अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
ऋषिः - शन्तातिः
देवता - चन्द्रमाः, विश्वे देवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रोग निवारण सूक्त
77
द्वावि॒मौ वातौ॑ वात॒ आ सिन्धो॒रा प॑रा॒वतः॑। दक्षं॑ ते अ॒न्य आ॒वातु॒ व्य॒न्यो वा॑तु॒ यद्रपः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठद्वौ । इ॒मौ । वातौ॑ । वा॒त॒: । आ । सिन्धो॑: । आ । प॒रा॒ऽवत॑: । दक्ष॑म् । ते॒ । अ॒न्य: । आ॒ऽवातु॑ । वि । अ॒न्य: । वा॒तु॒ । यत् । रप॑: ॥१३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः। दक्षं ते अन्य आवातु व्यन्यो वातु यद्रपः ॥
स्वर रहित पद पाठद्वौ । इमौ । वातौ । वात: । आ । सिन्धो: । आ । पराऽवत: । दक्षम् । ते । अन्य: । आऽवातु । वि । अन्य: । वातु । यत् । रप: ॥१३.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
स्वास्थ्यरक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(इमौ) यह (द्वौ) दोनों (वातौ) पवन, अर्थात् प्राण और अपान वायु (आसिन्धोः) बहनेवाले इन्द्रियदेश तक और (आ परावतः) बाहिर दूर स्थान तक (वातः) चलते रहते हैं। (अन्यः) एक [प्राण वायु] (ते) तेरा (दक्षम्) वृद्धि करनेवाले बल को (आवातु) बह कर लावे और (अन्यः) दूसरा [अपना वायु] (यत् रपः) जो दोष है उसे (विवातु) बहकर निकाल देवे ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य शुद्ध स्थान में शुद्ध वायु के सेवन से प्राण वायु के सञ्चार द्वारा शरीर का बल बढ़ाकर और अपान से पसीना आदि मल दोष नाश करके स्वस्थ रहें ॥२॥
टिप्पणी
२−(द्वौ) दृश्यमानौ (वातौ) पवनौ। प्राणापानौ (वातः) वां गतिगन्धनयोः। गच्छतः संचरतः (आसिन्धोः) मर्यादायामाकारः। स्यन्दनशीलनाडीदेशपर्यन्तम् (आ परावतः) शरीराद् बाह्यदेशपर्यन्तम् (दक्षम्) दक्ष वृद्धौ-अव वृद्धिकरं बलम् (ते) तव (अन्यः) एकः प्राणवायुः (आवातु) आगमयतु, (अन्यः) द्वितीयोऽपानवायुः (विवातु) विगमयतु। निवारयतु (यत्) (रपः) रप कथने-असुन्। रपो रिप्रमिति पापनामनी भवतः-निरु० ४।२१। पापं दोषम् ॥
विषय
प्राण+अपान
पदार्थ
१. (इमौ) = ये (द्वौ वातौ) = प्राण और अपानरूप दो वायुएँ (वातः) = शरीर में सञ्चरण करती हैं। इनमें से एक प्राण तो (आसिन्धो:) = स्यन्दनशील स्वेद के अयनोंपर्यन्त गतिवाला होता है तथा दूसरा अपान (आपरावतः) = शरीर से बाहर बारह अंगुल परिमित स्थान तक संचारवाला होता है। २. इनमें (अन्य:) = एक प्राण (ते) = तेरे लिए (दक्षम् आवातु) = बल प्राप्त कराए और (अन्यः) = दूसरा अपान तेरा (यत् रपः) = जो पाप व दोष है, उसे (विवातु) = तुझसे दूर करे।
भावार्थ
शरीर में ठीक गति करता हुआ 'प्राण' बल का सञ्चार करे और अपान' शरीरस्थ दोषों को दूर करे।
भाषार्थ
(द्वौ) दो (इमौ) ये (वातौ) वायुएं (वातः) गति करती हैं, (आ सिन्धोः) एक हृदय-समुद्र से, दूसरी (आ परावतः) परे के प्रदेश से। (अन्यः) एक (ते) तेरे लिए (दक्षम्) बल (आ वातु) बहा लाये, (अन्यः) और उससे भिन्न (वि बातु) पृथक् बहा ले-जाय, (यद् रपः) जोकि पापरूप है, अशुद्ध है।
टिप्पणी
[मन्त्र में श्वास-प्रश्वास रूप दो वातों का कथन हुआ है। सिन्धु है हृदयसिंधु, जिसमें से पापरूप अशुद्ध वायु (कार्बन डाइऑक्साइड) प्रश्वास द्वारा विवात होती रहती है, पृथक् होकर प्रवाहित होती रहती है; सिन्धोः यथा "सिन्धुसृत्याय= हृदयाय' जाताः (अथर्व० १०/२।११), देखें "अथर्ववेद भाष्य। तथा दूसरी वात या वायु है शुद्धवायु, श्वासवायु, जोकि परे के प्रदेश से श्वासरूप रोग में हृदय-समुद्र में आती है, इसमें 'आक्सीजन' वायु का निवेश होता है जोकि श्वासरूप में फेफड़ों में प्रविष्ट होकर अशुद्ध रक्त को शुद्ध कर दक्ष अर्थात् बल प्रदान करती है। दक्ष: वलनाम (निघं० २।९)। परावतः दूरनाम (निघं० ३।२६)।]
विषय
पतितोद्धार, शुद्धि और रोगनाशन।
भावार्थ
जिस प्रकार पृथ्वी पर ये दो वायुएं बहती हैं जो सिन्धु से चल कर दूर दूर तक के स्थानों तक पहुंच जाती हैं, उन में एक तो जल बरसा कर प्रजा के लिये अन्न उत्पन्न करती हैं और दूसरी हानिकारक रोग और ग्राम के मलिन वस्तुओं को आंधी बन कर उड़ा ले जाती है, इसी प्रकार हे पुरुष ! तेरे शरीर में भी (इमौ) ये (द्वौ वातौ) दो वायु हैं प्राण और अपान। ये दोनों (आ सिन्धोः) सिन्धु देश अर्थात् रुधिर के एकत्र होने का हृदय और फुफ्फुसों का वह प्रदेश जहां से नाड़ियों द्वारा रक्त बह कर सारे शरीर में फैलता और सारे शरीर से नीला मलिन रक्त बहकर ह्रदय में पुनः आ जाता है उस सिन्धु रूप हृदय और फुफ्फुस प्रदेश से (आ परावतः) शरीर के दूर से दूर स्थान तक (वातः) गति करते हैं, पहुंचते हैं। (अन्यः) इन में से एक (ते) तेरे लिये (दक्षं) बल को (आ वातु) प्राप्त कराने में समर्थ है और (अन्यः) दूसरा (यद् रपः) जो मलिन अंश है उसको (वि वातु) बाहर करे। शरीर में दो ही प्राण की गति हैं भीतर से वायु को बाहर फेंकना और बाहर से भीतर लेना। शरीर में भी दो क्रिया हैं। एक रक्त का शुद्ध स्वच्छ वायु पाकर शुद्ध हो जाना और शरीर का पुनः हरा भरा हो जाना, दूसरा मलिन अंश का रक्त से पृथक् होकर प्रश्वास, मूत्र और प्रस्वेद के मार्ग से बाहर हो जाना। प्राण और अपान में प्राण रक्त को स्वच्छ करता और अपान रक्त के मलिन अंश को प्रश्वास, प्रस्वेद और मल मूत्र द्वारा शरीर से बाहर कर देता है, उसी का यहां उपदेश किया है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंताति र्ऋषिः। चन्द्रमा उत विश्वे देवा देवताः। १-७ अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Save the Life
Meaning
Two winds these are that blow: One that blows from nature’s sea and the river of energy, the other blows far off and away. One is prana that blows in to the lungs, the heart and the blood stream. There is the other, apana, that blows out. The one, prana, breathes in energy, freshness, enthusiasm and expertise. The other, apana, blows out whatever is impure and polluted.
Translation
These two winds (vital breaths) are moving up to the sweat cells from far outside. May one of them breathe strength into you and the other breathe out what is evil in you. (Cf. Rg. X.137.2)
Translation
O men! Here blow two winds—the Prana, and apana upto the ambit of middle region of the body and upto the region of external limbs respectively. Let one of them breath energy upto you and the other blow your fault away. (Here fault is meant to convey the sense of disease).
Translation
Here are these two breaths. One of them (Prana) goes down to the heart, and the other (Apana) goes out afar. One of them (Prana) lends thee energy, and the other (Apana) removes thy internal impurity.
Footnote
Two breaths: Prana and Apana. Thee refers to man in general. Prana brings fresh air into our lungs, purifies the blood; and lends us energy. Apana takes out our impurity. We breathe in Oxygen, and breathe out Carbonic acid gas.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(द्वौ) दृश्यमानौ (वातौ) पवनौ। प्राणापानौ (वातः) वां गतिगन्धनयोः। गच्छतः संचरतः (आसिन्धोः) मर्यादायामाकारः। स्यन्दनशीलनाडीदेशपर्यन्तम् (आ परावतः) शरीराद् बाह्यदेशपर्यन्तम् (दक्षम्) दक्ष वृद्धौ-अव वृद्धिकरं बलम् (ते) तव (अन्यः) एकः प्राणवायुः (आवातु) आगमयतु, (अन्यः) द्वितीयोऽपानवायुः (विवातु) विगमयतु। निवारयतु (यत्) (रपः) रप कथने-असुन्। रपो रिप्रमिति पापनामनी भवतः-निरु० ४।२१। पापं दोषम् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal