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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - विश्वे देवाः छन्दः - चतुष्पदा विराद्बृहतीगर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रधारण सूक्त
    64

    इ॒हेद॑साथ॒ न प॒रो ग॑मा॒थेर्यो॑ गो॒पाः पु॑ष्ट॒पति॑र्व॒ आज॑त्। अ॒स्मै कामा॒योप॑ का॒मिनी॒र्विश्वे॑ वो दे॒वा उ॑प॒संय॑न्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । इत् । अ॒सा॒थ॒ । न । प॒र: । ग॒मा॒थ॒ । इर्य॑: । गो॒पा: । पुष्ट॒ऽपति॑: । व॒: । आ । अ॒ज॒त् । अ॒स्मै । कामा॑य । उप॑ । का॒मिनी॑: । विश्वे॑ । व॒: । दे॒वा: । उ॒प॒ऽसंय॑न्तु ॥८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहेदसाथ न परो गमाथेर्यो गोपाः पुष्टपतिर्व आजत्। अस्मै कामायोप कामिनीर्विश्वे वो देवा उपसंयन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । इत् । असाथ । न । पर: । गमाथ । इर्य: । गोपा: । पुष्टऽपति: । व: । आ । अजत् । अस्मै । कामाय । उप । कामिनी: । विश्वे । व: । देवा: । उपऽसंयन्तु ॥८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 8; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रीति उत्पन्न करने का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे प्रजाओं ! स्त्री-पुरुषों !] (इह इत्) यहाँ पर ही (असाथ) रहो, (परः) दूर (न) मत (गमाथ) जाओ, (इर्यः) अन्नवान् वा विद्यावान् (गोपाः) भूमि, वा विद्या वा गौ का रक्षक, (पुष्टपतिः) पोषण का स्वामी पुरुष (वः) तुमको (आ, अजत्) यहाँ लावे। (अस्मै) इस [पुरुष] के अर्थ (कामाय) कामना [की पूर्ति] के लिए (विश्वे) सब (देवाः) उत्तम-उत्तम गुण (कामिनीः) उत्तम कामनावाली (वः) तुम प्रजाओं को (उप) अच्छे प्रकार से (उपसंयन्तु) आकर प्राप्त हों ॥४॥

    भावार्थ

    राजा राज्य की वृद्धि के लिए प्रजा अर्थात् स्त्री-पुरुषों को नगरों में बसावे और अन्नादि से पोषण करके शुभ गुणों के उपार्जन में सदा प्रवृत्त रक्खे ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(इह)। अस्मिन् राज्ये। (इत्)। एव। (असाथ)। अस्तेर्लेटि आडागमः। भवत। वर्तध्वम्। (न)। निषेधे। (परः)। पूर्वाधरावराणामसि०। पा० ५।३।३९। इति छन्दसि पर-असि। दूरे। (गमाथ)। गमेर्लेटि आडागमः। गच्छत। (इर्यः)। ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इति इण् गतौ रक्, टाप् गुणाभावो निपात्यते। इरा, अन्ननाम-निघ० २।७। सरस्वती। तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। इति इण्-यत्। अन्नवान्। विद्यावान्। (गोपाः)। आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ४।२।७४। इति गो+पा रक्षणे-विच्। चितः। पा० ६।१।१६३। इति अन्तोदात्तः। गां भूमिं वाचं धेनुं वा पातीति। भूपालः। विद्यारक्षकः। धेनुरक्षकः। (पुष्टपतिः)। पुष्टस्य पोषणस्य स्वामी। (वः)। युष्मान्। (आ, अजत्)। अज गतिक्षेपणयोः। आगमयतु। आनयतु। (अस्मै)। अस्य हिताय। (कामाय)। शुभकामनासिद्धये। इष्टप्राप्तये। (उप)। अधिके। पूजायाम्। (कामिनीः)। काम-इनि, ङीप्। शुभकामवतीः प्रजाः। (विश्वे)। सर्वे। (देवाः)। दिव्यगुणाः। (उपसंयन्तु)। इण् गतौ-लोट्। समीपे सम्यक्-प्राप्नुवन्तु ॥

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    विषय

    उत्तम घर

    पदार्थ

    १. राजा राष्ट्र में सब गृहपत्नियों को प्रेरणा देता है कि तुम (इह इत् असाथ) = यहाँ घर पर ही रहो, (न पर: गमाथ) = घर से दूर न जाओ। यहाँ घरों में (इर्यः) = उत्तम अन्नोंवाला [इरा अन्नम्], (गोपा:) = गौओं का पालन करनेवाला, (पुष्टपति:) = पोषण का स्वामी (व:) = तुम्हें (आजत) = प्रेरित करता है, अर्थात् तुम्हारे पति 'इर्य, गोपा व पुष्टपति' हों। तुम ऐसे घर में ही बनी रहो, घर को छोड़कर जाने का कभी स्वप्न भी न लो। २. तुम (अस्मै कामाय) = इस तुम्हारी कामनावाले [कामयमानाय] पति के (उप) = समीप ही (कामिनी:) = पति की कामनावाली होओ। यहाँ घर में सदाचरण से जीवन यापन करती हुई (व:) = तुम्हें (विश्वेदेवा:) = सब दिव्य गुण (उपसंयन्तु) = प्राप्त हों और देववृत्ति के पुरुष ही तुम्हें अतिथिरूपेण प्राप्त हों।

    भावार्थ

    राजा चाहता है कि राष्ट्र में पत्नियाँ घरों को छोड़कर जाने का स्वप्न भी न लें। प्रियपति के प्रति प्रेमवाली हों। पति घर में अन्न की कमी न होने दें, गौओं को अवश्य रक्खें, घर में सभी के पोषण का ध्यान करें। घरों में देवृत्ति के पुरुष ही अतिथिरूपेण प्राप्त हों। सब घरों की उत्तमता पर ही राष्ट्र की उत्तमता निर्भर होती है।

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    भाषार्थ

    [हे प्रजााओं !] (इह इद्) इस निज राष्ट्र में ही (असाथ) तुम बने रहो, (पर: न गमाथ) राष्ट्र को छोड़कर परे न जाओ, (इर्यः) प्रेरक, (पुष्ठपतिः) पुष्टान्न का पति (गोपा:) पृथिवीपालक राजा (व:) तुम्हें (आजत्) यहीं रहने में प्रेरित करें (अस्मै कामाय) राजा की इस कामना के लिये (उपकामिनी:) राजा के समीप रहने की कामनावाली हो जाओ। (विश्वे देवाः) राष्ट्र के सब दिव्यजन (वः) तुम्हारे (उप) समीप (सं यन्तु) मिलकर आएं। [तुम्हें यहीं रहने को प्रेरित करने के लिये।]

    टिप्पणी

    ["अहमुत्तरत्व" की स्पर्धा में युद्धोपस्थित हो जाने, या इसकी सम्भावना में कई प्रजाजन निजराष्ट्र को छोड़कर परकीय किसी राष्ट्र में चले जाना चाहते हैं, इस विचार से कि उन्हें न जाने जीवनार्थ अन्न भी मिल सकेगा, या नहीं। प्रजा के कतिपय दिव्य नेता उन्हें कहते हैं कि पुष्टान्न का स्वामी राजा तुम्हें आश्वासन देता है कि राष्ट्र में प्रभूत अन्न है। इसलिये जीवनरक्षार्थ तुम राष्ट्र छोड़कर अन्यत्र न जाओ। ईर्यः= ईर गतौ, तुम्हारा प्रेरक या शत्रु को कंपा देनेवाला राजा (ईर गतौ कम्पने च) (अदादि:)।]

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    विषय

    राजा के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    राजा अपने अधिकारीगण और प्रजाओं को उपदेश करता है कि-हे प्रजाओ ! (इह इत्) यहां ही, इसी राष्ट्र में ही (असाथ) सुखपूर्वक निवास करो । (परः) दूर (न) मत (गमाथ) जाओ । इसी प्रकार का उपदेश राजा अपनी सेनाओं के प्रति भी करता है। (इर्यः) तुमको सन्मार्ग पर चलाने हारा, आज्ञापक (गोपाः) गौओं को पालन करने हारे गोपति के समान तुम प्रजाओं और सेनाओं का पालक, (पुष्टपतिः) तुम्हारे पुष्टिकारक पदार्थों का भी परिपालक (वः) तुमको (आजत्) ठीक मार्ग पर चला रहा है । आप लोग (अस्मै) इसके (कामाय) अभिलाषा के अनुकूल ही (कामिनीः) अपनी अभिलाषा उसी प्रकार बनाये रक्खो जिस प्रकार अभिलाषा वाली स्त्रियां अपने साधु और प्रिय पतियों के प्रति रहती हैं। तभी (वः) तुमको (विश्वे देवाः) समस्त विद्वत्गण भी (उप संयन्तु) प्राप्त हों, तुम्हारे आज्ञावर्ती और सहायक हों । राजा सब विभागों पर अध्यक्ष नियत करे, उसके अनुसार सब चलें, तभी राष्ट्र के विद्वद्गुण भी उनकी सहायता करें ।

    टिप्पणी

    (च०) ‘उपसंनयन्तु’ (तृ०) उपकायिनीस्त, उपकामिनीरित इति वा ह्विटिनिकामितः पाठः । (तृ० च०) अस्मै वः कामा उपकामिनी विश्वे देवा उपसस्यामिह इति पैप्प० सं० (प्र०) ‘नपुर:’ इति सायणा-भिमतः पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मित्रो विश्वेदेवा वा देवता । २, ६ जगत्यौ । ४ चतुष्पदा विराड् बृहतीगर्भा । त्रिष्टुप् । ५ अनुष्टुप् । १, ३ त्रिष्टुभौ । षडृचं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rashtra Unity

    Meaning

    O people of the world, bound in mutual love and common ambition, stay here only close by the centre of this universal yajna, go not far away, and may the lord protector, energiser and promoter sustainer lead you on the common drive. And may all Vishvedevas, divinities of nature and brilliancies of humanity, be one and favourable with you for the fulfillment of this common aim of progress and enlightenment.

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    Translation

    O cows, may you stay just here. Please do not go away. May the quick-running cowherd, the nourisher Lord, urge you (to this place ). May all the enlightened ones approach you, the desirable , for satisfaction of desires of this sacrificer.(Kāminīh = Cows; gopa = cowherd; pustapatih = nourisher Lord)

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    Translation

    Let all the people live in this dominion, no one of them go away from it, the man producing grains, the man domesticating cows and the man nourishing the people remain here. Lake, dames, all the physical forces go to them for serving this purpose of nation’s prosperity.

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    Translation

    O subjects, here, verily, may you stay: go ye no farther. The learned guardian of the Earth. Your nourisher is leading you on the right path. Toplease this man, may all the learned persons together come unto you, the subjects, the cherishers of noble desires.

    Footnote

    Guardian of the Earth: King ‘Nourisher’ refers to the King. This man: King. ‘We’ refers to the officials, ‘Your refers to the subjects.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(इह)। अस्मिन् राज्ये। (इत्)। एव। (असाथ)। अस्तेर्लेटि आडागमः। भवत। वर्तध्वम्। (न)। निषेधे। (परः)। पूर्वाधरावराणामसि०। पा० ५।३।३९। इति छन्दसि पर-असि। दूरे। (गमाथ)। गमेर्लेटि आडागमः। गच्छत। (इर्यः)। ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इति इण् गतौ रक्, टाप् गुणाभावो निपात्यते। इरा, अन्ननाम-निघ० २।७। सरस्वती। तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। इति इण्-यत्। अन्नवान्। विद्यावान्। (गोपाः)। आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ४।२।७४। इति गो+पा रक्षणे-विच्। चितः। पा० ६।१।१६३। इति अन्तोदात्तः। गां भूमिं वाचं धेनुं वा पातीति। भूपालः। विद्यारक्षकः। धेनुरक्षकः। (पुष्टपतिः)। पुष्टस्य पोषणस्य स्वामी। (वः)। युष्मान्। (आ, अजत्)। अज गतिक्षेपणयोः। आगमयतु। आनयतु। (अस्मै)। अस्य हिताय। (कामाय)। शुभकामनासिद्धये। इष्टप्राप्तये। (उप)। अधिके। पूजायाम्। (कामिनीः)। काम-इनि, ङीप्। शुभकामवतीः प्रजाः। (विश्वे)। सर्वे। (देवाः)। दिव्यगुणाः। (उपसंयन्तु)। इण् गतौ-लोट्। समीपे सम्यक्-प्राप्नुवन्तु ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    [হে প্রজাগণ !] (ইহ ইদ্) এই নিজ রাষ্ট্রেই (অসাথ) তোমরা থাকো, (পরঃ ন গমাথ) রাষ্ট্র ত্যাগ করে দূরে যেওনা, (ইর্যঃ) প্রেরক, (পুষ্টপতিঃ) পুষ্টান্নের পতি (গোপাঃ) পৃথিবীপালক রাজা (বঃ) তোমাদের (আজৎ) এখানেই থাকার জন্য প্রেরিত করুক। (অস্মৈ কামায়) রাজার এই কামনার জন্য (উপকামিনীঃ) রাজার নিকট থাকার কামনাকারী হয়ে যাও। (বিশ্বে দেবাঃ) রাষ্ট্রের সমস্ত দিব্য মনুষ্যগৈ (বঃ) তোমাদের (উপ) সম্মুখে (সং যন্তু) একসাথে আসুক [তোমাদের এখানেই থাকার ক্ষেত্রে প্রেরিত করার জন্য।]

    टिप्पणी

    ["অহমুত্তরত্ব" এর স্পর্ধায় যুদ্ধোপস্থিত হলে, বা এর সম্ভাবনায় অনেক প্রজারা নিজ রাষ্ট্র পরিত্যাগ করে পরকীয় কোনো রাষ্ট্রে চলে যেতে চায়, এই ধারনায় যে, তাঁদের জীবনার্থের জন্য অন্ন প্রাপ্তি হবে নাকি হবে না। প্রজাদের কতিপয় দিব্য নেতা তাঁদের বলে যে, পুষ্টান্নের স্বামী রাজা তোমাদের আশ্বাসন দেয় যে, রাষ্ট্রে প্রভূত অন্ন রয়েছে। এইজন্য জীবন রক্ষার্থে তোমরা রাষ্ট্র পরিত্যাগ করে অন্যত্র যেও না। ঈর্যঃ= ঈর গতৌ, তোমাদের প্রেরক বা শত্রুকে কম্পিতকারী রাজা (ঈর গতৌ কম্পনে চ) (অদাদি)।]

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    मन्त्र विषय

    প্রীতিজননায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে প্রজাগণ ! স্ত্রী-পুরুষগণ !] (ইহ ইৎ) এখানেই (অসাথ) থাকো, (পরঃ) দূরে (ন) না (গমাথ) যাও, (ইর্যঃ) অন্নবান্ বা বিদ্যাবান্ (গোপাঃ) ভূমি, বা বিদ্যা বা গাভীর রক্ষক, (পুষ্টপতিঃ) পোষণের স্বামী পুরুষ (বঃ) তোমাদের (আ, অজৎ) এখানে নিয়ে আসুক। (অস্মৈ) এই [পুরুষ] এর অর্থ (কামায়) কামনা [এর পূর্তি] এর জন্য (বিশ্বে) সমস্ত (দেবাঃ) উত্তম-উত্তম গুণ (কামিনীঃ) উত্তম কামনাকারী (বঃ) তোমাদের [প্রজাদের] (উপ) উত্তমরূপে (উপসংযন্তু) এসে প্রাপ্ত হোক ॥৪॥

    भावार्थ

    রাজা রাজ্যের বৃদ্ধির/সমৃদ্ধির জন্য প্রজা অর্থাৎ স্ত্রী-পুরুষদের নগরে স্থিত করুক এবং অন্নাদি দ্বারা পালন-পোষণ করে শুভ গুণের উপার্জনে সদা প্রবৃত্ত রাখুক ॥৪॥

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