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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सत्यानृतसमीक्षक सूक्त
    76

    उ॒तेयं भूमि॒र्वरु॑णस्य॒ राज्ञ॑ उ॒तासौ द्यौर्बृ॑ह॒ती दूरेअन्ता। उ॒तो स॑मु॒द्रौ वरु॑णस्य कु॒क्षी उ॒तास्मिन्नल्प॑ उद॒के निली॑नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । इ॒यम् । भूमि॑: । वरु॑णस्य । राज्ञ॑: । उ॒त । अ॒सौ । द्यौ: । बृ॒ह॒ती । दू॒रेऽअ॑न्ता । उ॒तो इति॑ । स॒मु॒द्रौ । वरु॑णस्य । कु॒क्षी इति॑ । उ॒त । अ॒स्मिन् । अल्पे॑ । उ॒द॒के । निऽली॑न: ॥१६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उतेयं भूमिर्वरुणस्य राज्ञ उतासौ द्यौर्बृहती दूरेअन्ता। उतो समुद्रौ वरुणस्य कुक्षी उतास्मिन्नल्प उदके निलीनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । इयम् । भूमि: । वरुणस्य । राज्ञ: । उत । असौ । द्यौ: । बृहती । दूरेऽअन्ता । उतो इति । समुद्रौ । वरुणस्य । कुक्षी इति । उत । अस्मिन् । अल्पे । उदके । निऽलीन: ॥१६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वरुण की सर्वव्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (इयम् भूमिः) यह भूमि (उत) भी, (उत) और (असौ) वह (बृहती) बड़ा, (दूरे अन्ता) [पृथिवी से] दूर गतिवाला (द्यौः) प्रकाशमान सूर्य (वरुणस्य राज्ञः) वरुण राजा का है, (उतो) और भी [पृथिवी और आकाश के] (समुद्रौ) दोनों समुद्र (वरुणस्य) वरुण की (कुक्षी) दो कोखें हैं, (उत) और वह (अस्मिन्) इस (अल्पे) थोड़े से (उदके) जल में भी (निलीनः) लीन हो रहा है ॥३॥

    भावार्थ

    वरुण परमात्मा की ईश्वरता बड़ों से बड़े और छोटों से छोटे पदार्थों में है, अर्थात् यह स्थूल और सूक्ष्म जगत् उसी के आकर्षण, धारण, संयोग, वियोग सामर्थ्य में स्थित है। उसकी उपासना करके सब मनुष्य अपनी उन्नति करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(उत) अपि (इयम्) दृश्यमाना (भूमिः) (वरुणस्य) सर्वश्रेष्ठस्य परमेश्वरस्य (राज्ञः) ईश्वरस्य। समर्थस्य (असौ) विप्रकृष्टा (द्यौः) प्रकाशमानः सूर्यलोकः (बृहती) महती (दूरेअन्ता) दुरीणो लोपश्च। उ० २।२०। इति दुर्+इण् गतौ-रक्। इति दूरम्। हसिमृग्रिण्वामि०। उ० ३।८६। इति अम गतौ-तन्। अन्तो अततेः-निरु० ४।२५। पृथिव्या दूरे अन्तं गमनं यस्याः सा। (उतो) अपि च (समुद्रौ) अतरिक्षभूमिस्थौ जलधी (कुक्षी) प्लुषिकुषिशुषिभ्यः क्सिः। उ० ३।१५५। इति कुष निष्कर्षे-क्सि। उदरस्य दक्षिणवामपार्श्वौ यथा (अस्मिन्) निकटस्थे (अल्पे) अल वारणपर्य्याप्तिभूषासु-प प्रत्ययः। लेशमात्रे (उदके) जले (निलीनः) अन्तर्हितः ॥

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    विषय

    सर्वव्यापक प्रभु

    पदार्थ

    १. (इयम्) = सबका अधिष्ठान बनी हुई यह (भूमिः) = पृथिवी (उत) = भी [अपि-सा०] (राज्ञः) = उस शासक (वरुणस्य) = पाप-निवारक प्रभु के वश में हैं। (उत) = [अपि च] और वह दूर स्थित (बृहती) = विशाल (दूरे अन्ता) = दूर-से-दूर व समीप-से-समीप वर्तमान (द्यौः) = धुलोक [आकाश] भी उस वरुण के वश में है। २. (उत उ)-और निश्चय से (समुद्रौ) = ये पूर्व और पश्चिम के समुद्र (वरुणस्य) = उस प्रभु के (कुक्षी) = दक्षिण व उत्तर पावं ही हैं। ये विराट् प्रभु की कुक्षियों के समान हैं, (उत) = और (अस्मिन्) = इस (अल्पे उदके) -=तटाक, हृद [तालाब] आदिगत अल्प जलों में भी वे प्रभु (निलीनः) = अन्तर्हित होकर रह रहे हैं।

    भावार्थ

    यह पृथिवी व धुलोक दोनों ही प्रभु के वश में हैं। पूर्व व पश्चिम समुद्र प्रभु की कुक्षियों के तुल्य हैं। छोटे-छोटे तालाबों के जलों में भी प्रभु अन्तर्हितरूपेण रह रहे हैं।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = ( उत इयं भूमि: ) = और यह सम्पूर्ण पृथिवी  ( वरुणस्य राज्ञ  ) = वरुण राजा के वश में वर्त्तमान है  ( दरे अन्ता ) =  जिस के किनारे बहुत दूर है  ( उत असौ बृहती द्यौ: ) = ऐसा यह बड़ा द्युलोक भी उस वरुण राजा के वश में है  ( उतो  समुद्रौ ) = पूर्व और पश्चिम दिशाओं के दोनों समुद्र  ( वरुणस्य कुक्षी ) = वरुण राजा का उदर रूप हैं  ( उत अस्मिन् अल्पे उदके ) = इस थोड़े से जल में भी  ( निलीन: ) = वह वरुण राजा अन्तर स्थित होकर वर्त्तमान है।

    भावार्थ

    भावार्थ = हे अनन्त वरुण राजन! यह सम्पूर्ण पृथिवी और जिस का अन्त  नहीं ऐसा बड़ा यह द्युलोक तथा पूर्व पश्चिम के दोनों समुद्र, आप वरुण राजा के वश में वर्त्तमान हैं। हे प्रभो! आप ही वापी, कूपादि थोड़े जलों में भी वर्तमान हैं, ऐसे सर्वव्यापक आपको जान कर ही हम सुखी हो सकते हैं।

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    भाषार्थ

    (उत) तथा (इयम्, भूमिः) यह भूमि (वरुणस्य राज्ञः) वरुण राजा की है, (उत) तथा (असौ) वह बृहती (द्यौः) बड़ा द्युलोक [वरुण राजा का है], (दुरे अन्ता) दूर और समीप में विद्यमान द्यौः और पृथिवी [वरुण राजा के हैं]। (उतो) तथा (समुद्रौ) दो समुद्र (वरुणस्य) वरुण की (कुक्षी) दो कोखें हैं, (उत) तथा (अस्मिन् अल्पे, उदके) इस अल्प उदक में (निलीनः) वह नितरां लीन हुआ-हुआ है ।

    टिप्पणी

    [दूरे= दूर में द्यौ:, अन्ते, अन्तिके, समीप में पृथिवी। “दूरे-अन्ते-द्यावा-पृथिवीनाम” (निघं० ३।३०)। समुद्रौ=पूर्व और पश्चिम के समुद्र। अल्पे उदके=उदक विन्दु में। लीन:=ली श्लेषणे (क्र्यादिः) लीङ श्लेषणे (दिवादिः)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    All Watching Divinity

    Meaning

    And this earth is the dominion of the ruler Varuna, and so is that vast heaven at the far end, and both the oceans of earth and space are Varuna’s, they all exist in him, and so does he pervade and is hidden in the greatest and in the smallest of waters.

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    Translation

    This earth, of course, belongs to the lustrous venerable Lord, also that yonder space, vast, extending far and near. The two oceans are merely the two paunches of venerable Lord; still in this spoonful of water. He is hidden.

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    Translation

    Even this earth belongs to the Imperial Ruler Varuna (the supreme Being) and the mighty sun, too, situated at the farthest end is His possession. The two oceans (i.e. The ocean On the earth and the ocean of the atmosphere), are as if the two cavities of His abdomen and He is wholly pervading even this drop of water.

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    Translation

    This earth, as well as that high heaven at a vast distance is God's possession. Both the oceans are God's loins, and this small drop of water, too, contains Him.

    Footnote

    Both oceans: the ocean of water on the Earth, and the ocean of air in the atmosphere. God is present in the grossest as well the tiniest objects, like ocean and a drop of water.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(उत) अपि (इयम्) दृश्यमाना (भूमिः) (वरुणस्य) सर्वश्रेष्ठस्य परमेश्वरस्य (राज्ञः) ईश्वरस्य। समर्थस्य (असौ) विप्रकृष्टा (द्यौः) प्रकाशमानः सूर्यलोकः (बृहती) महती (दूरेअन्ता) दुरीणो लोपश्च। उ० २।२०। इति दुर्+इण् गतौ-रक्। इति दूरम्। हसिमृग्रिण्वामि०। उ० ३।८६। इति अम गतौ-तन्। अन्तो अततेः-निरु० ४।२५। पृथिव्या दूरे अन्तं गमनं यस्याः सा। (उतो) अपि च (समुद्रौ) अतरिक्षभूमिस्थौ जलधी (कुक्षी) प्लुषिकुषिशुषिभ्यः क्सिः। उ० ३।१५५। इति कुष निष्कर्षे-क्सि। उदरस्य दक्षिणवामपार्श्वौ यथा (अस्मिन्) निकटस्थे (अल्पे) अल वारणपर्य्याप्तिभूषासु-प प्रत्ययः। लेशमात्रे (उदके) जले (निलीनः) अन्तर्हितः ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    উতেয়ং ভূমির্বরুণস্য রাজ্ঞ উতাসৌ দ্যৌর্বৃহতী দূরেঅন্তা ।

    উতো সমুদ্রৌ বরুণস্য কুক্ষী উতাস্মিন্নল্প উদকে নিলীনঃ ।।১৫।।

    (অথর্ব ৪।১৬।৩)

    পদার্থঃ (উত ইয়ং ভূমি) আর এই সম্পূর্ণ পৃথিবী (বরুণস্য রাজ্ঞঃ) বরণীয় পরমাত্মার অধীনে বর্তমান, (দূরে অন্তা) যাঁর স্বরূপের অন্ত অত্যন্ত দূর। (উত অসৌ বৃহতী দ্যৌঃ) এভাবে এই বড় দ্যুলোকও বরণীয় পরমাত্মার অধীনে আছে। (উতো সমুদ্রৌ) পৃথিবী ও অন্তরীক্ষ স্বরূপ উভয় সমুদ্র (বরুণস্য কুক্ষী) বরণীয় ভগবানের উদর রূপ। (উত অস্মিন অল্পে উদকে) তিনি সামান্য জলেও (নিলীনঃ) অর্ন্তস্থিত হয়ে বর্তমান । 

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে অনন্ত বরণীয় ভগবান! এই সম্পূর্ণ পৃথিবী আর অন্তহীন এমন বিশাল দ্যুলোক তথা দুই সমুদ্র তোমার অধীনে বর্তমান আছে। হে পরমাত্মা! তুমি কুয়ার সামান্য জলেও বর্তমান আছ। এই সর্বব্যাপক তোমাকে জেনেই আমরা সুখী হতে পারি ॥১৫॥

     

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