अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
ऋषिः - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राजासंवरण सूक्त
79
आ प्र द्र॑व पर॒मस्याः॑ परा॒वतः॑ शि॒वे ते॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे स्ता॑म्। तद॒यं राजा॒ वरु॑ण॒स्तथा॑ह॒ स त्वा॒यम॑ह्व॒त्स उ॑पे॒दमेहि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । प्र । द्र॒व॒ । प॒र॒मस्या॑: । प॒रा॒ऽवत॑: । शि॒वे इति॑ । ते॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒भे इति॑ । स्ता॒म् । तत् । अ॒यम् । राजा॑ । वरु॑ण: । तथा॑ । आ॒ह॒ । स: । त्वा॒ । अ॒यम् । अ॒ह्व॒त् । स: । उप॑ । इ॒दम् । आ । इ॒हि॒ ॥४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
आ प्र द्रव परमस्याः परावतः शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम्। तदयं राजा वरुणस्तथाह स त्वायमह्वत्स उपेदमेहि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । प्र । द्रव । परमस्या: । पराऽवत: । शिवे इति । ते । द्यावापृथिवी इति । उभे इति । स्ताम् । तत् । अयम् । राजा । वरुण: । तथा । आह । स: । त्वा । अयम् । अह्वत् । स: । उप । इदम् । आ । इहि ॥४.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजतिलक का उत्सव।
पदार्थ
(परमस्याः) अत्यन्त (परावतः) दूर देश से (आ, प्र, द्रव) आकर पधार। (ते) तेरेलिये (उभे) दोनों (द्यावापृथिवी=०−व्यौ) सूर्य और पृथिवी (शिवे) मङ्गलकारी (स्ताम्) होवें। (तथा) वैसा ही (अयम्) यह (राजा) राजा (वरुणः) सबमें श्रेष्ठ परमेश्वर (तत्) वह (आह) कहता है। सो (सः अयम्) इस [वरुण परमेश्वर] ने (त्वा) तुझको (अह्वत्) बुलाया है। (सः=सः त्वम्) सो तू (इदम्) इस [राज्य] को (उप) आदरपूर्वक (आ) आकर (इहि) प्राप्त कर ॥५॥
भावार्थ
प्रजागण श्रेष्ठ राजा को दूर देश से भी बुला लेवें और वह अपने बुद्धिबल से ऐसा प्रबन्ध करे कि राज्यभर में दैवी और पार्थिव शान्ति रहे, अर्थात् अनावृष्टि और दुर्भिक्षादि में भी उपद्रव न मचे और आकाश, पृथिवी और समुद्रादि के मार्ग अनुकूल रहें। यही आज्ञा परमेश्वर ने वेदों में दी है, उसको राजा यथावत् माने ॥५॥
टिप्पणी
५−(आ)। आगत्य। (प्र द्रव)। द्रु गतौ। प्रकर्षेण प्राप्नुहि। (परमस्याः)। स्याडागमः। अत्यन्तात्। (परावतः)। उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे। पा० ५।१।११८। इति उपसर्गसाधने धात्वर्थे स्वार्थे वतिः प्रत्ययः। परावतः प्रेरितवतः परागताद्वा-निरु० ११।४८। दूरदेशात्। (शिवे)। मङ्गलकारिण्यौ। (ते)। तुभ्यम्। (द्यावापृथिवी)। सूर्यभूमी। तत्रस्थाः पदार्था इत्यर्थः। (स्ताम्)। भवताम्। (तत्)। प्रसिद्धं वचनम्। (अयम्)। सर्वव्यापकः। (राजा)। ईश्वरः। समर्थः। (वरुणः)। वरणीयः। परमेश्वरः। (तथा)। तेनैव प्रकारेण। (आह)। ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि-लट्। ब्रुवः पञ्चानामादित आहो ब्रुवः। पा० ३।४।८४। इति आहादेशः परस्मैपदे। ब्रवीति। कथयति। (अह्वत्)। ह्वेञ्-लुङ्। आहूतवान्। (उप)। पूजायाम्। (इहि)। इण् गतौ। प्राप्नुहि। अन्यत् सुगमम् ॥
विषय
शिवे द्यावापृथिवी
पदार्थ
१. हे राजन्! तू (परमस्याः परावतः) = अत्यन्त सुदुर प्रदेश से भी आ (प्रद्रव) = राष्ट्र की ओर शीघ्रता से आनेवाला हो। कार्यवश राजा को सुदूर प्रदेशों में भी जाना हो तो वह वहाँ विलम्ब न करके शीघ्र अपने राष्ट्र में उपस्थित होने का ध्यान करे। (ते) = तेरे लिए (द्यावापृथिवी उभे) = ये युलोक और पृथिवीलोक दोनों ही (शिवे) = कल्याणकर (स्ताम्) = हों। राष्ट्र में घुलोक से वृष्टि ठीक रूप में होकर पृथिवी में पर्याप्त अन्न पैदा करनेवाली हो। वस्तुतः राष्ट्र की उत्तम व्यवस्था पर ही अतिवृष्टि व अनावृष्टि आदि कष्टों का दूर होना सम्भव होता है। २. (अयम्) = यह राजा-सारे ब्रह्माण्ड का शासक (वरुण:) = सब कष्टों का निवारण करनेवाला प्रभु (तत्) = उस बात को तथा उस प्रकार (आह) = कहता है। प्रभु ने वेद में स्पष्ट कह दिया है कि राजा के अपराध से ही आधिदैविक कष्ट आया करते हैं-'न वर्ष मैत्रावरुणं ब्रह्मण्यमभि वर्षति । (सः अयम्) = वे ये प्रभु ही (त्वा) = तुझे (अह्वत्) = इस सिंहासन पर पुकारते हैं। राजा को प्रभु का प्रतिनिधि-कार्यकर बनकर उत्तमता से शासन करना चाहिए। (स:) = वह तू (इदम्) = इस राष्ट्रपति के आसन को (उप ऐहि) = समीपता से प्राप्त हो।
भावार्थ
राजा कार्यवश कहीं भी जाए, वहाँ से शीघ्र ही राष्ट्र में लौटने का ध्यान करे। उत्तम राष्ट्र व्यवस्था पर ही 'ठीक से वृष्टि होना व पृथिवी का अन्न उत्पन्न करना'निर्भर करता है। राजा अपने को प्रभु का कारिन्दा समझे और इसी भावना को लेकर सिंहासन पर बैठे।
भाषार्थ
[हे सम्राट् !] (आ प्रद्रव) स्व-साम्राज्य के अभिमुख, तू शीघ्रता से आ, (परमस्याः परावतः) अत्यन्त दूर देश से भी। (उभे द्यावापृथिवी) दोनों द्युलोक और पृथिवी (ते) तेरे लिए (शिवे) मङ्गलकारी (स्ताम्) हों। (तत्) इसे (अयम् राजा वरुणः) इस वरुण राजा ने भी (तथा) उस प्रकार (आह) कहा है, (सः) उस (अयम्) इस वरुण राजा ने (त्वा) तुझे (अह्वत्) बुलाया है, (सः) बह तू (इदम्) इस साम्राज्य में (एहि) आ।
टिप्पणी
[भावी सम्राट् परकीय राष्ट्र में विद्यमान है, परकीय राष्ट्र अति दूर है। वहाँ से आने में उसे कोई कष्ट न हो इसलिए मङ्गल की अभिलाषा प्रकट की है। मन्त्र के उत्तरार्द्ध में वरुण राजा का वर्णन है। वरुण राजा का वर्णन वरुण-सूक्त में हुआ है (अथर्व० ४।१६।१-९)। वरुण राजा परमेश्वर है। इसे "सः" द्वारा दूरस्थ तथा "अयम्" द्वारा समीपस्थ दर्शाता है, "तद् दूरे तद्वन्तिके" (यजु० ४०।५)। इससे यह दर्शाया है कि सर्वव्यापक वरुण-राजा भी भावी सम्राट के आगमन को चाहता है।]
विषय
राजा का राज्याभिषेक ।
भावार्थ
हे राजन् ! (परमस्य परावतः) अत्यन्त दूर देशों तक भी तू (आ प्र द्रव) जाया कर और वहां से पुनः अपनी राजधानी में आ जाया कर । इस दौरे के कार्य में (उभे) दोनों (द्यावापृथिवी) नर और नारी, राजा और प्रजावर्ग, आकाश और पृथिवी (ते) तेरे लिये (शिवे) मंगलकारी (स्ताम्) होवें । (तत्) तभी (अयं) यह (राजा) राजा (सः) वह (वरुणः) वरुणस्वरूप है, परमात्मा का प्रतिनिधि, सर्वश्रेष्ठ शासक है । (सः) वह ही (त्वा) तुझ को (अयम्) यह ईश्वर (अह्वत्) उपदेश करता है कि (सं इदं उप आ इहि) वह ही तू योग्य पुरुष इस पद को प्राप्त हो ।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘उभे बभूतम्’ (च०) ‘अह्वत् स्वेनमेहि’ इति पैप्प० सं०। (प्र०) ‘आप्रेहि परमस्याः परावतः’ इति मै० सं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः । इन्द्रो देवता । १ जगती । ५, ६ भुरिजौ । २, ३, ४, ७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Re-establishment of Order
Meaning
Come fast from the farthest corner where there be a crisis. Reach the farthest where there is need. May heaven and earth both be good, the environment good and benevolent for the dominion. This is what self- refulgent Varuna, lord of the universe, says to you of you. He has called upon you. The same you come. Take over this dominion, be that same and rule.
Translation
Rush on this place from farther even than the farthest distance. May both heaven and earth be gracious to you. So this illustrious Varuna (the Police-Chief) has said. As such, - he has invited you. Do come to this place (at once).
Translation
O’ King; you visit your territories of far off regions and return back. Let both the earth and heaven be safe corners for you. In this way you are the real representive of Varuna, the All—controlling God ; He asserts you, that you remain on this position.
Translation
O King, travel to distant places in your kingdom, and soon return tothe capital. In this tour, may officials and subjects be propitious unto thee.Verily this king is a representative of God so does God pronounce. The sameGod preaches unto thee, Thou art a fit person for this post’!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(आ)। आगत्य। (प्र द्रव)। द्रु गतौ। प्रकर्षेण प्राप्नुहि। (परमस्याः)। स्याडागमः। अत्यन्तात्। (परावतः)। उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे। पा० ५।१।११८। इति उपसर्गसाधने धात्वर्थे स्वार्थे वतिः प्रत्ययः। परावतः प्रेरितवतः परागताद्वा-निरु० ११।४८। दूरदेशात्। (शिवे)। मङ्गलकारिण्यौ। (ते)। तुभ्यम्। (द्यावापृथिवी)। सूर्यभूमी। तत्रस्थाः पदार्था इत्यर्थः। (स्ताम्)। भवताम्। (तत्)। प्रसिद्धं वचनम्। (अयम्)। सर्वव्यापकः। (राजा)। ईश्वरः। समर्थः। (वरुणः)। वरणीयः। परमेश्वरः। (तथा)। तेनैव प्रकारेण। (आह)। ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि-लट्। ब्रुवः पञ्चानामादित आहो ब्रुवः। पा० ३।४।८४। इति आहादेशः परस्मैपदे। ब्रवीति। कथयति। (अह्वत्)। ह्वेञ्-लुङ्। आहूतवान्। (उप)। पूजायाम्। (इहि)। इण् गतौ। प्राप्नुहि। अन्यत् सुगमम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
[হে সম্রাট!] (আ প্রদ্রব) স্ব-সাম্রাজ্য এর অভিমুখে, তুমি শীঘ্রই এসো, (পরমস্যাঃ পরাবতঃ) অত্যন্ত দূর দেশ থেকেও। (উভে দ্যাবাপৃথিবী) উভয় দ্যুলোক ও পৃথিবী (তে) তোমার জন্য (শিবে) মঙ্গলকারী (স্তাম্) হোক। (তৎ) ইহা (অয়ম্ রাজা বরুণঃ) এই বরুণ রাজাও (তথা) সেইভাবে (আহ) বলেছে, (সঃ) সেই (অয়ম্) এই বরুণ রাজা (ত্বা) তোমাকে (অহ্বৎ) আহ্বান করেছে, (সঃ) সেই তুমি (ইদম্) এই সাম্রাজ্যে (উপ এহি) এসো।
टिप्पणी
[হবু সম্রাট পরকীয় রাষ্ট্রে বিদ্যমান রয়েছে, পরকীয় রাষ্ট্র অতি দূরে রয়েছে। সেখান থেকে আগমনের ক্ষেত্রে তাঁর যাতে কোনো কষ্ট না হয় এইজন্য মঙ্গলের অভিলাষা প্রকট করা হয়েছে। মন্ত্রে উত্তরার্দ্ধে বরুণ রাজার বর্ণনা রয়েছে। বরুণ রাজার বর্ণনা বরুণ-সূক্ত এ হয়েছে (অথর্ব০ ৪।১৬।১-৯)। বরুণ রাজা হলেন পরমেশ্বর। একে "সঃ" দ্বারা দূরস্থ এবং "অয়ম" দ্বারা সমীপস্থ উপস্থাপন করা হয়েছে, "তদ্ দূরে তদ্বন্তিকে" (যজুঃ০ ৪০।৫)। এর দ্বারা প্রদর্শিত করা হয়েছে যে, সর্বব্যাপক বরুণ-রাজাও হবু সম্রাট্ এর আগমন চায়/কামনা করে।]
मन्त्र विषय
রাজ্যাভিষেকোৎসবঃ
भाषार्थ
(পরমস্যাঃ) অত্যন্ত (পরাবতঃ) দূর দেশ থেকে (আ, প্র, দ্রব) এসে উপনীত হও। (তে) তোমার জন্য (উভে) উভয়ই (দ্যাবাপৃথিবী=০−ব্যৌ) সূর্য ও পৃথিবী (শিবে) মঙ্গলকারী (স্তাম্) হোক। (তথা) তেমনই (অয়ম্) এই (রাজা) রাজা (বরুণঃ) সর্বশ্রেষ্ঠ পরমেশ্বর (তৎ) তা (আহ) বলে। (সঃ অয়ম্) সুতরাং এই [বরুণ পরমেশ্বর] (ত্বা) তোমাকে (অহ্বৎ) আহ্বান করেছে। (সঃ=সঃ ত্বম্) সুতরাং তুমি (ইদম্) এই [রাজ্য] কে (উপ) আদরপূর্বক (আ) এসে (ইহি) প্রাপ্ত করো ॥৫॥
भावार्थ
প্রজাগণ শ্রেষ্ঠ রাজাকে দূর দেশ থেকেও আহ্বান করবে/করুক এবং রাজা নিজের বুদ্ধি শক্তি দ্বারা এমন ব্যবস্থা করুক যাতে সারা রাজ্যে দৈবী ও পার্থিব শান্তি থাকে, অর্থাৎ অনাবৃষ্টি ও দুর্ভিক্ষাদি এর মধ্যেও উপদ্রব/উদ্বিগ্নতা না হয় এবং আকাশ, পৃথিবী ও সমুদ্রাদি এর মার্গ অনুকূল থাকে। এই আজ্ঞা পরমেশ্বর বেদের মধ্যে দিয়েছেন, তা রাজা যথাবৎ মান্য করুক ॥৫॥
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