाग कर ।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘त्वां हवन्त मरुतः स्वर्काः ?’ (प्र०) ‘गावोऽवृणन् राज्याय’ (तृ०) ‘क्षत्रस्य ककुमि शिश्रियाणः’ इति तै० सं । तत्रैव (द्वि०) ‘त्वां बर्धन्ति’ (वृ०) ‘क्षत्रस्य ककुधिः’ इति मै० सं०। ‘राष्ट्रस्य ककुधि’ (प्र०) ‘वृणुताम्’ (च०) ‘अतो वसूनि वि भजास्युग्रः’ इति पैप्प० सं० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । इन्द्रो देवता । १ जगती । ५, ६ भुरिजौ । २, ३, ४, ७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Re-establishment of Order

    Meaning

    Let the people select, accept and consecrate you to rule over the land, people in all five divine directions. Grace the highest seat and office of the republic and from there, shining in glory, share the wealth, power and honour of the land with us.

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    Translation

    May people select you for kingship and so may these five celestial regions. Stay at the apex in the body politic of the kingdom. Thereafter, becoming formidable (unchallengable), may you distribute riches among us.

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    Translation

    The subject of the republic select you for this imperial Majesty ; these five directive bodies select you, you rest on the height and top of the sovereign power and thence as a mighty man award us all prosperities.

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    Translation

    O King, the subjects shall elect thee for the kingship, these five celestialregions will accept thee as their lord. Rest on the height, and top of kinglypower: thence as a mighty man award us treasures!

    Footnote

    Five celestial regions; the four quarters of the heavens with the addition of the Zenith the Nadir Pt. JaidevVidyalankar interprets the words as five assemblies of the learned.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(त्वाम्)। राजानम्। (विशः)। प्रजाः। (वृणताम्)। वृङ् सम्भक्तौ-लोट्। संभजताम्। सेवन्ताम्। (राज्याय)। पत्यन्तपुरोहितादिभ्यो यक्। पा० ५।१।१२८। इति राजन्-यक्। राजकर्मणे। राष्ट्राय। (इमाः)। परिदृश्यमानाः। (प्रदिशः)। प्रधानदिशाः। (पञ्च)। अ० १।३०।४। षचि विस्तारे-कनिन्। विस्तीर्णाः। प्राच्याद्या मध्यदिशा सह पञ्चसंख्याकाः। (देवीः)। देव्यः। प्रकाशमानाः। दिव्याः। (वर्ष्मन्)। सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति वृष प्रजननैश्ययोः-मनिन्। सप्तम्या लुक्। वर्ष्मन् शब्द उन्नतवचनः। स्थिरवचनो वा, इति सायणः, ऋग्वेदभाष्ये म० १०।२८।२। ऐश्वर्ययुक्ते। उन्नते। स्थिरे)। (राष्ट्रस्य)। राज्यस्य। (ककुदि)। क+कु शब्दे-क्विप्, तुक् च, तस्य दः, अतर्भावितण्यर्थः। कं सुखं कावयति गृहस्थस्य औन्नत्यं प्रापयतीति ककुद्। वृषस्कन्धपृष्ठस्थमांसपिण्डे। नृपचिह्ने। पर्वतशिखरे। (श्रयस्व)। श्रिञ् सेवने आश्रितो भव। आस्स्व। (ततः)। तदनन्तरम्। (नः)। अस्मभ्यम्। (वि, भज)। सांहितिको दीर्घः। यथाभागं देहि। (वसूनि)। धनानि ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    [হে সম্রাট্ !] (ত্বাম্) তোমার (বিশঃ) প্রজাগণ (বৃণতাম্) বরণ করুক (রাজ্যায়) রাজ্যের জন্য (ইমাঃ) এই (প্রদিশঃ) বিস্তৃত দিকসমূহ, যা (পঞ্চ) পাঁচটি, এবং (দেবীঃ) দিব্য প্রজাবিশিষ্ট রয়েছে (ত্বাম্) তোমার বরণ করুক। (বর্ষ্মন্) শ্রেষ্ঠ (রাষ্ট্রস্য ককুদি) রাষ্ট্রের উন্নত স্থানে বা সিংহাসনে (শ্রয়স্ব) উন্নত স্থান বা সিংহাসন থেকেই (উগ্রঃ) উৎসাহী হয়ে তুমি (নঃ) আমাদের [প্রজাদের] মধ্যে (বসূনি, বি ভজ) সম্পত্তির বিভাগ করো। পঞ্চ=পচি বিস্তারে (চুরাদিঃ), যথা পংচাস্যঃ=সিংহঃ। বা ঊর্ধ্বাদিশা এবং শেষ চারটি দিশা।

    टिप्पणी

    [রাষ্ট্রে সম্পত্তির যথোচিত বিভাগ করা উচিত, যাতে সকলের পালন-পোষণ হতে পারে। ককুদ্= বলদের কাঁধে উচ্চ অঙ্গ, এবং পর্বতশিখর।]

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    मन्त्र विषय

    রাজ্যাভিষেকোৎসবঃ

    भाषार्थ

    [হে রাজন্ !] (ত্বাম্) তোমাকে (রাজ্যায়) রাজ্যের জন্য (বিশঃ) প্রজাগণ এবং (ত্বাম্) তোমাকেই (ইমাঃ) এই সকল (পঞ্চ) বিস্তীর্ণ বা পাঁচ (দেবীঃ=০−ব্যঃ) দিব্য (প্রদিশঃ) মহা দিশা (বৃণতাম্) স্বীকার করুক। (রাষ্ট্রস্য) রাজ্যের (বর্ষ্মন্=০−ণি) ঐশ্বর্যযুক্ত বা উচ্চ/পরম (ককুদি) শিখরে (শ্রয়স্ব) আশ্রয় নাও/গ্রহণ করো। (ততঃ) তদনন্তর (উগ্রঃ) তেজস্বী তুমি (নঃ) আমাদের জন্য (বসূনি) ধন-সম্পদের (বি, ভজ) বিভাগ করো ॥২॥

    भावार्थ

    রাজাকে সমস্ত প্রজাগণ নির্বাচন করুক। এবং সমস্ত মনুষ্যাদি প্রজা ও চার পূর্বাদি দিশা এবং পঞ্চম উপর, নীচের দিশার পদার্থ [যেমন আকাশ মার্গ ও ভূগর্ভাদির পদার্থ] সবকিছু রাজার অধীনে থাকুক এবং রাজা বড়ো ঐশ্বর্যবান্ হয়ে রাজভক্ত সুপাত্রদের বিদ্যা এবং সুবর্ণাদি ধনের দান করতে থাকুক ॥২॥

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